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8वीं क्लास की मेरी उस स्टूडेंट के लिए लड़के देखे जा रहे थे जबकि तो उसे टीचर बनना था

यह कोई कहानी नहीं है बल्कि एक नन्हीं कली के खिलने से पहले मुर्झा जाने की नंगी हकीकत है। यह हमारे कथित सभ्य समाज का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों की सच्चाई का आईना है, उनके बाल मन पर पड़ती दोहरी मार है, जहां कई बार बच्चों के मां-बाप और समाज के ढकोसले ही बचपन और बच्चों के सपनों को रौंद देते हैं।

यह सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली महज़ 15 साल की ममता की मेरे शब्दों में लिखी आपबीती है। कुछ साल पहले मेरी फैलोशिप के पहले दिन कक्षा 4 में एक बच्ची मिली थी, मुझे आज भी याद है उसकी शर्मीली आंखें और मुस्कान से लबरेज़ उसका मासूम चेहरा, जो तब बिन कहे अपना हर हाले-दिल बयां करता था। लेकिन ये आज अचानक उसे क्या हो गया था? वो बार-बार बोलने के लिए कहे जाने के बावजूद एक शब्द कहने को तैयार न थी। बस गहरी मायूसी और उदासी लिए ज़मीन पर गड़ी उसकी निगाहें जैसे धरती में ही पनाह मांग रही हों।

इतने साल बाद ये वाकया कक्षा 6 से 8 के बच्चों के साथ बाल संसद करने को लेकर हो रही वार्ता के दौरान घटा था, जिसमें बाल संसद की  प्रणाली को समझाने के साथ-साथ बच्चों से इस विषय में उनके सुझाव भी मांगे जा रहे थे। इसकी पूरी प्रक्रिया समझाने के बाद जब हमारे गांधी फैलोशिप के फैलो ने बच्चों से पूछा कि उन्हें क्या समझ में आया? तो सभी चुप थे और शर्मा भी रहे थे। बहुत प्रयास करने के बाद बच्चों ने अपनी-अपनी समझ को व्यक्त किया कि क्यों स्कूल में बाल-संसद होनी चाहिए?

सवाल जवाब करते-करते सहसा मेरी आंखे ममता पर रुकीं, पर इस बार वह न केवल चुप थी बल्कि मुझसे भी छुप रही थी। यह वही ममता है जिसकी निश्छल आंखें कभी हर अनकहा मुझसे कह देती थी। उसकी आंखों की चमक और होंठों से मुस्कान कहीं गायब थी। मैं उसे बहुत देर तक पूरे विश्वास से निहारती रही कि यह तो ज़रूर उठेगी और अपना मत रखेगी, अभी  दो साल पहले ही मैंने इसके साथ यह गतिविधि की है। पहले तो वह ऐसी सभी गतिविधियों में अपने मन से भाग लेती थी। इतना ही नहीं इनमें अच्छे से अच्छा प्रदर्शन करने के लिए भी ममता पूरा ज़ोर लगा देती थी।

मगर आज न तो ममता कुछ बोली और न ही ज़ोर देकर बुलवाने पर कोई प्रतिक्रिया दी। मैं किसी और ही दुबकी सी डरी-सहमी लड़की को उसके अंदर देख रही थी, जिसके बाल मन में कई टन का भारी बोझ लदा हो। मेरे बार-बार बुलाने पर बाल संसद को लेकर कुछ कहने के लिए वह माइक तक तो आई लेकिन एक शब्द नहीं बोली। मुझे उसके हाव-भाव से यह समझते देर न लगी कि  ज़रूर यह किसी बात से परेशान है। वह माइक स्टेज पर छोड़कर बिना कुछ कहे सरपट  रुंआसी सी अंदर कमरे में चली गई। मुझसे ये देखकर रहा नहीं गया और मैं भागकर उसके पास जा पहुंची। उसके सर पर हाथ जब मैंने उसकी खामोशी की वजह पूछी तो उसकी आंख का झरना फूट पड़ा।

उसने रोते हुए पूछा, “आपने पहले जैसे रोज़ आना क्यों बंद कर दिया? मेरा मन नहीं लगता है इस नए स्कूल में, यहां मेरा कोई दोस्त नहीं है। मेरे सभी दोस्त पुराने स्कूल में ही रह गए हैं। यहां सब अपनी-अपनी कक्षा में बैठ कर काम करते हैं, कोई किसी से बात भी नहीं करता है।” आंसुओं के साथ धीरे-धीरे  उसका दर्द भी बाहर आ रहा था।मैंने उसे समझाया कि कैसे और क्यों काम बदल जाने की वजह से मेरा रोज़ स्कूल आना बंद हो गया है। उसके बाद उसके मन न लगने का कारण पूछा और उसे समझाया भी कि आज नहीं तो कल कक्षा 8वीं के बाद तुम्हारा स्कूल तो बदलेगा ही। इसलिए दोस्त भी बदलेंगे और रही बाद पुराने दोस्तों से मिलने की, तो तुम शाम में उनसे मिला करो। ऐसे उदास नहीं होते।

मैंने इतना कहा ही था कि उसके बाल मन में दबा असहाय दर्द का गुब्बारा फट पड़ा। जैसे मैंने किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। वह मुझसे लिपटकर रोते हुए बोली “दीदी मैं शादी नहीं करना चाहती हूं, मुझे और आगे पढ़ना है, शिक्षक बनना है। पापा मेरी शादी करवाना चाहते हैं।” इसीलिए उसे आज कल कुछ भी अच्छा नहीं लगता है और वह परेशान है। इसके बाद भी उसके पापा एक नहीं सुनते हैं। उसने कहा कि वैसे भी उसके घर में बहुत झगड़े होते हैं जिसके चलते वह नहीं चाहती कि अब कुछ भी बोले और घर में फिर से लड़ाई हो।

ममता बचपन से ही सूरत में रही और यहीं के स्कूल में पढ़ी है। हालांकि वह महाराष्ट्र के औरंगाबाद  जिले की मूल निवासी है। ममता के मां-बाप आठवीं पढ़ाने के बाद उसकी शादी करवाना चाहते हैं, ताकि उनके सर का बोझ कम हो सके। दूसरी तरफ ममता पढ़ना चाहती है, खुद के पैरों पर खड़ा होना चाहती है। एक शिक्षक बनना चाहती है। ममता ने जाते-जाते मुझसे यह सवाल किया “दीदी लड़कियों को सपने देखने का हक़ क्यों नहीं होता? क्यों उनकी ज़िन्दगी केवल घर में सिमट जाती है? दीदी मुझे शादी नहीं करनी है मुझे तो शिक्षक बनना है।”

मेरे पास उसके सवालों के जवाब नहीं थे, लेकिन एक उपाय था। मैंने उसे भरोसा दिलाया कि जब वह छुट्टी से आएगी तो मैं उसके माता-पिता से ज़रूर मिलूंगी और उन्हें समझाऊंगी कि उसकी पढ़ाई जारी रखें। करीब आधे घन्टे बाद  इस एक बात से उसके चेहरे पर मुस्कान और ख़ुशी के भाव मुझे दिखे थे। उसने कहा “आप ज़रूर आना दीदी मैं इंतज़ार करूंगी।” ये केवल एक ममता की नहीं बल्कि हर रोज़ देश के भविष्य (बच्चों ) के सपनों के दम तोड़ने की सच्ची कहानी है। इसका ज़िम्मेदार समाज है या सरकार मुझे उस बहस में नहीं पड़ना है। मैं तो बस ममता के चेहरे में खूबसूरत मुस्कराहट खिलते हुए देखना चाहती हूं।

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