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पीएम का युद्ध से इनकार, मेन स्ट्रीम मीडिया चला सकती है सरकार पर ‘देशद्रोह का मुकदमा’

http://www.youthkiawaaz.com/2016/08/state-legitimising-dalit-killings/

दीपक भास्कर:

उरी कश्मीर में 17 भारतीय सेना के जवानों की निर्मम हत्या से पूरा देश आहत हुआ है। लेकिन सोशल मिडिया, प्रिंट मीडिया तथा टी.वी. मीडिया ने ऐसा बवाल मचाया है कि अगर सरकार ने युद्ध की घोषणा नहीं की तो सरकार पर ही देशद्रोह का आरोप लगा दिया जाएगा। टी.वी. मीडिया ने तो लगभग रिपोर्टिंग करना बंद ही कर दिया है, क्यूंकि मीडिया अब युद्ध की तैयारी में जुट गया है। कई चैनलों पर वार रूम तक बन गया है, कैमरों को सीमा पर भेज दिया गया है। रिपोर्टरों को सेना की अगुवाई करने का आदेश भी शायद मिल गया है।

कई चैनलों पर रिपोर्टरों ने अपने को देशभक्त रिपोर्टर भी घोषित कर दिया है। जो न्यूज़ चैनल सरकार के निर्णय का इन्तज़ार कर रहे हैं, उन्हें देशभक्तों की केटेगरी में नहीं रखा गया है। ऐसा लगने लगा है कि मीडिया, जनतंत्र का चौथा स्तम्भ नहीं बल्कि एक और एकमात्र स्तम्भ है। वैसे हमारी चुनी हुई सरकार भी तो कहती ही रहती है कि मिनिमम गवर्नमेंट होना चाहिए। सरकार ने जैसे “सोचने से लेकर निर्णय लेने” तक का काम मीडिया को ही सौंप रखा है। दिनकर की कविता का वो अंश कि “याचना नहीं अब रण होगा, जीवन या मरण होगा”, को न्यूज़ चैनलों पर इतनी बार दिखाया है कि अब शायद ही इसे हम कभी भूल पायें।

बहरहाल, जनता अगर सब जानती है तो वह यह भी जानती ही होगी। मीडिया ने कभी उनसे नहीं पूछा कि युद्ध होना चाहिए या नहीं। वैसे आम जीवन में प्रतिदिन हमारे देश के ग़रीब, मज़दूर, किसान तो राज्य के किसी भी सहयोग के बिना ही युद्ध लड़ रहा है। अब इसमें असली योद्धा या नकली योद्धा को खोजने निकलेंगे तो आपकी निराशा बढ़ भी सकती है। अगर मीडिया ने खुद को सरकार घोषित किया है तो इस आम जीवन के निरंतर युद्ध से मीडिया का भागना स्वाभाविक है।

पहले कभी मीडिया, सरकारों को युद्ध जैसी चीज़ों से बचने को कहा करता था, युद्ध में होने वाली हानि को दिखाता था ताकि युद्ध से बचा जा सके। लेकिन वो तब होता था जब मीडिया जनतंत्र का चौथा स्तम्भ होता था। अब इस देश में कोई सरकार नहीं बल्कि मीडिया ही सरकार है। रिटायर्ड जनरलों से टी.वी. पैनल भर चुके हैं, कोई भी जो युद्ध का विरोध कर रहा है पैनल में कहीं नहीं है और अगर कहीं है भी तो वो देशद्रोही के अवार्ड से नवाज़े जा रहे हैं।

वैसे अगर मीडिया वही दिखाने या सुनाने लगा है जो हम देखना या सुनना चाहते हैं, तो क्या यह मान लिया जाए कि हम सब युद्ध चाहते हैं?  बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा है कि 10  करोड़ भारतीय मर जाएं तो भी युद्ध होना चाहिए, बचे हुए लोग नया भारत शांति के दौर में बनायेंगे। सही है लेकिन उन्हें ये बताना चाहिए कि कौन बचेंगे और कौन मरेंगे। उस दस करोड़ में देश के सभी सांसद, विधायक, मीडियाकर्मी होंगे या नहीं? ऐसा लगने लगा है कि पाकिस्तान कोई देश नहीं बल्कि दलित-पिछड़ों की वो बस्ती है जिसमें जब मन हुआ आग लगा दी जाती है।

