आप सेक्स या पॉर्न को लेकर इतने हाइपोथेटिकल क्यों है? जैसे यह कोई एलियन क्रिया या पापाचार है जिसका प्रयोग अगर साहित्य में कर दिया गया तो साहित्य हल्का, स्तरहीन और दोयम दर्जे का हो जाएगा। मैं तो जब भी डिप्रेस्ड या लो फील करता हूं पॉर्न देखता हूँ और रिफ्रेश हो जाता हूँ। पर मेरा लक्ष्य यहाँ सेक्स या पॉर्न क्रियाओं का बखान करने का नही, वरन उसके दूसरे पहलू पर आपका ध्यान आकर्षित करने का है जो आपकी नज़र में अश्लीलता की श्रेणी में आता है।
कभी-कभी हिंदी फ़िल्मों के अंतरंग दृश्यों और साहित्यिक कथाओं में कुछ घटनाक्रमों को देखते हुए भी वही अधूरापन सा लगता है। मालूम पड़ता है कलाकार ने सेंसरशिप या सामाजिक भय या अपने रूढ़िवादी दृष्टिकोण के कारण, कला से समझौता कर लिया है जिसकी उपस्थिति के बिना काम चल जायेगा। पर वह उस गुप्त लक्षण से अंजान रह जाता है जो उसकी इस अधूरी कला के प्रभाव के दुष्परिणाम में समाज में पैदा होगी। जैसे कि यह एक अमर्यादित दायरा है जिसके पार अगर कुछ भी दिखाया गया तो वह असामाजिक होगा। दरअसल यह असामाजिक सुविधा ही हमे एक दिन हानि पहुंचाती है।
जबकि यह उस अमर्यादित चीज़ को समझने का बेहतर माध्यम और मौका हो सकता था। हमें साहित्य और फिल्मों के उन रिक्त स्थानों पर इन प्रतिबन्धित उन्मुक्तताओं को बेहिचक रखना चाहिए जहां अक्सर साहित्यिक सेंसरशिप और फिल्मी कट्स की कैंचियां चलती हैं। जिसके कारण एक तरह से हम इस प्राकृतिक स्वभाविकता के सच से दूर अपने पाठकों और दर्शकों की एक ऐसी नकली समाजिकता से ग्रस्त भीड़ तैयार कर रहे हैं, जिसके लिए यह एक अस्वभाविक चीज़ है जिसे इस तरह घटित नही होना चाहिए।
अधिकतर रेप दुर्घटनाओं और व्यभिचारों में अगर नीयत एक महत्वपूर्ण कारक है, तो इस अप्राकृतिक अहम और पितृसत्तावादी पाखण्ड की भी कम भूमिका नहीं है। जिसे हम नकली और अधूरी कला से और हवा दे रहे हैं। अपने में उन्मुक्त कोई भी अभिव्यक्ति जिसके लिए हमारे समाज ने एक ख़ास पर्दादारी बना रखी है, जब उस कृत्रिम नैतिक लहज़े से बाहर सार्वजनिकता में अभिव्यक्त होती है तो उस गढ़ी हुई शुचिता के माथे को चुभने लगती है जिसे आप कभी नैतिकता और कभी परम्परा से सम्बोधित करते हैं।
समय गवाह है कि चाहे हमारे कवि हों या संगतराश या फिर कोई नया नीति पुरुष/स्त्री उन्होंने समय-समय पर इसमें अपनी सृजनात्मक्ता से सेंध लगाई है। यही कारण है कि मनुष्य सामाजिक और सांस्कृतिकता के इस आधुनिक दौर तक पहुंच पाया है। पर जब कोई स्त्री के वस्त्रों, साहित्यिक अनुप्रयोगों में प्राचीन मार्यादा की घेराबन्दी करता है तो वही आधुनिकता पिछड़ी हुई सी लगती है।
हमे इस नैतिक और वैचारिक संकुचन को विस्तृत करने के लिए उन सभी अमर्यादित, अश्लील, आपत्तिजनक और अन्यूज़ुअल चीज़ों को चाहे वह भाषा से सम्बंधित हो या पहनावे से, व्यवहार से सम्बंधित हो या दैहिक उन्मुक्तताओं से, उसे अपने काव्य, कला और सामाजिक व्यवहारों में ज्यों का त्यों बेहिचक स्थान देना होगा तभी यह पिछड़ेपन की बीमारी जायेगी। सम्भवतः तभी वह नया समाज निर्मित हो पायेगा जिसमें नारी की उन्मुक्तता किसी को ऑकवर्ड नहीं लगेगी।