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बॉलीवुड के साथ दौड़ता ‘पैरलल सिनेमा’ क्या अपने गोल्डेन ऐज में है?

अनूप कुमार सिंह:

आमतौर पर इस देश में अच्छी फ़िल्में देखने का शौक हर किसी को है लेकिन हर साल बनने वाली सैकड़ों फिल्मों में से कुछ चुनिंदा फ़िल्में ही ऐसी होती हैं जिन्हें देखकर आप कह सकते हैं कि ये स्तरीय सिनेमा है। आखिर क्या वजह है कि दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाला बॉलीवुड एक ऑस्कर या किसी सम्मानित पुरुस्कार से हर साल वंचित रह जाता है। हमारे देश में संवेदनशील और अर्थपूर्ण विषयों पर बनने वाली फिल्मों को कला फ़िल्में और नाच गाने और ड्रामे से भरपूर सिनेमा को मसाला फ़िल्में कहा जाता है। बॉलीवुड में कला फिल्मों का दौर काफी पहले से शुरू हो चुका था।

सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, गिरीश कुलकर्णी जैसे कद्दावर निर्देशक 70-80 के दशक में ही ऐसी फ़िल्में बनाने लगे थे जिनका विषय आम चलताऊ किस्म की मसाला फिल्मों से काफी अलग और सवेदनशील होता था। हालांकि कला फ़िल्में बनाने में मुश्किलें उस दौर में भी थी, क्योंकि ऐसी फिल्मों की सफल होने की गुंजाइश काफी कम रहती थी और इन्हें बनाने में खर्चे ज्यादा थे। वहीं कई अन्य मशहूर फिल्मकारों का यह भी कहना था कि ‘सिर्फ फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जाने वाली फ़िल्में बनाने से वे अपनी जीविका नहीं चला सकते बल्कि फिल्मों का सही बिज़नस करना भी उतना ही ज़रूरी है।’

सत्तर के दशक में जब भारत में मार्क्सवाद चरम पर था तो उस समय की फिल्मों पर भी इसका खूब असर पड़ा। भूमिका, निशांत और अंकुर जैसी अर्थपूर्ण फिल्मों को देखकर इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उसके बाद श्याम बेनेगल ने मंथन जैसी फिल्म से मसाला फिल्मों के निर्देशकों को फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया कि बॉलीवुड में सिर्फ चलताऊ किस्म की कहानी ही नहीं चलती है, लेकिन फिर भी बात अगर कमाई की की जाए तो ये फिल्मों व्यवसायिक फिल्मों की कमाई से अभी भी कोसो पीछे थी। उस दौर के कई निर्देशकों के सिनेमा में अच्छी फ़िल्में बनाने की इस छटपटाहट को आप महसूस कर सकते हैं। अस्सी के दशक में जब महेश भट्ट आये तो उन्होंने अपनी सार्थक और विषयपरक फिल्मों से सबका ध्यान अपनी ओर खींचा, लेकिन कुछ ही समय बाद वे भी बाज़ार की चकाचौंध से खुद को अलग नहीं रख पाये।

उस समय फिल्म विधा से जुड़े काफी लोग यह मानने लगे कि 90 के दशक और उसके बाद शायद बॉलीवुड में कला फ़िल्में बननी ही बंद हो जायें। इस दौर में व्यावसायिक सिनेमा की अपार सफलता ने बॉलीवुड में काम करने वालों के अलावा कॉरपोरेट घरानों का ध्यान भी अपनी ओर खींचा। कुछ ही दिनों बाद बॉलीवुड एक कमाऊ बिजनेस की राह पर चल पड़ा और देश के बड़े से बड़े बिजनेसमैन इस उभरते व्यवसाय में अपनी पूँजी लगाने लगे। ऐसे में फिल्म में उसके विषय और क्राफ्ट से ज्यादा उसकी कमाई को ध्यान में रखकर फ़िल्में बनायी जाने लगीं। अब धीरे-धीरे फिल्म समीक्षकों की ये बात सच होने लगी कि अब बॉलीवुड में आर्ट फिल्मों का दौर पूरी तरह ख़त्म हो जायेगा।

