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मुज़फ़्फरनगर दंगे के 3 साल: आज भी नहीं बदली विस्थापितों के बदहाली की तस्वीर

ज़फ़र इक़बाल:

सितंबर 2013 में पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इलाक़े में जो साम्प्रदायिक हिंसा हुई उसकी वजह से बहुत से लोगों को अपना घर छोड़कर कैम्पों में शरण लेनी पड़ी। उसके बाद कुछ लोग अपने घर वापस गए और कुछ लोग मुसलमान बहुल गाँवों के आसपास घर बनाकर बस गए। मुज़फ़्फ़रनगर और शामली दोनों ज़िलों में ऐसी 65 कॉलोनियाँ बसी हैं जिनमें लगभग 30,000 लोग रह रहे हैं। अमन बिरादरी और अफ़कार इंडिया ने इन सभी 65 कॉलोनियों का सर्वे किया। जिससे इन कॉलोनियों में नागरिक सुविधाओं की स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। (विस्तार में जानकारी हासिल करने के लिए देखें “सिमटती ज़िंदगीः साम्प्रदायिक हिंसा और जबरन विस्थापन, मुज़फ़्फ़रनगर और शामली के हालात, लेखक हर्ष मंदर, अकरम अख़्तर चौधरी, ज़फ़र इक़बाल और राजन्या बोस हैं। जिसे अमन बिरादरी और योडा प्रेस ने मिलकर प्रकाशित किया है।)

किस तरह एक मामूली सी मोटरसाईकल टक्कर की घटना को साम्प्रदायिक रूप दिया गया। “लव जिहाद” की अफ़वाह फैलाई गई। एक झूठ फैलाकर लोगों को साम्प्रदायिक आधार पर लामबंद किया गया। उसके बाद बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने और हिंदुओं को उकसाने में भाजपा और आर.एस.एस. से सम्बद्ध दूसरे संगठन पूरी तरह सक्रिय थे। जो महापंचायत हुई उसमें भाजपा नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिया। इस पूरी घटना के लिए राज्य सरकार भी उतनी ही ज़िम्मेदार है, जिसने हिंसा को रोकने की कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। बिना राज्य सरकार की सहमति और भागीदारी के इतने दिनों तक हिंसा जारी नहीं रह सकती। राज्य सरकार ने कैम्पों पर बुलडोज़र चलवाकर अपना अमानवीय रूप दिखाया। हिंसा से सीधे प्रभावित गाँवों के परिवारों को सरकार ने पाँच लाख रुपये का मुआवज़ा दिया, वह भी उनसे यह हलफ़नामा लेने के बाद कि वह वापस अपने गाँव नहीं लौटेंगे। इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है।

सरकार ने इनके साथ जो सुलूक किया वह तो किया ही, जिन मुसलमान बहुल गाँवों के आसपास ये लोग जाकर बसे उन पुराने गाँव वालों नें भी इनके साथ अच्छा सुलूक नहीं किया। इनको वे लोग बाहरी समझते हैं और बोझ मानते हैं। कुछ कॉलोनियों में इनके बच्चों का स्कूल में दाख़िला नहीं होता, क्योंकि पुराने गाँव वाले इनका विरोध करते हैं। घर बनाने के लिए मुसलमान ज़मींदारों से कई गुना अधिक दाम पर ज़मीन ख़रीदने को मजबूर हुए। सभी लोगों नें इनकी मजबूरी और बेबसी का ख़ूब फ़ायदा उठाया। ये लोग जिन कॉलोनियों में रहने को मजबूर हैं वो जहन्नुमनुमा गंदी बस्ती से ज़्यादा कुछ नहीं है। फिर भी ये बहादुर लोग इन्हीं गंदी बस्तियों में अपनी ज़िंदगी शुरू करने में लगे हैं।

न्याय की बात करना तो जैसे बेमानी है। हिंसा और बलात्कार के आरोपी खुले घूम रहे हैं। बहुत से केस बिना किसी जाँच के बंद कर दिये गए। पुलिस का रवैया बिल्कुल पक्षपातपूर्ण रहा है। पुलिस पर ऐसा आरोप है कि उसने जान बूझकर आरोपियों को गिरफ़्तार नहीं किया। न्यायालय से भी पीड़ितों को इंसाफ़ नहीं मिला। दंगे की जाँच के लिए जस्टिस विष्णु सहाय की अध्यक्षता में जो न्यायिक आयोग बना उसने अपनी रिपोर्ट में किसी को भी दोषी नहीं माना, बल्कि वह हिंदुत्ववादी पॉपुलर धारणा को ही स्थापित करती है। यह रिपोर्ट राज्य सरकार की आपराधिक भूमिका पर भी कहीं बात नहीं करती।

