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“पहले कोलकाता में सब्जी बेचता था, लेकिन दिल्ली में दिहाड़ी मज़दूर बन गया हूं”

To whom does the city belong? To really answer this question we need to think beyond property and possession and see things in terms of home and a sense of belonging. These young Delhiites will share stories about their city in this column. It is a city with its ears close to the ground, made up of narrow bylanes, street corners, tea stalls and numerous places where people meet and talk. The writers have emerged from collectives engaged in writing practices hosted by Ankur Society for Alternatives in Education in Delhi’s working class neighbourhoods.

पारुल:

पिताजी कोलकाता से पैसे भेजते थे, उसी से घर चलता था। पैसा कब खत्म हो जाते थे, पता ही नहीं चलता था। महीने में एक बार पिताजी से बात होती थी, वह भी तब जब वो चाहते थे। उनसे बात करने का कोई जुगाड़ हमारे पास नहीं था। पिताजी को घर आए पूरे चार साल हो चुके थे।

एक दिन मैंने भी फैसला कर लिया कि शहर जाऊंगा। जब भी पिताजी घर वापस आते थे तो शहर के बारे में सुनाते थे। उन्हीं की ज़ुबानी सुना था कि वहां पर बड़ी-बड़ी कंपनियां खुल रही हैं। कुछ दिन बाद मैं भी कोलकाता चला गया। पिताजी को मेरे आने का पता नहीं था। मेरे पास बस उनका पता था। कोलकाता स्टेशन पर उतरा और कुछ कदमों का पीछा करते हुए स्टेशन से बाहर आ गया। हाथ में पता लिए जगह की तलाश शुरू कर दी। इसी तलाश के बीच कोलकाता शहर को नज़दीक से देखा था। बेहद खूबसूरत था। कहीं खाली-खाली तो कहीं खचाखच भीड़।

आखिर, हाथों में पते लिए और गुज़रते रास्तों का हिस्सा बनकर जैसे-तैसे मंज़िल तक पहुंचा। सामने सड़क के किनारे मटमैला सफेद रंग का कुर्ता पयजामा पहने, कंधे पर गमछा लिए एक शख़्स बार-बार अपने चेहरे के पसीने को पोंछ रहा था। देखते ही लग गया था कि पिताजी ही हैं। वो एक बड़ी-सी रेहड़ी को संभाले थे। रेहड़ी पर सब्ज़ी पड़ी थी। पूरे पसीने में तर थे। रेहड़ी को धकेलते हुए काफी थके लग रहे थे। सच कहूं तो पिताजी को गांव में कभी ऐसे नहीं देखा था। गांव में बिल्कुल साहूकार की तरह रहते थे। साफ-सुथरे कपड़े होते थे, और पसीना तो उनको छू भी नहीं पाता था।

उनके पास में गया और पांव छूए। हड़बड़ाहट के साथ पिताजी ने अपने पांव पीछे कर लिए। मैं उठा, शायद मुझे पहचान नहीं पाए थे। मेरी ओर देखते रहे। कुछ बोले नहीं। मैं भी देखता रहा। मैंने भी कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर बाद बोले, “कौन हो भाई?”

मैंने मज़ाक में कहा, “आपके ही गांव का हूं।”

वह बोले, “अच्छा, किसके बेटे हो?”

मैंने कहा, “राजकिशोर का।“

इसके बाद तो वे हंसने लगे। मेरी शक्ल बड़े ध्यान से देखी और बोले, “कैसे भाई? बिना खबर किए हुए आ गए। कैसे हो? जीते रहो।” मुझे उंगली से इशारा करते हुये बोले, “वहां पर मेरा कमरा है।”

वहां पर कई सारे कमरे लाइन से बने थे। मैं चाबी लेकर वहां से चलता बना। किराए का कमरा काफी छोटा था। एक तरफ खाट बिछी थी और उस पर धूल से भरी एक चादर थी। कमरा भी बहुत मैला हो रखा था। छत पर एक पंखा टंगा था। तार भी जैसे-तैसे लटके थे। कमरे के एक कोने में सब्जियां पड़ी थी, कुछ ज़मीन पर रखी थी और कुछ पेटियों में बंद थी। कमरे को देखते हुए और थोड़ा झाड़ू करते-करते ही दो घंटे हो गए थे। खाने के लिए कुछ नहीं था। सब्जियों की पेटी में से खीरा निकाला और पेट भर लिया। पिताजी शाम में आए। बाहर से ही खाना लेते लाये। मुझे उठाया और बोले, “खाना खा लो और सो जाओ। कल तुमको बाहर ले चलेंगे।”