लेकिन इसी समय में श्याम बेनेगल, प्रकाश झा, सुधीर मिश्रा जैसे कुछ निर्देशकों ने सिनेमा की एक नई शैली को विकसित किया जिसे समानांतर सिनेमा (Parallel Cinema) कहा गया। ये काफी हद तक कला फ़िल्में और मसाला फिल्मों का मिश्रण थी। अर्थपूर्ण विषय होने के साथ ही इस सिनेमा के कुछ हिस्से ऐसे ज़रूर रखे जाने लगे जो आम जनता को ज्यादा पसंद आये। ये निर्देशक की अपनी क्षमता पर निर्भर करने लगा कि वे कठिन से कठिन सब्जेक्ट को कैसे ऐसी संजीदगी से दिखाएँ कि उसका असर ज्यादा से ज्यादा लोगों पर पड़े और साथ ही फिल्मों का बिज़नस भी सही चलता रहे। इस दशक में जुबैदा, हज़ार चौरासी की मां, मृत्युदंड, दामुल, हू तू तू, बैंडिट क्वीन, ज़ख्म जैसी कई फिल्मों ने इस नई शैली को ऊँचाइयों पर लाकर खड़ा कर दिया। अब ऐसा लगने लगा था कि अच्छी फ़िल्में बनाकर भी पैसा कमाया जा सकता है।

साल दर साल ऐसी अच्छी फ़िल्में बनती रही और [envoke_twitter_link]21 वीं सदी में आकर तो समानांतर सिनेमा को नया आयाम मिला।[/envoke_twitter_link] इस दौर के कम उम्र के निर्देशक हर उस विषय को अपनी फिल्मों में दिखना चाहते थे जो किन्ही वजहों से बॉलीवुड में अब तक दिखा पाना मुश्किल था। इस दौर में राम गोपाल वर्मा, श्रीराम राघवन, और सुधीर मिश्रा जैसे निर्देशकों ने अपनी अलग सोच और विषयों पर अपनी पकड़ से इन सामानांतर फिल्मों को मुख्यधारा की फिल्मों की टक्कर में लाकर खड़ा कर दिया। राम गोपाल वर्मा इस शैली के सबसे सफल निर्देशक साबित हुए, सत्या जैसी कमर्शियल फिल्म में उन्होंने यह साबित कर दिखाया कि ऐसे जटिल विषयों पर फ़िल्में बनाकर भी चलताऊ फिल्मों से ज्यादा कमाई की जा सकती है। कुछ ही सालों में इस राह पर चलने वाले नये निर्देशकों की बाढ़ सी आ गयी और उन सबमें [envoke_twitter_link]सबसे ज्यादा प्रभावित अनुराग कश्यप ने किया।[/envoke_twitter_link] अपनी पहली ही दो फिल्मों के रिलीज़ न हो पाने के बावजूद उन्होंने कभी अपनी राह नहीं बदली और ब्लैक फ्राइडे और गुलाल जैसी फ़िल्में बनाकर पूरी दुनिया को यह दिखा दिया कि कम पैसों में भी कैसे बेहतरीन सिनेमा बनाया जा सकता है। बॉलीवुड के इस बदलते परिदृश्य का उन्हें जनक कहा जा सकता है।

अनुराग ने खुद सफल होने के बाद लगभग हर उस व्यक्ति को फिल्मों में मौका दिया जो किन्ही अन्य वजहों से इंडस्ट्री में अपने काम को दिखा नहीं पा रहे थे। उन्होंने अपने बैनर तले एक से एक बेहतरीन युवा निर्देशकों को फिल्म बनाने का मौका दिया। वे अपने अंडर में काम करने वाले निर्देशकों को पूरी छूट देने लगे जिसके फलस्वरूप हिंदी सिनेमा को इस दौर में आमिर, उड़ान, लंचबॉक्स, लुटेरा और शाहिद जैसी कालजयी फ़िल्में मिलीं। इन फिल्मों के क्राफ्ट ने हर किसी को प्रभावित किया। इनके अलावा इम्तियाज़ अली और दिबाकर बनर्जी जैसे युवा निर्देशकों ने भी ‘हाईवे’ और ‘लव सेक्स और धोखा’ जैसी फ़िल्में बनाकर यह दिखा दिया कि सामानांतर सिनेमा में वे भी लम्बी रेस के घोडें हैं। बात चाहे प्रेम में हताश प्रेमी की कहानी ‘रॉकस्टार’ की हो या राजनीति और प्रशासनिक महकमें के आपसी संबंधो को दिखाती ‘शंघाई’ की, इतना तो तय है कि अब दर्शकों को हर शुक्रवार नये विषयों और नये क्राफ्ट की फिल्मों के देखने के लिए सिर्फ हॉलीवुड पर ही निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। यह कहना गलत नहीं होगा कि [envoke_twitter_link]आज का दौर बॉलीवुड में सामानांतर सिनेमा का स्वर्णिम दौर है।[/envoke_twitter_link]

 

 

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