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बाहुबली की ज़मानत, बिहारियों का डर और देश में बनती राज्य की छवी

भूषण सिंह:

अगर आप सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं तो आपने देखा होगा कि आपकी फ्रेंड लिस्ट में मौजूद ज़्यादातर बिहारी जो कि बिहार में रहते ही नहीं हैं या यूँ कहें कि नॉन रेजिडेंट बिहारी हैं, वो शहाबुद्दीन की रिहाई के फैसले से खुश नहीं हैं। वो इस मुद्दे पर खूब लिख और बोल रहे हैं, भले ही उन्होंने विधानसभा चुनाव में लालू-नीतिश को भरपूर समर्थन किया हो। उस समय वो लोकतंत्र को अपने तरीके से परिभाषित करने वाले उन मोदी समर्थकों के खिलाफ भी खड़े थे, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार में मोदी को बढ़त मिलने पर बिहारियों की दूरदर्शिता का गुणगान कर रहे थे और 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार पर बिहारियों को मूर्ख, जातिवादी और ना जाने क्या-क्या कह रहे थे। लेकिन वह लालू-नीतिश के समाजिक न्याय के पक्ष वाले रवैये का समर्थन करते हुए भी आज बिहार सरकार के शहाबुद्दीन केस में ढुलमुल रवैये से चिंतित है।

ऐसा नहीं की वह केवल शहाबुद्दीन के ज़मानत पर बाहर आने भर से परेशान हैं। उन्हें बिहार के उस चेहरे से परेशानी होती है जिसमें सुनील पांडे, हुलास पांडे, सूरजभान सिंह, मुन्ना शुक्ला, ब्रहमेश्वर मुखिया, अनंत सिंह और पप्पू यादव जैसे बाहुबली नेता दिखते हैं। पहले तो यह समाज के लिए बस गुंडे होते हैं, लेकिन साथ ही साथ ये अपनी जाति/समुदाय के लिए लगभग हीरो होते हैं। इसके बाद ये अपनी गुंडई की बदौलत राजनीतिक पार्टियों के खेवैया बन जाते हैं। राजनीतिक ताकत मिलते ही ये कानून को अपने हाथ में ले लेते हैं और फिर शुरू होती है लूटपाट, डकैती और राजनीतिक हत्याएं वगैरह-वगैरह। इनके राजनीतिक संरक्षकों का भी इन्हें भरपूर समर्थन मिलता है और इसमे कोई भी पार्टी पीछे नहीं है चाहे वो राजद हो, जदयू हो, भाजपा हो, लोजपा हो या कांग्रेस हो।

आप सोच रहे होंगे कि इससे नॉन रेज़िडेंट बिहारी क्यों परेशान होता है वो तो बिहार में रहता ही नहीं।

यही तो परेशानी की बात है उसके लिए कि वह बिहार में नहीं रहता। वह देश के हर कोने में फैला हुआ है, जहाँ वह बिहार का प्रतिनिधित्व करता है। इसमे दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू, देशभर के विभिन्न शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाला छात्र हो या नौकरीपेशा सरकारी कर्मचारी या देशभर में पलायन को मजबूर मजदूर। सभी को बिहार की परिस्थितियों पर लोगों को जवाब देने पड़ते हैं। लोगों के तीखे पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है।

मैं अपने बारे में ही बताता हूँ, गॉधी फेलोशिप के ज़रिए मैं राजस्थान के पिछड़े जिलों में से एक चुरू के सुजानगढ़ तहसील में सरकारी स्कूलों और ग्रामीणों के साथ काम कर रहा हूं। जब पहली बार लोगों से परिचय होता है तो मेरे बिहारी होने का पता चलने पर उनका सवाल यही होता है कि बिहार में तो खूब गुंडागर्दी होती है ना? गुंडे खुलेआम घूमते हैं? वहॉ राजस्थान जैसे शांतिपसंद लोग नहीं होते?

अब हम उन्हें स्पष्टीकरण देते-देते थक जाते हैं और अंत में कहते हैं मीडिया में जो बातें आप देखते, सुनते हो वह पूरी तस्वीर नहीं होती। कभी हमारे गाँव आईये फिर देख समझ के बिहार के बारे में विचार बताईयेगा। तब कहीं जाकर वे थोड़ी देर के लिए बिहार की सकारात्मक छवि की कल्पना करते हैं। लेकिन अभी शहाबुद्दीन की जमानत पर हुई रिहाई के बाद लोगों का अब मेरे स्पष्टीकरण पर से भी भरोसा उठ रहा है।

इसलिए परेशान हैं मेरे जैसे नॉन रेजिडेंट बिहारी क्यूंकि उन्हें रोज़ स्पष्टीकरण देना पड़ता है देशवासियों को। फिर लोग हमारे अच्छे कामों की नियत पर भी केवल हमारे बिहारी होने के कारण ही शक करने लगते हैं। बस हमें उसी से डर लगता है, इसलिए ही परेशान हैं और जहाँ तक हो सके राजनीति का बाहुबलीकरण करने पर अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। अब हम अपनी कमी पर आवाज़ नहीं उठायेंगे तो कौन उठायेगा? हम इस तर्क से भी अपनी गलत राजनीतिक परंपरा का बचाव नहीं कर सकते कि, यह बाहुबलीकरण तो देश के अन्य राज्यों में भी है।

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