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शहाबुद्दीन की रिहाई का काफ़िला: क्या फिर होगा बिहार में ‘जंगलराज’

दीपक भास्कर:

बिहार में ग्यारह साल पहले बाहुबली शहाबुद्दीन को अनगिनत अपराधों के लिए पुलिस कार्रवाई के बाद जेल हुई थी। इन अपराधों की फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि उसे यहां लिखने से, शायद और कुछ भी लिखने की जगह नहीं बचेगी। बस, इसे इस तरह समझा जाना चाहिए कि शहाबुद्दीन से कोई भी जघन्य अपराध नहीं बचा हुआ है। चाहे वह हत्या हो, रेप हो अथवा पाकिस्तान के आईएसआई से सम्बन्ध। यह वो बाहुबली है जिससे लालू यादव भी खुद डर गए थे। ऐसे ही बाहुबलियों को लालू यादव की सरकार में संरक्षण मिलने की वजह से, पटना उच्च न्यायलय ने बिहार में लालू के राज को “जंगल-राज” की संज्ञा दी थी।

सिवान जिले से ताल्लुक रखने वाले [envoke_twitter_link]शहाबुद्दीन, “डर” का वो नाम है, जिसके सामने शोले फिल्म के गब्बर भी कहीं नहीं ठहरता।[/envoke_twitter_link] अब वो जेल से रिहा हो गया है और बिहार में बाहुबली के साथ रहने की सोच, सरकार के साथ रहने से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए बाहुबली को 500 गाड़ियों का काफ़िला भागलपुर जेल से सिवान तक ले गया, वो भी बिना कोई टोल टैक्स  दिए हुए। पटाखे फोड़ने से मना करने पर लोगों को बेरहमी से पीट भी दिया गया। जनता के मन में शहाबुद्दीन का वो डर है कि अगर उनसे कोई सवाल पूछा जाये तो जवाब आता है कि बाहुबली उनके लिए भगवान हैं। जिन्दा  रहने के लिए, इनको भगवान मानना भी तो जरूरी है। वैसे अब भगवान भी तो श्रद्धा की वजह से नहीं बल्कि डर की वजह से हीं अस्तित्व में हैं।

कुछ लोग ये कहकर उसे बचा रहे हैं कि इनसे ज्यादा बड़े अपराधी दूसरी पार्टी में हैं या फिर इतने लोगों को जमानत मिली है तो इसे क्यूँ नहीं? बीजेपी वालों से पूछिए तो वो कांग्रेस सरकार का बहाना बनाते हैं कि आप कांग्रेस सरकार से सवाल क्यूँ नहीं पूछते थे। अब उन्हें कौन ये बताये कि कांग्रेस के लिए थोड़ा भी प्यार होता तो बीजेपी सरकार में कैसे होती? लालू यादव से पूछिए तो वो बीजेपी के साम्प्रदायिक होने का ढोल पीट देते हैं और इस तरह ना जाने कितने जरूरी सवालों की हत्या हो जाती है।

[envoke_twitter_link]सवालों की हत्या ही तो जनतंत्र की हत्या है, ऐसे ही हत्यारे हर तरफ़ बैठे हुए नजर आते हैं।[/envoke_twitter_link] हमारे सवालों की हत्या ही हमारी हत्या करने जैसा है। सोशल मीडिया पर, शाहबुद्दीन के मुसलमान होने की वजह से उसे परेशान करने या जेल में डालने की बात हो रही है। लोग ये भी कह रहे हैं कि बाहुबली मुसलमान है, इसलिए लोगों को समस्या हो रही है। ये कैसी बात है कि जब किसी मुसलमान के द्वारा अपराध किया जाए, तो सब एक तरफ से इस्लाम या मुसलमान ऐसा नहीं करता का ढोल पीटने लगते हैं और दूसरी तरफ शहाबुद्दीन जैसा अपराधी मुसलमान हो जाता है।

कुछ लोग ये भी कह रहे हैं की दोष प्रमाणित नहीं हुआ है, तो फिर गुजरात के दंगे में न्यायालय ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को दोषमुक्त किया था फिर कोई उन्हेंं दंगे का दोषी क्यूँ माने? लेकिन हम सब जानते हैं और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी ने भी कहा था कि गुजरात सरकार ने “राजधर्म” नहीं निभाया था। आम नागरिक तो अंडे चुराने के आरोप में भी जेल की सजा काट आता है, लेकिन यहां कितने शहाबुद्दीन जैसे अपराधी हैं जिन पर दोष साबित हो जाता है?