ये जो कॉलोनियाँ बसी हैं उसको बसाने में सरकार की कोई भूमिका नहीं रही है। ज़्यादातर कॉलोनियों के लोगों ने बताया कि, उनकी कॉलोनी का सरकारी रिकार्ड में नाम नहीं है इसलिए उनको किसी तरह सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता है। ज़्यादातर कॉलोनियाँ लोगों ने अपनी कोशिश से बसाई है। बहुत सी ऐसी कॉलोनियाँ भी हैं जिन्हें बसाने में मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं की भूमिका रही है। दो कॉलोनियों को बनाने में सदभावना ट्रस्ट ने मदद की है। मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में एकता कॉलोनी-1 और एकता कॉलोनी-2 में सी.पी.आई. (एम) ने लोगों को घर बनाने में मदद की। इस कोशिश को रेखांकित किया जाना चाहिए।

ज़्यादातर कॉलोनियाँ विस्थापित लोगों ने अपने प्रयास से बसाई हैं। कई बार इन लोगों ने पहले एक समूह बनाकर बसना शुरू किया। लेकिन ज़्यादातर लोग धीरे-धीरे ज़मीन लेकर बसने लगे लेकिन इसके पीछे उनकी कोई योजना नहीं थी। मुज़फ़्फ़रनगर में 7 कॉलोनियों में किसी के पास भी ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं है जबकि तीन कॉलोनियों में कुछ लोगों के पास ज़मीन का मालिकाना हक़ है। तीन अन्य कॉलोनियों में ज़्यादातर लोगों के पास ज़मीन की मालिकाना हक़ है। 15 कालोनियाँ ऐसी हैं जहाँ सभी के पास ज़मीन का मालिकाना हक़ है और घर भी हैं। शामली ज़िले में आठ ऐसी कॉलोनियाँ हैं जिसमें किसी के पास ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं है। एक कॉलोनी में कुछ लोगों के पास जबकि दो कॉलोनियों में ज़्यादातर लोगों के पास ज़मीन का मालिकाना हक़ है। बाक़ी बची 26 कॉलोनियों में सभी के पास ज़मीन का मालिकाना हक़ है।

मुज़फ़्फ़रनगर जिले के 28 कॉलोनियों मे 18 कॉलोनियाँ ऐसी हैं जिनमें दंगों से सीधे प्रभावित हुए लोग बसे हैं। 10 कॉलोनियाँ ऐसी हैं जिनमें दंगों से सीधे प्रभावित हुए लोगों के साथ-साथ ऐसे लोग भी आकर बसे हैं, जो डर की वजह से अपना घर छोड़कर आ गए थे और वापस नहीं जा सके। 7 कॉलोनियाँ शहरी क्षेत्र में जबकि 21 कॉलोनियाँ ग्रामीण क्षेत्र में बसी हैं।    

शामली ज़िले में  37 कॉलोनियों में से 22 कॉलोनियाँ ऐसी हैं, जिनमें दंगे से सीधे प्रभावित हुए लोग रहते हैं, 15 कॉलोनियाँ ऐसी हैं जिनमें दंगों से प्रभावित लोग रहते हैं और कुछ ऐसे भी लोग रहते हैं जो डर की वजह से अपने गाँव वापस नहीं जा सके और यहीं बस गए। 26 कॉलोनियाँ ग्रामीण जबकि 11 कॉलोनियाँ शहरी क्षेत्र में बसी हैं।

दोनों ज़िलों की 65 कॉलोनियों में से 41 कॉलोनी में ऐसे बहुत से परिवार ऐसे हैं जिनके पास तीन साल के बाद भी रहने के लिए अपना घर नहीं है और वो किराये के मकानों में रह रहे हैं या अस्थाई घर बना कर रह रहे हैं। पैसे की कमी की वजह से वे घर नहीं बना सके हैं। कुछ लोगों ने किसी से मदद लेकर, ज़मींदार से पैसे लेकर, मेहनत करके अपने लिए ईंट का छोटा सा घर बना लिया है।

सिर्फ़ 18 प्रतिशत कॉलोनियों में पीने का साफ़ पानी है। सिर्फ़ 7 प्रतिशत कॉलोनियों में स्ट्रीट लाईट है। किसी भी कॉलोनी में सार्वजनिक शौचालय नहीं है। कई कॉलोनियों से स्कूल इतनी दूर हैं कि बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। 28 कॉलोनियों में किसी के पास भी मनरेगा जॉब कार्ड नहीं है। 19 कॉलोनियों में किसी के पास भी वोटर कार्ड नहीं है।

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