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“इस देश के पुरुषों ने मुझे कभी सहज नहीं होने दिया”

इस शहर ने कभी मुझे अपने साथ सहज नहीं होने दिया। यहां के पुरुषों ने मुझे अपने साथ सहज नहीं होने दिया …

सहजता का होना तभी होता है जब आप अक्सर किसी परिस्थति, आदत, दृश्य, वस्तु, लोगों, स्थान आदि के साथ कुछ वक्त बिता लेते हैं। कुछ जान-पहचान बढ़ा लेते हैं, कई बार पहली बार में ही इन सब चीजों के साथ आप सहज हो जाते हैं। पर कैसा लगेगा कि इन सभी बातों के साथ आप सालों-साल गुजारने के बाद भी सहज न हो पाएं, आप डर जाएं, निराश हो जाएं, क्रोध से भर जाएं। कैसा लगता होगा जब आप इस परिस्थिति से रोज़ गुज़रें, इनसे गुज़रने के लिए अभिशप्त हों आप और आप जैसा हर कोई, हर देश में, हर काल में।

एक शाम को इलाहाबाद में आयोजित एक फिल्म फेस्टिवल से निकलते वक्त शाम के सात बज गए। मैं एन.सी.जेड.सी.सी. (नार्थ सेंटर ज़ोन कल्चरल सेंटर) से बाहर निकली और जैसे ही सड़क पर रिक्शा लेने के लिए खड़ी हुई तो रिक्शावाले को मैंने हॉस्टल चलने के लिए बोलने के बजाय पी.वी.आर. चलने को कह दिया। वस्तुतः उस वक्त अचानक से मेरा ‘अलीगढ़’ फिल्म देखने का मन कर दिया। मैंने अपनी एक और मित्र को फ़ोन किया कि अगर तुम भी देखना चाहती हो तो आ जाओ और वो भी तैयार हो गयी आने के लिए।

उसके आने से पहले मैं टिकट लेने में हिचक रही थी, क्यूंकि उस फिल्म का जो शो उस वक्त हमें देखने को मिलता वो रात के साढ़े नौ बजे ख़त्म होता और मेरे हॉस्टल का गेट नौ बजे बंद हो जाता है। फिर भी मेरा फिल्म देखने का इतना मन कर रहा था की मैंने टिकट ले लिए। मैं और मेरी मित्र ने मनोज वाजपेयी की अदाकारी को खूब एन्जॉय किया और निर्देशक की तारीफ करते हुए भारी मन से पी.वी.आर. से बाहर निकलने लगे।

बाहर निकलते वक्त सीढियों पर फिल्म के विचारों में खोये होने के बीच मुझे ये महसूस हुआ कि सीढ़ियों से केवल लड़के ही उतर रहे थे लड़कियां हम दो ही थी शायद। वो लड़के भी फिल्म के कुछ दृश्यों को लेकर उनके ठहाकों के बीच ये महसूस कराने लगे कि सिर्फ दो ही लडकियां ये फिल्म देख रही थी। उनकी घूर रही नजरों ने मेरे अंदर एक भय मिश्रित सिकुड़न पैदा की और अचानक से मैं अपने को लेकर सचेत हो गयी। मुझे लगा कि मैंने टॉप शायद ज्यादा ही छोटा पहन लिया है, जिसकी स्लीव गायब है, मुझे इतने देर का शो नहीं देखना चाहिए था, कोई और फिल्म देखनी चाहिये थी, किसी और दिन देखना चाहिए था, दिन में देखना चाहिए था, अपने किसी पुरुष मित्र को बुला लेना चाहिए था…

मुझे लगा कि मेरी फ्रेंड भी यही सब बातें सोच रही थी। हम दोनों के चेहरे पर बारह बजे हुए थे। इसी उधेड़बुन में मैंने सीढ़ियों से अपने साथ उतरते पुरुषों को भी देखा जो मस्त हँसते हुए, ठहाके लगाते हुए, फिल्म की चर्चा करते हुए उतर रहे थे। उनके चहरे अमूमन वैसे ही थे जैसा फिल्म देखने के बाद लोगों के होते हैं। मुझे उन्हें इतना बेफिक्र देख कर बहुत गुस्सा आ रहा था। फिर मैंने अपने मन में आते हुए विचारों को झटक दिया। बाहर निकलते ही हमने एक रिक्शा लिया और हॉस्टल के लिए चल दिए।

