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यूपी पॉलिटिक्स में ‘कौन अपना है क्या पराया है’?

केपी सिंह:

एक समय था जब यह धारणा व्याप्त थी कि कांग्रेस को इस देश में सत्ता का जन्मसिद्ध अधिकार है। मतदाताओं की सोच के चलते कांग्रेस की मेरिट और डि-मेरिट मुद्दा होता ही नहीं था। लोग कांग्रेस से नाराज़ होते हुए भी कांग्रेस को ही वोट करना अपनी मजबूरी समझते थे। ऐसा नहीं था कि कांग्रेस ने कोई प्रगतिशील भूमिका अदा नहीं की हो लेकिन कांग्रेस के प्रति जो जड़सोच थी उससे लोकतांत्रिक प्रांजलता की अपेक्षा कभी पूरी नहीं हो सकती थी। इसलिए किसी पार्टी के प्रति अंधसमर्थन की कैद से भारतीय मतदाताओं को उबारने के लिए जो कि लोकतांत्रिक प्रवाह के लिए आवश्यक था जिन लोगों ने गैर कांग्रेसी विकल्प के लिए सबसे कारगर प्रयास किए उनमें डॉ. लोहिया का नाम सर्वोपरि है।

डॉ. लोहिया ने अपना मकसद पूरा करने के लिए जनसंघ तक को अपने गठबंधन में शामिल करने से परहेज़ नहीं किया। उनके बाद भी लोकतंत्र के सुचारु प्रवाह के लिए यह रणनीति जारी रही। इसी के तहत जनता दल का जब गठन हुआ तो कट्टर धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता के बावजूद कांग्रेस विरोधी मतों का बंटवारा रोकने के लिए भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन किया गया। इससे कई बार असहज स्थितियां उत्पन्न हुई। जनता दल के महानायक वीपी सिंह ने इसका प्रतिवाद करने के लिए संयुक्त चुनाव अभियान में दृढ़तापूर्वक भाजपा के झंडे को अपने साथ से विलग किया, लेकिन कालांतर में स्थितियां बदलीं।

जनता दल के ही मुलायम सिंह धड़े ने कांग्रेस विरोधी गठबंधन की बजाय अपनी सरकार बचाने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन करके नया सूत्रपात किया। इस बीच कांग्रेस से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी को सत्ता में आने से रोकने के लिए प्रयास करना लेकिन यह ट्रेंड भी बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सका।

जनता दल के शरद यादव, जार्ज फर्नांडीज़ और नीतीश घटक ने जद यू बनाकर वैकल्पिक राजनीति के लिए सारे संकोच और वर्जनाएं त्याग करके भाजपा के साथ गलबहियां कर लीं। इस तरह यह समझदारी विकसित हुई कि पार्टी विशेष को खलनायक के रूप में संज्ञान लेकर राजनीतिक रणनीति तय करने के पीछे खोखली भावुक वास्तविकता है जिसका परित्याग कर समय और परिस्थितियों के सापेक्ष समाज व देश के हित के सापेक्ष गठबंधन बनाए जाएं। गठबंधनों की इस गतिशीलता ने राजनीति की दिशा ही बदल दी।

गत लोकसभा चुनाव के समय एक बार फिर साम्प्रदायिक शक्तियों के सम्भावित प्रभुत्व को सबसे बड़े डर के रूप में पेश किया जाने लगा। इसके तहत नीतीश कुमार ने शरद यादव की इच्छा न होते हुए भी भाजपा से अलग रास्ता चुना बल्कि साम्प्रदायिक विरोधी राजनीति के चैम्पियन के रूप में अपनी छवि निखारने के लिए उसे अपने सबसे घोर वर्ग शत्रु के रूप में चिन्हित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन नीतीश का स्टैंड भी संचारी भाव साबित हुआ। शहाबुद्दीन को बिहार सरकार की लचर पैरवी की वजह से ज़मानत मिलने पर जब नीतीश आलोचनाओं से घिर गए और उनकी सरकार को स्थिर करने के लिए उन्हीं के सहयोगी दल राजद ने पैंतरेबाज़ी शुरू कर दी तो अस्तित्व के संकट के शिकार नीतीश ने भाजपा की ओर पींगें बढ़ा दीं।

मुलायम सिंह पहले ही भाजपा के कट्टर विरोध की केंचुल का परित्याग कर चुके थे जिसका इज़हार उन्होंने अपने पौत्र तेजू की शादी में पीएम नरेंद्र मोदी को न्यौता देकर उनके आने पर उनके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाकर किया। भाजपा के धार्मिक एजेंडे को भी अपनाने में सपा ने कोई संकोच नहीं किया।

मायावती ने तो पहले से ही भाजपा के साथ गठबंधन का रास्ता बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने भाजपा के सहयोग से कई बार सरकार बनाई है। यहां तक कि जब गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में प्रचारित थे तब मायावती ने उनकी नाराज़गी की परवाह न करते हुए गुजरात जाकर मोदी का प्रचार किया था।