अगले दिन से पिताजी के साथ उनके काम में हाथ बटाना शुरू कर दिया। पिताजी को सब्ज़ियों के दाने बेचने के लिए गंगा के किनारे जाना था। मुझे समझा गए,“यह सब्ज़ी की रेहड़ी है, इसे बेचो।” कुछ पैसे भी दिये और बोले, “अगर सब्ज़ी नहीं बिकी तो वापस गांव चले जाना।” सुबह ही अपना समान लेकर वो चले गए और एक बार फिर से मुझे समझा गए। अब फैसला मुझे करना था। बहुत सोचने के बाद तय किया कि एक बार तो रेहड़ी लेकर चलते हैं। सब्ज़ी बिकती है या नहीं, अगर बिक गई तो मज़े आ जाएंगे। दूसरे दिन सारी सब्ज़ियां धोई। रेहड़ी को साफ किया। सब्ज़ियोंं को तरीके से लगाया और कोलकाता की सड़कों पर निकल पड़ा।

इतना सब हो जाने के बाद भी मैं आवाज़ नहीं लगा पा रहा था। लोगों को पुकारूं कैसे? दोपहर तक तो बस रेहड़ी लेकर चलता रहा। जहां भीड़ होती वहां खड़ा हो जाता। कुछ बिकता, कुछ नहीं। मैं देख रहा था कि सामान सही तरीके से नहीं बिक रहा है तो बड़ी मुश्किल से आवाज़ लगाई। पहली बार में कम निकली और पहला दिन ऐसे ही निकल गया। शाम को कमरे पर आया और हिसाब देखा, सिर्फ पचास रुपए की ही कमाई हुई थी। यह मेरी पहली कमाई थी। खीरा-टमाटर में काला नमक मिलाया, पांच रुपए की दही लाया और खाकर सो गया।

दूसरे दिन रेहड़ी को तैयार कर चौक पर जाकर खड़ा हो गया। वहां कुछ और रेहड़ी वाले खड़े थे। दो तो वहीं बगल वाले कमरे में रहते थे। उनसे थोड़ी जान-पहचान हो गई थी। मैंने आज पूरे ज़ोर से आवाज़ लगाई- आलू ले लो, भिंडी ले लो, टमाटर ले लो, आवाज़ सुनकर औरतें आई। सब्ज़ी बिकी। अच्छा लगा।

धीरे–धीरे दिन बीतते चले गए। लोगों से जान–पहचान बनने लगी। मैं रात-दिन काम करने लगा। एक दिन बारिश में भीग जाने पर मेरी तबीयत खराब हो गई थी। मैंने बीमारी में ही सोचा कि घर पर फोन किया जाये। माँ से बात हुई।

बीमारी में कुछ कर नहीं पा रहा था तो सोचा कि गांव ही चलते हैं। गांव पहुंचे तो देखा कि पिताजी जी वहीं पहुंचे हुए हैं। गांव में बीस दिन ही हुए थे और मेरी शादी कर दी गयी। एक दिन पिताजी बोले, “कलकत्ता में काम नहीं है, कहीं और जाना होगा।” मुझे कुछ मालूम नहीं था। गांव के कुछ लड़कों से बात की, तब दिल्ली शहर का नाम सुना। तभी मन पक्का किया कि दिल्ली जाएंगे।

तीन महीने के बाद दिल्ली में कदम रखा। सोचा था सब्ज़ी की रेहड़ी लगाएंगे। कुछ पैसे जेब में थे पर यहां सब कुछ कलकत्ता से महंगा था। आते ही पैसे हवा हो गए। एक महीना भटकने के बाद इस लेबर चौक पर आकर बैठ गया।

पारुल,  इनका जन्म दिल्ली में ही हुआ। दसवीं कक्षा में पढ़ती है। ये पिछले तीन साल से अंकुर कलेक्टिव से जुड़ी हैं। इन्हें लिखने का बेहद शौक है। दूसरों की कहानी को सुनना और उनकी कहानियों को लिखना पसंद है।

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