रिक्शा जैसे ही हीरा हलवाई चौराहा पंहुचा उसने बी.एच.एस. की रोड न पकड़ के मनमोहन चौराहा जाने वाली रोड पकड़ ली। मैंने देखा कि उस रोड पर घुप्प अंधेरा था। कोई स्ट्रीट लाइट नहीं जल रही थी। अचानक से मन किया कि मैं रिक्शेवाले से बोल दूं कि, इस रोड से न चले लेकिन मैंने बोला नहीं। अनजाने में मैं ये सोच रही थी कि, मैं ये क्यूं दिखाऊ कि मैं डर रही हूं। अगर दिन होता तो भी वो इसी सड़क से ले जाता। मैं चुपचाप बैठी रही।

सड़क से जाते हुए अचानक मैंने देखा की सड़क के एक किनारे तीन लड़के खड़े थे जो आपस में कुछ बाते कर हँस रहे थे। उनके हाथ में एक-एक गिलास था, शायद वो कुछ पी रहे थे। रोड के उस पार गिट्टियों का ढे़र रखा था, उजाला सिर्फ इतना ही था कि वो हमारा चेहरा देख सकें और हम उनका। मैंने महसूस किया कि अचानक से रिक्शेवाले ने अपनी गति धीमी कर दी और लड़कों की तरफ ही देखने लगा।

पूरी सड़क पर दूर-दूर तक कोई दिख नहीं रहा था। अचानक से मुझे लगा की मेरे शरीर से किसी ने सारा रक्त निकल लिया हो । हम दोनों सामने देख रहे थे और वो तीनों हमारी तरफ, ऐसा मैंने महसूस किया। एक ने कहा, “अरे देख देख देख…” फिर क्रूर से अट्टहास की आवाज़ आई
“रोके क्या”
“अरी मईडम..”.
“अरे रोक साला रिक्सा, रोक रोक रोक…”
आवाज़ें आती रही और मैं रक्तहीन सी, दम साधे आगे की ओर देख रही थी। मैंने अपना हाथ दीप्ती के हाथ पर रखा तो ऐसा लगा कि इन हाथों के द्वारा हम अपने-अपने डर को एक दूसरे से बांट रहे हो। मेरा डर कुछ कम हो गया, उसका डर कुछ कम हो गया।

फिर रिक्शा मनमोहन चौराहा पहुंचा। वहां तेज रौशनी थी, बहुत सारे लोग थे, ज्यादातर पुरुष और घूरती नजरें। मैंने महसूस किया कि मेरा डर उन नज़रों को देख कर घिन में बदलता जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि मैंने कोई गन्दी सी चीज़ देख ली हो और अब मुझे उल्टी आ जाएगी। हम आगे बढ़ते जा रहे थे और उन नज़रों को अपने ऊपर झेलते जा रहे थे। मेरी घिन अब घृणा में बदलती जा रही थी। मुझे लग रहा था कि मैं यहां से अस्तित्वविहीन हो जाऊं, कहीं न दिखूं, किसी को न दिखूं।

सोचते-सोचते अचानक मुझे ध्यान आया कि मैं सड़क पर ध्यान नहीं दे रही हूं, गाड़ियों और लोगों की आवाजों से मेरी तन्द्रा जागी और मैंने देखा की मैं कर्नल गंज रोड पर हूं। दोनों तरफ से गाड़ियां एक दूसरे के सामने जमी पड़ी हैं, सब एक दूसरे से लड़ रहे हैं। शोर ने मेरा डर अब कम कर दिया था, मैं थोड़ी सी निश्चिन्त हो रही थीं। तभी मेरी नज़र हमारे पैरलल, उल्टी दिशा में खड़ी एक गाड़ी पर पड़ी, सामने एक झंडा लगा हुआ था जिस पर लिखे शब्द मैं पढ़ नहीं पायी लेकिन उस पर बना साईकिल का चिन्ह मुझे दूर से भी दिख रहा था।

गाड़ी के अन्दर चार लड़के बैठे थे। उनमें से एक जो खिड़की की तरफ बैठा था, हमें देख कर बाकियों से जाने क्या कह रहा था और फिर ठहाकों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। इन ठहाकों की आवाज़, अभी-अभी सुने उन ठहाकों से मिलती-जुलती थी। अब तक ऐसे सुने गये और ठहाकों की स्मृतियां भी इसमें मिल गयी। आगे सुने जाने वाले ठहाकों की आशंकाए भी इसमें मिल गयी और ऐसा लग रहा था कि ये सारे ठहाके साथ मिलकर अट्टहास बन गये हों। मानो पूरा चराचर मुझ पर हँस रहा हो और मैं समझ नहीं पा रही हूं क्यूं?