इन सब घटनाओं को याद करने का मकसद सिर्फ इतना है कि[envoke_twitter_link] भाजपा विरोधी सेकुलर मंच बनाने की राजनीति पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुकी है। [/envoke_twitter_link]कांग्रेस एकमात्र पार्टी है जिसने भाजपा के साथ न तो आज तक कोई गठबंधन किया है और शायद न करेगी लेकिन इसके पीछे कोई सैद्धांतिक स्टैंड न होकर उसका सुपीरिटी कॉम्पलेक्स है। एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपना पेटेंट बचाए रखने के लिए भाजपा से सदा दूरी बनाकर रखना उसके सुपीरिटी कॉम्पलेक्स की सबसे बड़ी मजबूरी है क्योंकि राष्ट्रीय फलक पर भाजपा के अलावा कोई उसकी प्रतिद्वंद्वी पार्टी नज़र नहीं आ रही है।

ऐसे माहौल में उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल सपा अपनी साख बुरी तरह गंवाने के बावजूद सेकुलर मोर्चा बनाने के नाम पर जद यू, राष्ट्रीय लोकदल, राजद आदि को टटोल रही है तो यह कवायद तार्किक औचित्य के आधार पर खरी नहीं कही जा सकती। इसलिए यह कवायद आकर्षक सर्कस बनाकर भाजपा को जनमानस में पीछे धकेलने की रणनीति से ज़्यादा कोई अहमियत नहीं रखती।

यह बेतुकी कवायद सपा की अंदरूनी उठापटक में चाचा की भतीजे को पटखनी लगाने के मंसूबे से प्रेरित ही प्रतीत होती है। जदयू का प्रदेश की राजनीति में न के बराबर अस्तित्व है। ऐसे में सपा को उससे क्या सहारा मिल सकता है। हास्यास्पद यह भी है कि कल तक नीतीश कुमार गैर कांग्रेस गैर भाजपा विकल्प उत्तर प्रदेश में तैयार करने के लिए सभाएं करने का जो अभियान छेड़े थे उसके निशाने पर मुख्य रूप से प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी ही थी। ऐसे में अगर आज वे सपा के प्रति अपना प्रेम उड़ेलते हैं तो जनमानस उनके बारे में क्या कहेगा।

इसी तरह से अजीत सिंह की जो गत हुई है उसमें सबसे बड़ा योगदान तो मुलायम सिंह का ही है। फिर अजीत सिंह तो भाजपा के सहयोगी भी रह चुके हैं। इसके अलावा उनका और उनकी पार्टी का भी प्रदेश की राजनीति में कोई वजूद नहीं बचा है। फिर सपा की उनके प्रति ललक क्यों। सपा तो कांग्रेस से भी गठबंधन की बात कहने लगी है जबकि पहले उसे कांग्रेस फूटी आंख भी नहीं सुहाती थी। सपा को इतना ज़्यादा गुरूर था कि उत्तर प्रदेश में किसी भी पार्टी से उसे गठबंधन करना स्वीकार नहीं था। अब सपा इतनी पिलपिली क्यों हो गई। दूसरी पार्टियों से गठबंधन करना या महागठबंधन की योजना बनाना जनमानस में उसकी कमज़ोरी सिद्ध कर सकता है लेकिन सपा को इसकी भी परवाह नहीं है।

ज़ाहिर है कि सपा में शिवपाल सिंह ने गठबंधन की जो नई बयार बहाने की कोशिश की है उसके पीछे पार्टी की चिंता न होकर पार्टी के अंदर के समीकरण ज़्यादा हैं। उनकी मुख्य अदावत अपने भतीजे अखिलेश से है जिन्हें सबक सिखाने के लिए वे नित नये-नये पैंतरे अख्तियार कर रहे हैं। [envoke_twitter_link]दूसरी पार्टियों से गठबंधन का मतलब सपा द्वारा अपनी सीटों का परित्याग करना होगा[/envoke_twitter_link], जिसके लिए आज से कुछ महीने पहले तक सपा नेतृत्व कभी तैयार नहीं हो सकता था लेकिन आज शिवपाल सोच रहे हैं कि गठबंधन के प्रणेता वे स्वयं होंगे जिससे दो मकसद हल होंगे। एक तो सपा के प्रत्याशियों की और विधायकों की ओरीजनल संख्या कम होगी दूसरे सपा द्वारा छोड़ी गई सीटों पर सहयोगी दलों के जो उम्मीदवार जीतेंगे वे उनकी पार्टी के न होकर उनके अपने होंगे क्योंकि गठबंधन की पहल उन्होंने की है।

स्पष्ट है कि महागठबंधन का पासा फेंककर वे अखिलेश की स्थिति कमज़ोर करने का उद्देश्य साधना चाह रहे हैं। अभी तक यह समझा जा रहा और दिखाई भी दे रहा है कि शिवपाल की रणनीति में मुलायम सिंह का पूरा समर्थन है इसलिए महागठबंधन बनाने के पीछे भी मुलायम सिंह का आशीर्वाद माना जा सकता है लेकिन इस कवायद से किसी दूसरी पार्टी का कोई नुकसान होगा यह तो होने से रहा। जिस भाजपा के विरोध के नाम पर इस गठबंधन की इमारत खड़ी करने का प्रयास हो रहा है उस भाजपा की हैसियत के मनोवैज्ञानिक प्रभाव से इस कवायद के बढ़ते चले जाने की आशा ही ज़्यादा है।

 

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