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साम्प्रदायिक दंगे: चुनावी गणित और राजनीतिक महात्वकांक्षाओं के हथियार

हरबंस सिंह:

मैं जब भी ऑपरेशन ब्लू-स्टार के बारे में पढ़ता था और उसके बाद हुए दंगो के बारे में सोचता था तो मन क्रोधित हो उठता था। लेकिन जब मेरे एक हिन्दू दोस्त ने बताया कि उसी दौरान उसके एक रिश्तेदार को होशियारपुर में मार दिया गया था, तो मेरा गुस्सा मानो कही शांत हो गया और मैं उससे आँख भी नहीं मिला सका। बस उसी दिन से ये सोचना शुरू कर दिया कि दंगे कैसे और क्यों होते हैं। मैं एक सिख हूं और पूरी प्रमाणिकता से अपने विचारों को कलम देने की कोशिश कर रहा हूं, अगर कहीं भी मैं दहलीज़ लांग जाऊं तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा।

दंगे इस खूबसूरत देश की वो हकीकत हैं जिनमें हज़ारों लोग अपनी जानें और जीवन की पूरी कमाई खो चुके हैं। मेरी कोशिश ये जानने की है कि अगर ये दंगे न होते तो क्या होता और उस समय का दंगों से प्रभावित हुआ अल्पसंख्यक समुदाय किस दौर से गुज़र रहा था। मैं बात करूँगा 1984 और 2002 के दो सबसे बड़े दंगो की, जो हमारे लोकतंत्र पर दाग हैं। लेकिन उससे पहले बात करनी होगी हमारी आज़ादी की, जिसकी लड़ाई में हर वर्ग ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

आज़ादी का मतलब था हर नागरिक को एक सामान अधिकार और हर धर्म को अपनी धार्मिक आज़ादी। जब आज़ादी मिली तब लोकतंत्र के रूप रेखा में हमारे ही लोग हुक्मरान थे। लेकिन मूलभूत ज़रूरतों रोटी, कपड़ा और मकान से जुड़ी आम आदमी की समस्याएं जस की तस ही थी। 1958 में फिरोज़ गांधी ने सबसे पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठायी थी लेकिन भ्रष्टाचार का ये सिलसिला आज भी जारी है।

लोगों ने जब भी अपने अधिकारों की बात कही तो उसे दबाया गया। जब सब लोगों ने मिलकर आवाज़ उठाई तब उसे नक्सलवाद का नाम दे दिया गया और जब अपने मूलभूत अधिकारों की आवाज़ अल्पसंख्यक समुदायों ने उठाई तो उन्हें भी आतंकवादी करार दे दिया गया। सरकारों के लिए इस तरह के आंतकवाद से निपटना आसान था, क्यूंकि बहुसंख्यक अपनी मूलभूत समस्याओं को भूलकर और जज़्बातों में बह कर इस कथित आंतकवाद के खिलाफ खड़ा हो जाता है। बहुसंख्यक के यही जज़्बात सरकारों को चुनावी गणित में बढ़त दिलाते हैं और यही है दंगो का मूल कारण ‘चुनावी गणित’।

पहले बात करते हैं 1984 के दंगो की, 1971 में बांग्लादेश की लड़ाई में जब पाकिस्तान ने पीछे हटने का समझौता किया तब भारत की सेना का चेहरा लेफ्ट. जनरल अरोरा थे। इस समय, लेफ्ट. जनरल अरोरा एक सिख, देश के हीरो थे जिन्हें 1984 के दंगो में भाग कर अपनी जान बचानी पड़ी थी। 1971 के युद्ध में जीत के बाद भी श्रीमती इंदिरा गांधी को 1975 में इमरजेंसी लगानी पड़ी, उन्हे 1978 में जेल भी जाना पड़ा। जब 1984 में उनकी हत्या हुई उस समय बहुसंख्यक समाज की सोच यही थी कि “हमारी माँ को मार डाला”। इसके लिए 1984 के घटनाक्रम को जिस तरह से मीडिया ने दिखाया, ज़िम्मेदार है।