युद्ध अगर शांति की प्रक्रिया है तो युद्ध अवश्य होना चाहिए क्यूंकि अगर स्थाई शांति  बहाल हो जाए तो युद्ध बहुत बड़ी कीमत नहीं। लेकिन विद्वता कहती है कि अगर निर्णय लेने में कठनाई हो तो इतिहास की तरफ रूख कर लेना चाहिए। इतिहास गवाह है कि युद्ध ने युद्ध को ही जन्म दिया है। प्रथम विश्व-युद्ध में ही दूसरे विश्व-युद्ध की नींव रख दी गयी थी, और दुसरे विश्व-युद्ध में शीत-युद्ध की। 1947 में बंटवारे ने 1948 की, 1948 में 1965 की, 1965 में 1971 की और कारगिल की 1971 में।

अगर कोई युद्ध का इतिहास देखे तो शांति का इतिहास कुछ पन्नों में खत्म हो जाएगा। सुरक्षा के नाम पर इंसान ने पत्थर के नुकीले टुकड़े से एटम बॉम्ब तक बना डाला, लेकिन असुरक्षा बढ़ती चली गयी। हथियार बनाने से शांति स्थापित नहीं होती बल्कि शांति के पथ पर चलने से होती है।  मीडिया द्वारा, युद्ध में पाकिस्तान के हारने और भारत के जीतने के गुना-गणित कर लिए गए हैं और एक विडियो कि ‘कश्मीर तो होगा लेकिन पाकिस्तान नहीं होगा’ वायरल भी कर दिया गया है। युद्ध का निर्णय लेने में कोई अक्षमता या परेशानी नहीं होगी, क्यूंकि इस युद्ध में भारत जीत जाएगा। लेकिन असल सवाल तो यह है की युद्ध में जीतता कौन है?

इतिहास चिल्ला-चिल्ला कर हमसे कह रहा है कि युद्ध जीतने या हारने का नाम नहीं है बल्कि हर युद्ध में मानवता ही हारती है। युद्ध सभ्यताओं के ख़त्म होने की प्रक्रिया है। हड़प्पा सभ्यता के अंत का कारण भी तो युद्ध ही माना जाता है। अब सहज बात तो यही है कि, हम सभ्यता ही तो नहीं हैं। शांतिप्रिय समाज ही सभ्य समाज होता है। हम सब कितनी आसानी से प्राचीन काल को असभ्य समाज कह देते हैं क्यूंकि उस समय का इतिहास युद्ध का इतिहास है लेकिन आधुनिक समाज भी तो युद्ध का ही समाज है।

युद्ध में ज़मीनें तो वैसी की वैसी रह जाती है बस लोग ही नहीं होते। कौन नहीं जानता की युद्ध जैसी स्थिति में बूढ़े-बच्चे, ग़रीब और  लाचार किस हालत में होते हैं। “राष्ट्र-हित” युद्ध में नहीं बल्कि शांति में है। किसी भी युद्ध ने शान्ति बहाल नहीं की है। सैनिक युद्ध के लिए नहीं बल्कि युद्ध से बचाने के लिए होते हैं। लेकिन हमारी विडम्बना यही है कि हम सैनिकों को युद्ध के मैदान में ही मरते देखना चाहते हैं। जब तक कोई सैनिक युद्ध में न मरे तब तक वो शहीद नहीं कहे जाते। असल में, बिना युद्ध लडें भी सैनिक नायक है असली विजेता है। क्यूंकि इस बात में कोई तर्क की गुंजाईश नहीं की युद्ध में कोई जीतता नहीं बल्कि सब हारते हैं।

 

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