कौन नहीं जानता कि सिवान शहर बिहार राज्य का एक जिला नहीं बल्कि शहाबुद्दीन का इलाका है और शहाबुद्दीन उस सिवान जनपद के राजा है। हम सब यहां बैठकर जो कुछ भी देखना चाहें वो देख सकते हैं, जैसे कि वहाँ पुलिस कप्तान और उसकी पूरी बटालियन, जिलाधीश और उनकी कार्यकारणी, लोअर कोर्ट और न्यायायिक व्यवस्था। लेकिन क्या ये सब बिहार राज्य-सरकार के अधीन काम करते हैं? जबाब वहाँ रहने वाले लोगों से पूछा जाना चाहिए, वो भी नाम ना बताने का आश्वासन देते हुए।

[envoke_twitter_link]जब किसी आरोपी का इतना बड़ा काफ़िला हो तो “सवाल-जबाब” का कोई औचित्य नहीं रह जाता।[/envoke_twitter_link] इतिहास गवाह है कि ऐसी कोई भी आवाज जो शहाबुद्दीन के खिलाफ उठी वो दर्दनाक चीख में बदल गयी। अगर मुसलमान, शहाबुद्दीन को अपना नेता मानते हैं और ये 500 गाड़ियों का काफ़िला उसी का परिणाम है तो साफ़ है कि, आने वाले सालों में भी सच्चर कमिटी जैसी और रिपोर्ट आएँगी और उसमें मुसलमानों की स्थिति और भी भयावह होगी।

शहाबुद्दीन के जेल जाने के बाद सिवान शहर में जैसे एक नई सुबह की शुरुआत हो गयी थी। पहली बार वहाँ कोई और विधायक या सांसद भी बन गया था। शहाबुद्दीन की पत्नी संसदीय चुनाव हार गयी थी। सवाल ये है कि ऐसा पहली बार क्यूँ हुआ था? क्यूंकि अब वहां शहाबुद्दीन नहीं था, मतलब “डर” नहीं था। प्रजातंत्र बिना डर के ही तो फलता-फूलता है। ये वही शहाबुद्दीन है जिस पर जे.एन.यू. छात्र संघ के अध्यक्ष चन्द्रशेखर उर्फ़ चंदू की सरे आम बाजार में हत्या का आरोप है। अगर जनता सब जानती है तो वो ये भी जानती ही होगी।

बाहुबलियों के उस दौर में शिल्पी जैन और उसके दोस्त का सामूहिक बलात्कार और निर्मम हत्या हुई थी और दोनों की लाश पटना के गाँधी मैदान में फेंक दी गयी थी। बिहार एक समय में सरकार के कानून से नहीं बल्कि बाहुबलियों के कानून से चलता था। इस तरह के बाहुबलियों की रिहाई राज्य में टूटती न्यायिक व्यवस्था और अपराधियों के साथ पुलिसिया गठजोड़ का जीता-जगता उदहारण है। ये कैसे हो जाता है कि जिस पुलिस ने शहाबुद्दीन के खिलाफ तमाम साक्ष्यों के आधार पर कार्रवाई की थी, उसी पुलिस के पास कोई सुबूत नहीं है।

शहाबुद्दीन के पक्ष में भी हजार तर्क गढ़ दिए जाएंगे लेकिन शाहबुद्दीन का सच कौन नहीं जानता। बिहार में नितीश कुमार मुख्यमंत्री हैं और जो कुछ उम्मीद भी है वो उनसे ही है। बिहार में जंगल राज की वापसी हो रही है या नहीं ये पता नहीं, लेकिन बिहार में ‘न्याय के साथ विकास’ के नारे पर यह रिहाई गहरा आघात है। सामाजिक न्याय के नाम पर हम शहाबुद्दीन को भी अगर सही मानने लगेंगे, तो हम समाज ही नहीं रह जाएंगे। शहाबुद्दीन की रिहाई का काफ़िला, नितीश कुमार के बिहार के ऊपर वो तमाचा है जिसके दर्द से बिहार अगले कई दशकों तक निकल नहीं पाएगा। इस तरह के काफिले और बाहुबली, बिहारियों के उस जख्म को ताजा कर देते हैं जिससे वो महज एक दशक पहले उबरे थे। लोग शहाबुद्दीन की रिहाई को जमानत भर मानते हैं, लेकिन असल में बिहार में न्याय की जमानत जब्त हो चुकी है।

 

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