दंगो के पीछे कई तरह की सोच काम कर रही थी। एक सोच बहुसंख्यक समाज के उस हिस्से की थी जो जज़्बातों में बह रहा था और एक सोच जो सबसे ज़्यादा खतरनाक थी वो थी ‘राजनीतिक महत्वकंक्षाओं’ की सोच। रातों-रात कुछ मासूमों का क़त्ल कर राजनीती के गलियारों में खुद की पहचान बनाने की कोशिश में दिल्ली के कई से नेता बड़ी ईमानदारी से लगे हुए थे। पुलिस के बारे में अगर कहूं कि वो भी इसी बहुसंख्यक समाज का हिस्सा थी तो गलत नहीं होगा। बात अगर कांग्रेस पार्टी की हो तो उसके अहंकार को चोट पहुंची थी, उसका सर्वोच्च नेता जो मार दिया गया था। राजीव गांधी की पहचान तब तक बनी नहीं थी। कांग्रेस पार्टी की वापसी का एक ही तरीका था, बहुसंख्यक वर्ग की “भावनाएं”।

और हुआ भी यही। दंगों से बहुसंख्यक समाज की भावनाएं इस तरह से जोड़ दी गयी थी कि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे बड़ी चुनावी जीत 1984 के चुनावों में कांग्रेस की हुई। ये कहना गलत न होगा कि दंगो की आड़ में आम आदमी के सारे सवाल छुप गये। शायद ये कहना भी गलत ना होगा कि उस समय चुनावी गणित के लिए दंगे तो होने ही थे फिर चाहे श्रीमती गांधी की हत्या ना भी हुई होती क्यूंकि ऑपरेशन ब्लू-स्टार के बाद भी बहुसंख्यक समाज की भावनाएं सामने नहीं आ रही थी। एक आम आदमी अभी भी अपनी मूलभूत ज़रूरतों से जुड़े सवाल सरकार से पूछ रहा था।

अब बात करते है, 2002 के गुजरात दंगो की। 2001 में गुजरात में आए भूकंप की कुदरती आपदा में हर वर्ग मदद के लिए खड़ा था। फिर 1 साल में ऐसा क्या हुआ कि 2002 में आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे बड़े दंगों में से एक गुजरात में हुए। अगर इसकी पृष्ठभूमि देखें तो 2001 के 3 बाय-इलेक्शन में भारतीय जनता पार्टी हार चुकी थी और कांग्रेस बढ़त बना रही थी। नरेन्द्र मोदी की भी आम जनता में उस समय कोई ख़ास पहचान नहीं बनी थी, और एक आम चर्चा छिड़ी हुई थी कि इस बार कांग्रेस अपनी खोयी हुई छवि फिर प्राप्त कर लेगी। उसी समय फरवरी 2002 में भीड़ द्वारा गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन के 2 कोच जला दिए जाते हैं। अगले दिन न्यूज़ पेपर में इस खबर को काफी विस्तार से प्रकाशित किया गया और 28 फरवरी को गुजरात बंद का आवाहन किया गया। इसके बाद जो हुआ, वो हम सब के सामने है।

यहां भी वही ‘राजनीतिक महत्वकांक्षा’ की मंशा नज़र आती है। अल्पसंख्यक समूह के लिए आम लोगों के वही जज़्बात और पुलिस का बहुसंख्यकों का साथ देना। चुनाव तय समय से पहले करवा के भारतीय जनता पार्टी ने पूरे बहुमत से वापसी की और अगले 12 वर्षो के लिए मुख्यमंत्री के रूप में मोदी जी स्थाई हो गये। मैं दोनों दंगो को एक सामान ही मानता हूं, वही अहंकार और वही महत्वाकांक्षा। राजीव गांधी ने कहा था कि जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन हिलती है और मोदी जी ने कहा कि कोई पिल्ला जब गाड़ी के नीचे आ जाता है तो दुःख होता है। दोनों समय स्वर अहंकार का था और इसके पीछे थी ‘राजनीतिक महत्वाकांक्षा’।

अंत में यही कहूंगा कि देशवासियों जज़्बातों में न बहो, सोचो और पूछो क्या हमारी सरकार एक संतोषजनक परिणाम दे सकी है अगर नहीं तो सरकार से पूछो, क्यों?  बहुत से छल आगे भी होंगे लेकिन अब देश के नागरिक को अपनी सोच को और तराशना होगा। अल्पसंख्यक समूहों से यही गुज़ारिश है कि अपनी मांगों को  गरिमा और शांतिपूर्वक ढंग से सामने रखे। ध्यान रहे की जाने-अनजाने में आप भी कहीं किसी राजनीतिक महत्वकांक्षा का हथियार न बन जाएं।

 

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