सबसे पहले सबको हिंदी दिवस की अशेष शुभकामनाएं एकदम पारंपरिक तरीके से। अब थोड़ा बैरियर तोड़ते हैं बोलचाल वाले तरीके पर आ जाते हैं। आपके पास स्मार्ट टीवी है क्या? नहीं है? ओह्ह कोई बात नहीं मेरे पास है, वैसे बिना स्मार्ट टीवी में आजकल मज़ा नहीं आता। अच्छा किस कॉलेज से पढ़े हो? मैं फलाने कॉलेज से हूंं, गजब कैंपस है। ये छोड़ो ये बताओ कि कहां से हो? अच्छा,कोई बात नहीं कभी मेरे शहर आओ ज़बर्दस्त है।
उपर वाला पैटर्न तो समझ ही गए होंगे, पैटर्न ये कि मेरे अच्छा होने के लिए, तुम्हारा बुरा होना ज़रूरी है। वैसे सीधा तो कह ही सकते हैं कि मेरा कॉलेज, मेरा शहर मेरी चीज़ें अच्छी है, लेकिन ऐसे साबित कैसे होगा कि सामने वाले से अच्छी है। तो पहले सामने वाले को थोड़ा तो नीचा दिखाना पड़ेगा ना।
और नहीं तो क्या, तुम्हारी अंग्रेज़ी भाषा भी कोई भाषा है, हिंदी पढ़ो देखो कितना अपनापन है, देखो कितनी समृद्धशाली भाषा है। यहां पर भी पैटर्न वही जिसकी बात उपर की हमने और सवाल वही जो टाइटल में है। क्या हिंदी को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेज़ी को कोसना ज़रूरी है? क्या हम ऐसा करते हुए हिंदी को और कमज़ोर नहीं करते ? ठीक है कि हमें अपनी भाषा को बढ़ावा देना ही चाहिए और बिना कोई संदेह हिंदी खूबसूरत है, लेकिन क्या यह कहने के लिए कि हिंदी खूबसूरत है ये कहना ही पड़ेगा कि अंग्रेज़ी खूबसूरत नहीं है? जैसे अंग्रेज़ीपंती, क्या इस शब्द की उत्पत्ति मात्र ही अंग्रेज़ी के प्रति हमारी इर्ष्या का सूचक नहीं है? मसलन ये कमर्शियल देखिए, हिंदी की विराट छवी दिखाने के बदले उसे इर्ष्या और हीनता से ग्रसित भाषा बनाकर प्रस्तुत नहीं किया गया है?
एक बात और है कि हिंदी दिवस पर अचानक हमें हिंदी इतनी याद आ जाती है कि सोशल मीडिया पर तांता लग जाता है हिंदी दिवस की शुभकामनाओं का। हिंदी का नारा बुलंद होना चाहिए लेकिन बस एक खास दिन नहीं, ठीक उसी तरह जैसे हम कहते हैं कि एक ही दिन फादर्स डे और एक ही दिन मदर्स डे क्यों?
और साहब एक बात तो माननी पड़ेगी की भाषा बदलती है और बदलती रहेगी जैसे समाज बदलता है और बदलाव को अपने में समा लेता है। वैसी ही स्वतंत्रता भाषा के पास भी है, हिंदी भी बदली है, और हर पीढ़ी के साथ बदलेगी। क्योंकि गूगल की मदद से हिंदी लिखने वालों का भी हिंदी पर उतना ही हक है जितना आपका। उन्हें कमतर आंक कर खुद हिंदी का आका ना बने। जिस भाषा में इतनी उदारता है उसे उतना ही विराट बनने दीजिए।
ये बात निश्चित है कि भाषा को उसके शुद्ध रूप में जानना चाहिए, लेकिन अगर किसी को एक बिंदी (अनुस्वार) की समझ कम हो तो उसको मूर्ख समझने और उपहास करने की प्रवृत्ति से तो पार पाना ही होगा। ख्याल इसका ज़रूर रहना चाहिए कि एक सम्मानजनक स्तर बना रहे कम से कम जिस तरह अखबारी हिंदी आज क्षमा पात्र बन बैठी है, वैसा ना हो। चलिए ना कोशिश करते हैं कि हिंदी को उसके उदार चरित्र का बखान कर के ही उसे महानता प्राप्त करने दें। हम हिंदी के अलग-अलग मठ ज़रूर बनाएं लेकिन वहां मठाधीश के बदले वाद-विवाद की छात्र संस्कृति हो। हां जो भाषायी त्रुटि इस लेख में है उसे बुरा ना मानो हिंदी है के तर्ज पर भुला दीजिएगा।