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“ऐ मुसलमान हो क्या? नहीं तो दाढ़ी क्यों बढ़ा रखी है कटवाओ इसे”

ऐ इधर आओ, मुसलमान हो क्या?
हूं तो क्या और नहीं हूं तो क्या?
मुसलमान नहीं हो तो दाढ़ी क्यों बढ़ाई है, कटवाओ इसे।

लाल किले के नज़दीक सड़क पार करने के लिए बने अंडरपास से गुज़रते हुए एक बंदूकधारी फौजी से लगभग 5 साल पहले हुई इस बात ने थोड़ा परेशान तो किया था लेकिन, कॉलेज खत्म होते होते मैं इस घटना को भूल चुका था। तब से दाढ़ी को शेप में रखने का ट्रेंड आया तो मैं भी ट्रेंड के संग हो चला यानी बहुत दिनों तक फिर दाढ़ी इतनी बढ़ाई नहीं।

मैं कैसा दिखना चाहता हूं यानी मेरी अपियरेंस की च्वाईस मेरे धर्म का आईना है, इस बात से हालिया दिनों में फिर से ज़बरदस्त सामना हुआ। गाल पर कम और ठुड्डी पर ज़्यादा दाढ़ी रखने का मेरा फैसला इतना धार्मिक था इसका अंदाज़ा मुझे तब तक नहीं था जबतक मेरी दाढ़ी को देख कर मेरे धर्म की चिंता करने वाले लोगों में एकाएक इज़ाफा हो गया।

अरे मुल्ला दाढ़ी रख ली है तुमने, कैसी दाढ़ी रख ली है मुसलमान लग रहे हो, अबे नकली मुल्ला बन गए हो (मुसलमान दोस्त), अरे खूबसूरत मुसलमान लग रहे हो दाढ़ी में। ये उन तमाम लोगों में से कुछ की टिपण्णी थी जो अचानक से कंसर्न्ड हो गए थे मेरी दाढ़ी और मेरी धार्मिक रुझान को लेकर। वैसे हमलोगों की नज़र भी कमाल है एकदम निरमा सूपर वाले बहन जी की जैसी पारखी नज़र, कपड़े और हुलिया देख के भीड़ में भी पता लेते हैं कि कौन किस राज्य, किस जाति, किस धर्म, किस भाषा, किस विचार, किस सोच, और किस दर्ज़े का इंसान है। और हां खबरदार हम स्टिरियोटाईप नहीं करते हम बस पहचान जाते हैं।

नौएडा से वैशाली ले जाने के लिए उबर ने अज़हरउद्दीन साहब को भेजा इत्तफाक से उनकी भी पारखी नज़र थी और उनकी उम्र में वो लोगों  को देखकर पहचान लेते थे। और जब इंसान को अपनी पहचान करने पर इतना भरोसा हो जाए तो कंफर्म करने का स्कोप भी खत्म हो जाता है। अज़हर साहब ने दाढ़ी के फायदे और मुझ पर जच रहे दाढ़ी की बाते उसी पारखी नज़र की पहचान से एक सांस में कर दी। लेकिन शायद वो मेरी बात कर ही नहीं रहे थे, और उनकी बातों में भी मेरी जगह इसलिए बनी क्योंकि मेरी दाढ़ी उनके मतलब की मज़हबी समझ के लिए अहम थी। लेकिन वो इस बात को भी दुहराते थे कि खुदा के लिए में नसीर साहब ने बहुत संजीदा बात कही है कि दीन से दाढ़ी है दाढ़ी से दीन नहीं है।

इस बार एम्स जाते हुए दुबई से लौटे साहब कैब लेकर आए, बहुत दुरुस्त याद नहीं वरना उनका नाम भी लिखता, उन्होंने सवाल और नसीहत देना सलाम-दुआ करने से ज़्यादा ज़रूरी समझा। आप मुसलमान हैं क्या? दाढ़ी जच रही है, बस मूंछे हटवा लीजिए। और उनकी ये नसीहत मेरे घर में सबूत के तौर पर इस्तेमाल हुई इस नसीहत के साथ कि अब सड़क पर भी सब मुझे मुसलमान समझने लगे हैं इसलिए मैं अपनी दाढ़ी कटवा लूं।

23 सितंबर की रात को शमीम मिला कैब में, मेरे कुछ दोस्तों ने जन्मदिन पर शराब की इच्छा जताते हुए मुझे फोन किया तो मैंने अपनी मर्ज़ी से उन्हें शराब लाने की बात कहते हुए फोन रख दिया। शमीम मुझे कई बार फोन करके मुझे प्रशांत कह चुका था लोकेशन पूछने के लिए लेकिन मेरी दाढ़ी को देखते ही उसकी पारखी नज़र मेरा मज़हब तय कर चुकी थी, इसलिए एक सलाह और सवाल के साथ वो तैयार था। फोन रखने पर शमीम ने पूछ ही लिया कि आप ड्रिंक करते हो? मेरे ये कहने पर कि फिलहाल तो नहीं, शमीम ने राहत की सांस लेते हुए कहा कि शुक्र है वरना हमारे कितने मुसलमान भाई अब शराब पीने लगे हैं। धर्म की बाते तो बड़ी ही आसानी से करता रहा लेकिन मार्केट वाले रास्ते में गाड़ी ले जाने सख्ती से मना कर गया।

मेरे रूममेट्स हों, परिवार में कुछ लोग हों, दोस्त हों सब मुझे ग़ैरमज़हबी घोषित कर चुके हैं एक ना एक प्वाइंट पे। अब दाढ़ी थोड़े ही ना धर्म पूछ के बड़ी होती है, उसे तो ज़िंदा या मुर्दा का भी ख़याल नहीं होता।

बिहारी ऐसा, दाढ़ी वाला मुसलमान, सरदार ये, चोले वाले बाबा, अंग्रेज़ी नहीं बोलने वाला क्लासलेस, वाईन को सीधा गटक लेने वाला मैनरलेस, धर्म पर चर्चा करने वाला नॉन सेक्युलर वगैरह-वगैरह किसका ज़िक्र हो किसका ना हो, लेकिन ये कुछ भी स्टिरियोटाईप थोड़े ही ना है, पारखी नज़र है साहब।

लेकिन मेरी च्वाईस तो मेरी च्वाईस है और बेशक अपनी तरह से ही चुनुंगा मैं चीज़ें, भले ही इस क्रम में मेरा शरीर अलग-अलग धर्मों के नाम होता क्यों ना चला जाएे। हां आप ये ना कहियेगा कि जिस-जिस ने ऐसी बाते की उनको क्यों नहीं कहा और यहां बस लिख रहे हो। सबको बोला और हर नसीहत पर अपनी नसीहत दी कि मेरे पसंद नापसंद से तुम्हारे धर्म का कोई वास्ता नहीं है यानि माई च्वाईस माइ स्पेस।

आज फिर अपने च्वाईस से दाढ़ी ट्रिम करवाने जा रहा हूं माफ करिए धर्म बदलने जा रहा हूं। बस फुरकान को ही दाढ़ी से धर्म नहीं बस अलग-अलग स्टाईल और उसे बनाने पर पैसा दिखता है।

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