मैं उन सबके सामने एक छोटे से शून्य जैसी हो गयी थी, मेरे अन्दर की घृणा एक अवसाद युक्त क्रोध में बदलती जा रही थी। इस बार मैंने सामने न देख कर उस आदमी के चेहरे पर देखा और फिर सुनाई दिया, “अरे कहा माल लेके जा रहे हो रिक्शा”…फिर अट्टहास…गाड़ी आगे निकल गई…पीछे उड़ाई गयी धूल मेरे चेहरे पर छोड़ते हुए। मुझे उसकी आँखे और उसके जैसी सारी आँखे एक साथ याद आ रही थी। ऐसा लग रहा था अभी हज़ार आँखों ने मुझे एक साथ घूरा है और मुझपे अट्टहास किया है। रास्ता साफ़ हो गया, रिक्शा आगे निकल गया। मैं क्रोध से काँप रही थी। मेरी सारी नसे फड़क रही थी और मैं अपनी गर्म साँसों के ताप को स्वयं महसूस कर रही थी।

सड़क पर आगे बढ़ते हुए मुझे ऐसी हर रात याद आ गयी। चाहे वो जयपुर की हो, दिल्ली की हो, धर्मशाला की हो, मसूरी की हो, जबलपुर की हो, कसौली की, बलिया की हो या फिर इलाहाबाद की हो जहाँ मैं दस साल से हूं। और इस शहर ने कभी मुझे अपने साथ सहज नहीं होने दिया। यहां के पुरुषों ने मुझे अपने साथ सहज नहीं होने दिया। इस देश के किसी भी गाँव और शहर की सड़कों ने मुझे अपने साथ सहज नहीं होने दिया। इस देश के ज्यादातर पुरुषों ने इसी देश की महिलाओं को अपने साथ सहज नहीं होने दिया।

मैंने इसी क्रोध में पता नहीं किस से, एक बद्दूआ मांगी, “काश ऐसा हो जाये कि इस देश की धरती से हर अच्छी बात विलुप्त हो जाए… हर सुर, हर साज, हर संगीत, हर थाप, हर कविता, हर चित्र, हर फूल, हर पौधा… इस देश की आने वाली पांच पीढ़ियों तक किसी के घर कोई लड़की न पैदा हो… इस देश की सारी नदियां सूख जाएँ… हर सुन्दर, सुखद, मीठी बात मिट जाये… बस कुछ नरभक्षी पुरुष बच जाएँ… और वे अंत तक एक दूसरे को नोच-नोच के खाएं…सब समाप्त हो जाये…”

मैं छात्रावास के अन्दर थी, सीढ़ियों को क्रोध से पैर पटकते हुए नाप रही थी, अचानक से नीचे के फ्लोर पर मेरी एक मित्र दिखी जो मुस्कुराते हुए अपनी बच्ची को हाथ में लिए मुझे देख रही थी। बच्ची ने मुझे देखकर, हँसते हुए, अपनी माँ की गोद से उछलने की कोशिश की। मैं दौड़ के उसके पास गयी और उसे अपनी गोद में ले लिया। वो बड़े आराम से मेरे कंधे पर अपना नन्हा सा सिर रखकर लेट गयी और मैंने अनायास ही अपना माथा उसके पीठ से टिका दिया।

उसका स्पर्श इतना सुखद था कि जैसे मेरे अन्दर से सारी नकारात्मक उर्जा बाहर निकलने लगी हो। मैं दस मिनट तक उसे ऐसे ही लेकर खड़ी रही, थोड़ी देर बाद मैंने महसूस किया कि मैं शांत हो गयी हूं। हम दोनों उसे उसकी माँ को देकर अपने कमरे में आ गये। थोड़ी देर बाद चुपचाप खाना खाते हुए हम दोनों जाने क्या सोच रहे थे, मैंने चुप्पी तोड़ते हुए कहा-
“दीप्ती एक बात बोलूं”
“क्या”
“आई नीड अ डॉटर”
फिर दोनों की खिलखिलाहट कमरे को भरने लगी…

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