शुक्रवार का दिन कक्षा में लगभग 20 बच्चे आपस में कुछ किये जा रहे थे। तभी अचानक से मेरा आगमन हर बार की तरह कक्षा के अंदर हुआ और पूरी कक्षा से एक ही गूँज आ रही थी, सर खेल लगाओ ना सर खेल लगाओ ना। और बस मैंने भी ना आव देखा ना ताव और बोल पड़ा चलो खेलते हैं। लेकिन अब मेरे दिमाग में बस एक ही सवाल चल रहा था बच्चों को खेल के माध्यम से ही सिखाते हैं और मुझे एक विचार सूझा। मैंने बोला चलो अलग अलग रंगों की दुधिया (चॉक) ले आओ , बच्चे पूछे जा रहे थे सर खिलाओगे ना सर जी खेल लगाओगे ना। मैंने चॉक लिया और फर्श पर रेखा खींचने लगा तभी एक बच्चे ने बोला सर ये क्या कर रहे हैं? मैंने जवाब दिया आज हम खेल-खेल में कुछ सीखते हैं और सबने तेज़ी से आवाज लगाया हाँ सर, हाँ सर।
ये कहानी स्कूल संख्या 57 सूरत की है। मैंने बच्चों से पूछा लंगड़ी खेलना चाहोगे उधर से आवाज आई हाँ, मैंने बोला लेकिन हम संख्या ज्ञान लंगड़ी से खेलेंगे। बच्चे तैयार हो चुके थे। मैंने पूछा कौन आएगा, पहली बार में आधे से ज्यादा हाथ उठ गए थे सभी एक दूसरे से तेज़ी से अपनी आवाज़ ऊपर उठाकर बोलने की कोशिश कर रहे थे। तभी इस परिस्थिति के बीच में मैंने एक बच्ची को बुलाया और शुरुआत की कोई एक बच्चा कोई संख्या बोलता और जो बच्ची खेल में है वो आवाज पर ध्यान देने के साथ-साथ अपने एक पैर से दूसरे संख्या की तरफ भी बढ़ती।
कुछ ही देर में सारे बच्चे वहां इक्कठा होकर आपस में ही खेल रहे थे। यह देख मैं आगे बढ़ा और उनको थोड़ा और आगे बढ़ाने की कोशिश की। अब दुबारा आगे का खेल शुरू होता है और एक बच्ची तुरंत ही गलत खेलने की वजह से खेल से बाहर हो जाती है और उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं, वह तेज़-तेज़ रोने लगती है और बोलती है मुझे और खेलना है। उसे रोता देख दुबारा खेलने को कहना ही पड़ा, बच्चे खेल-खेल में बहुत कुछ सीख रहे थे और वो इस तरीके से जुड़ गए थे मानो वो उस खेल से दूर ही नहीं जाना चाहते थे।