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“मैं CRPF स्कूल से पढ़ी हूं और हमारे लिए युद्ध कभी उत्सव नहीं था”

सिमीं अख़्तर:

हमें बताया जा रहा है कि भारत-पाक सीमा पर फौजी तनातनी जारी है, इस खबर को लेकर मैं बहुत चिंतित हूं और इसके कई कारण हैं। क्यूंकि मेरे अस्तित्व के कई हिस्से इस से प्रभावित होते हैं, एक नागरिक के रूप में, एक मुस्लिम के रूप में, एक मुस्लिम महिला के रूप में, अकादमिक समुदाय का हिस्सा और एक शिक्षक होने के नाते। जब कारगिल युद्ध की खबर मिली थी, मैं दिल्ली स्थित CRPF पब्लिक स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी, ऐसे बहुत सारे बच्चों के बीच जिनके माता पिता या परिवार के अन्य सदस्य CRPF में थे और जम्मू कश्मीर में पोस्टेड थे। मगर हमारे स्कूल में इस खबर को विवेक और संतुलन के साथ लिया गया था न कि उस जूनून और विवेकहीनता के साथ जो आज हमे टेलीविज़न चैनल्स के न्यूज़-रूम्स में देखने को मिल रही है।

[envoke_twitter_link]जब युद्ध शुरू हुआ तो आम भावना चिंता की थी[/envoke_twitter_link] और उन लोगों के लिए सम्मान जो सीमा पर तैनात थे जबकि सीमा के दोनों ओर के उन राजनेताओं को संदेह और अवहेलना से देखा जा रहा था जिन्होंने इन लोगों को इस स्थिति में होने को मजबूर कर दिया  था। जब युद्ध ख़त्म हुआ तो विजय के गर्व के बावजूद आम भावना दुःख की थी।

स्कूल में हुए प्रारंभिक सामाजीकरण का अनुभव देर तक हमारे साथ रहता है और यह तय करने में एक बड़ी भूमिका निभाता है कि हम आगे के जीवन में ‘दूसरों’ से किस तरह पेश आते हैं। CRPF स्कूल उन दिनों भी विविध पृष्ठभूमियों से आये छात्रों के कारण खुद में एक छोटी सी दुनिया या एक ‘सूक्ष्म-ब्रह्माण्ड’ था। उस समय के हमारे प्रधानाचार्य श्री सूरज प्रकाश की सूझ बूझ और उनके क़ाबिल नेतृत्व में हम बहुत आसानी और खूबसूरती से इस मुश्किल वक़्त से गुज़र गए।

[envoke_twitter_link]युद्ध का महिमागान नहीं किया गया, शत्रु को राक्षस के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया[/envoke_twitter_link] और  मुस्लिम समुदाय से आने वाले बच्चों को असुरक्षित महसूस नहीं करवाया गया। कुल मिलाकर मॉर्निंग असेंबली तथा पाठ्यक्रमेतर गतिविधियों के सतर्क निरीक्षण व निगरानी से इस स्थिति को संभाल लिया गया।

मुझे याद है युद्ध के कुछ ही दिन बाद स्कूल में एक लेखन प्रतियोगिता हुई थी जिसमें प्रथम पुरस्कार पाने वाली दोनों रचनाएं, एक मेरी और एक मेरे एक मित्र की, उन फौजियों के अनुभवो पर आधारित थीं जो मरणोन्मुख अपने बचपन को याद कर रहे थे और सोच रहे थे की अन्य परिस्थितियों में जीवन का उनका अनुभव शायद कुछ और होता। [envoke_twitter_link]मगर वे शायद अच्छे दिन थे[/envoke_twitter_link], जब ‘दूसरे वर्णन’ या ‘ग़ैर-रवायती बयान’ एक विकल्प के रूप में देखे जाते थे और असहमति और विरोध को अपराध नहीं समझा जाता था।

मुझे याद है युद्ध के दौरान मैंने भारत-पाकिस्तान के बीच अमन और शांति की गुहार लगाते हुए एक कविता भी लिखी थी, जिसका मूल भाव देश-भक्तिपूर्ण था, जिसे बाद में तब के प्रधानमन्त्री अटल बिहारी जी को भी भेजा गया था और जिसकी उन्होंने काफ़ी सराहना भी की थी।हालांकि इस घटना को स्कूल में सराहा गया, इसे एक मुस्लिम बच्चे की देश-भक्ति के प्रमाण के तौर पर नहीं देखा गया, न ही इसके ज़रिये मेरे अस्तित्व को परिभाषित करने का प्रयत्न किया गया।

