भारत-चीन के संबंध कभी भी मधुरतापूर्ण नहीं रहे है। 1949 में चीन ने तिब्बत पर अवैध रूप से कब्जा कर लिया। 1950 से 60 के दशक तक जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री रहे और 1962 में भारत को चीन से युद्ध लड़ना पड़ा। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के प्रधानमंत्री शी जिनपिंग की 2014 में अहमदाबाद में हुई मुलाकात के बाद भारत सरकार को यह भरोसा था एन.एस.जी. (न्यूक्लीयर सप्लायर ग्रुप) मुद्दे पर भारत का पूर्ण समर्थन करेगा। लेकिन चीन ने भारत का इस मुद्दे पर विरोध करके एक बार फिर यह साबित कर दिया कि चीन भारत का मित्र देश ना कभी रहा है और ना कभी हो सकता है।
सही मायने में देखा जाए तो भारत को हमेशा ही पाकिस्तान से भी ज्यादा चीन के द्वारा विश्वासघात की आशंका रहती है। जवाहरलाल नेहरू के समय में देश के कानून मंत्री डा. भीमराव अम्बेडकर ने नेहरू को चीन के प्रति सजग रहने के लिए बार-बार अगाह किया था। अटल बिहारी बाजपाई की सरकार में विदेशमंत्री जॉर्ज फर्नांडिस खुलकर कहते थे कि चीन पर बिल्कुल भरोसा नहीं किया जा सकता। दरअसल चीन सिओल बैठक में भारत के सामने सबसे बड़ा दुश्मन बनकर खड़ा हुआ। यह भारतीय लीडरशिप को यह बात ज़हन में रखनी चाहिए, क्योंकि सिओल बैठक भारत के लिए कड़ा अनुभव लेकर आई। इससे दुनिया में भारत की भद्द पिट गई। वह भी उस समय जब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत अपने को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का दावेदार मानता है।
खैर, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर इस तरह की जीत-हार होती रहती है। इसमें दो राय नहीं कि भारत की कूटनीतिक तैयारी पर्याप्त नहीं थी। लिहाजा, इस मसले पर भविष्य में बेहतर होमवर्क की जरूरत है। बहरराल, अमेरिका ने संकेत दिया है कि इस साल किसी भी कीमत पर भारत को एन.एस.जी. का सदस्य बनाने की हर संभव कोशिश की जाएगी। इसके लिए साल के अंत तक (एन.एस.जी.) के सदस्य देशों की एक बैठक हो सकती है।
अब भारत को इस मौके पर पूरी तैयारी करनी होगी और चीन को निवेश के लिए छूट देने की मौजूदा नीति की समीक्षा भी करनी होगी। ताकि चीन हमारे यहाँ अरबों-खरबों का मुनाफा कमाकर हमें ही आँखें न दिखाये। साथ ही भारत को अपने पूर्व के अनुभवों से सीख लेते हुए याद रखना होगा कि चीन, भारत का शुभचिंतक कभी नहीं हो सकता इसलिए उसके साथ डिप्लोमेटिक रिलेशन तक ही सीमित रहा जाना चाहिए।