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बदायूं में HIV+ गर्भवती महिला को नहीं मिला इलाज, गर्भ में बच्चे की मौत

प्रशांत झा:

एड्स छूने से नहीं फैलता, इससे तो बस प्यार बढ़ता है, एड्स साथ खाना खाने से नहीं फैलता इससे तो बस प्यार बढ़ता है, ये कैंपेन शायद याद होगा आपको। कितना बड़ा कैंपेन चला था अपने देश में और यकीन मानिए बच्चा-बच्चा इस कैंपेन से ये जान गया कि एड्स कैसे संक्रमित होता है, और कैसे समाज में एड्स पीड़ितों को भी बराबरी से जीने का हक है।

लेकिन इस पूरे कैंपेन में सरकार जो एक बात नहीं बता पाई वो ये कि एड्स पीड़ित का इलाज करने से भी एड्स फैलता है, ये हम नहीं कह रहे हैं लेकिन शायद ऐसा ही मानना है उत्तर प्रदेश के बदांयू के ज़िला अस्पाताल में काम कर रहे स्वास्थ्य कर्मचारियों का।

बदायूं के ज़िला अस्पताल में एक एड्स पीड़ित गर्भवती महिला को स्वास्थ्य सेवा देने से मना करने का चौंकाने वाला मामला सामने आया है। रविवार को तेज़ लेबर पेन के बाद महिला को उसका पति बदायूं  ज़िला अस्पताल लेकर आया। ये पता चलने का बाद कि महिला HIV पॉज़िटिव है, अस्पताल ने स्वास्थ्य सेवा मुहैया करने से मना कर दिया। इसके बाद पीड़ित दंपत्ती को बदायूं से 50 किमी दूर बरेली के ज़िला अस्पताल जाना पड़ा जहां महिला ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया।

बरेली के महिला अस्पताल की चीफ़ मेडिकल सुपरइंटेंडेंट अल्का शर्मा का कहना है कि अगर महिला को समय रहते स्वास्थ्य सेवा मिल जाती तो बच्चे को बचाया जा सकता था। वहीं पीड़ित महिला के पति का आरोप है कि बार-बार अनुरोध करने पर भी डॉक्टर्स ने महिला के बिगड़ते स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया और उनसे ग्लव्स खरीदने के लिए 2000 रुपये की मांग करते रहें और हालत बिगड़ने पर अपने हाथ खड़े कर दिए।

डॉक्टरों की लापरवाही  के कारण अपना बच्चा खो देने वाली दंपत्ति का दर्द सवाल बनकर उनकी आंखों से बहता रहा और जवाब में कार्रवाई के आश्वासन का मलहम लगाया गया।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के मेरठ में ही साल 2015 में लाला लाजपत राय अस्पताल में एक पीड़िता के बेड पर उसका HIV संक्रमित होना लिखवाया गया

क्या सवाल संवेदनहीनता के एक दो मामलों का ही है? अपनी मृत पत्नी को अकेले कंधे पर ढोता इंसान हो, अस्पतालों के चक्कर लगाते-लगाते एक बच्चे का पिता के कंधे पर दम तोड़ देना हो, शव को क्षत-विक्षत कर बोरे में भर कर ले जाना हो या बेहोशी की हालत में महिलाओं को छोड़कर गायब हो जाने वाला डॉक्टर हो, इंसानी स्तर पर भावनाओं को तार-तार कर देने वाली ऐसी कितनी तस्वीरें लगेंगी हमारी सार्वजनिक संवेदना पर चोट करने के लिए?

देश में कमज़ोर आर्थिक वर्ग के लिए जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी रवैय्ये की बात होनी ही चाहिए, अपने हक की बात होनी ही चाहिए, लेकिन ऐसी तमाम घटनाएं हमारी सामाजिक ज़िम्मेदारी की समझ को भी सवालों के घेरे में ला खड़ा करती है। मसलन कम से कम इस मामले में, डॉक्टर या स्वास्थ्य सेवा की कमी तो एक मृत जीवन के जन्म के लिए ज़िम्मेदार नहीं थी ना, बल्कि दोषी तो हमारी वो समझ थी जो ऐसे ओहदे पर होते हुए भी हमारी ज़िम्मेदारी की समझ को शून्य कर देती है।

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के हर 1000 लोगों पर 1 डॉक्टर के रेशियो के हिसाब से भारत में 5 लाख डॉक्टर्स की कमी है। ये आंकड़ें जितने डराने वाले हैं इनसे उतनी ही डरावनी तस्वीर भी निकल के आती है, जिसका गवाह हम पिछले कुछ दिनों से लगातार बन रहे हैं। इस दौर में जब हम मंगल पर सबसे कम लागत में जाने का दंभ भरते हैं उस दौर में स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में एक जीवन का जन्म से पहले दम तोड़ देना हमारी उस  प्रशिक्षण व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा करता है जो हमें हमारी सामाजिक ज़िम्मेदारियों के प्रति शून्य होने से नहीं बचा पाता।

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