वह कविता उस समय के हालात के प्रति उस बच्चे की एक प्रतिक्रिया थी जिसकी परवरिश एक मूलतः बहुसांख्यिक परिवेश में हुई थी और मैं शुक्रगुज़ार हूँ की CRPF में इसे इसी तरह देखा सराहा गया अलबत्ता मुझे यह हौसला और वैचारिक स्पष्टता भी दी कि मैं आगे चल कर इस घटना का तर्क-संगत रूप से पुनः-परीक्षण कर सकूं। शिक्षा-संस्थानों और शिक्षकों में यह क्षमता होनी अनिवार्य है। और हालांकि यह स्वाभाविक है कि वे अपने तत्कालिक व निकटतम परिवेश से प्रभावित, और सरकारों द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम से किसी हद तक हमेशा बाध्य रहेंगे, उन्हें खुद को उस स्तर पर लाना होगा जहां वे छात्रों में तर्क-संगत और विवेक-संगत समीक्षा की सलाहियत पैदा कर सकें। उनमें ‘दूसरों’ के प्रति सहनशीलता व स्वीकार करने का भाव उत्पन्न कर सकें, और खासतौर पर युद्ध और सामाजिक अशांति के समय में उन्हें कट्टरता तथा शब्दाडंबर से बचना सिख सकें।

दक्षिणपंथी  शब्दाडम्बर और [envoke_twitter_link]मुस्लिम=मध्यकालीन=पाकिस्तान=शत्रु [/envoke_twitter_link]के फॉर्मूले के विपरीत, CRPF स्कूल में हमें ‘दूसरे’ से नफरत करना या अंध-राष्ट्रीयता का पाठ नहीं पढ़ाया गया। ना ही क्षेत्र-सीमा की अखंडता को हिंदुस्तान की विविधता और यहाँ रहने वालों के हित-मंगल से ऊपर रखा गया। SPIC  MACAY और SAHMAT हमारी शिक्षा के अभिन्न अंग थे और इंसानियत और सामाजिक ज़िम्मेदारी वे मूल्य थे जिनके बिना CRPF में पढ़ने का हमारा अनुभव अधूरा रहता।

और शायद यही कारण है की CRPF के मेरे ज़्यादार दोस्तों के सोशल मीडिया पोस्ट आज भी यही कहते हैं कि युद्ध मूलतः अनुचित व अवांछनीय होते हैं और आदर्शतः नहीं होने चाहियें। ये वे लोग हैं जिनका कुछ निहायत निजी युद्ध में दाव पर लगा होता है और वातानुकूलित न्यूज़-रूम्स में बैठे ऐंकर्स के बरख़िलाफ़ ये लोग युद्धउन्मादित हो कर ‘जंग’ ‘जंग’ नहीं चिल्ला रहे।

मेरी समझ यह कहती है कि युद्ध होने ही नहीं चाहियें। [envoke_twitter_link]युद्ध किसी तरह का एकमत बनाने में हमारी मदद नहीं करते। [/envoke_twitter_link]युद्ध मानव समाज के रूप में हमें केवल पतन और विनाश कि और ही ले जाता है। बहुत अफ़सोस और शर्म की बात है कि फौजी कार्रवाई शुरू होने से पहले ही भारत-पाकिस्तान, दोनों देशों की मीडिया चैनल्स ने इस तरह का माहौल पैदा कर दिया था। मगर इस से भी ज़्यादा शर्मनाक और दुखद यह है कि एक समाज के रूप में हम इन लोगों के इस जूनून में शामिल हो कर इनका समर्थन कर रहे हैं और खुदपर और इन मुल्कों में रहने वाले दुनिया के कुछ सबसे ग़रीब और असहाय लोगों पर रक्तपात, विस्थापन और असुरक्षा को थोपनें की मांग कर रहे हैं। अगर हमारे पास इन लोगों का पेट भरने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं तो युद्ध लड़ने के लिए तो हरगिज़ नहीं हैं।

आइये मिलकर इस दीवानगी से बाहर निकलें क्योंकि आज एक राष्ट्र और समाज के रूप में हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती न सिर्फ इस युद्धउन्माद से उन करोड़ों भूखे ग़रीबों के हितों की रक्षा करने की है बल्कि भारत की विराट और असीम विविधता और इसकी उन पुरातन परम्पराओं और रिवायतों की हिफाज़त की भी है जिनकी झलक हमें भारत के आदि-भौतिकवादी चार्वाक- लोकायत और ब्रहस्पत्य के लेखों में और उनके साहस-साधना में मिलती है।

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