पहली कड़ी में हमने देखा कि स्त्री जीवन की गाथा की परम्परा हमारे देश में नई नहीं है। स्त्री जीवन का स्वर भी नया नहीं है। हमने बुद्ध के वक्त की स्त्रियां देखीं। बेटियों का स्वर भी सुना। इस कड़ी में हम देखते हैं, जीवन का एक और पड़ाव-शादीशुदा ज़िंदगी और उसकी खुशी। तीन कड़ियों के जिस सफर में हमें वरिष्ठ पत्रकार नासिरूद्दीन ले जा रहे हैं आज उस सफर का दूसरा पड़ाव है। अच्छा लगे तो अपने साथी मर्दों को भी जरूर बताइएगा…
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शादीशुदा जिंदगी की खुशी
चलिए एक और चीज़ पढ़ते हैं। शादीशुदा जिंदगी की खुशी के बारे में स्त्री के मुख से ही सुनते हैं। वे क्या सोचती हैं। क्या कहती हैं। अरे, आप नाराज़ तो नहीं हो रहे हैं। ख़ैर। देखिए क्या लिखा है-
”…शादी करने से अपने अख़त्यारात (अधिकार) दूसरे के अख़त्यार में देने पड़ते हैं। जब आपने जिस्मी अख़त्यार दूसरे को दिए तब दुनिया में अपनी क्या चीज़ बाक़ी रही? अगर इस दुनिया में कुछ ख़ुशी है तो उन्हीं को है जो अपने तईं आजादी रखते हैं। हिन्दुस्तानी औरतों को तो आज़ादी किसी हालत में नहीं हो सकती। बाप, भाई, बेटा, रिश्तेदार-सभी हु़कूमत रखते हैं। मगर जिस क़द्र ख़ाविंद ज़ुल्म करता है उतना कोई नहीं करता। लौंडी तो यह सारी उम्र सब ही की रहती है पर शादी करने से तो बिल्कुल ज़रख़रीद हो जाती है। इस दुनिया में चाहे बादशाहत की नियामत मिले और आज़ादी न हो, नर्क के बराबर है।…
स्त्री पुरुष का रिश्ता रूहानी है जिस्मानी नहीं है। रूह का रिश्ता प्रीत से है-जब तक स्त्री पुरुष में प्रीत न हो विवाह नहीं। … प्रीत समान की समान से होती है। … क्या बगैर पसंद किए हुए शादी बिच्छू के ज़हर से कुछ कम दु:ख देती है?’‘
जनाब ये लाइनें एक अज्ञात हिन्दू औरत की लिखी किताब ‘सीमन्तनी उपदेश’ से ली गई है। यह पुस्तक सन् 1882 में छपी थी। यानी 134 साल पहले की बात है। ज़ाहिर है इतने सालों में भी दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई हैं। ख़ुद महिलाएँ कहाँ से कहाँ पहुँच गईं। है न!
पर कुछ सवाल फिर भी ज़हन में कौंध ही जा रहे हैं।
महाशय आप बोलिए न। मुझसे नहीं बोलन चाहते। ज्ञान साझा नहीं करना चाहते तो कोई बात नहीं ख़ुद को तो जवाब देंगे? तो अपने को ही दीजिए।
जनाब, बुरा मत मानिएगा। थोड़ी ज़हमत और उठाइएगा। ज़रा इन चंद लाइनों पर भी ग़ौर फ़रमाइए।
”… अक़्ल की ता़कत में औरतें किसी तरह मर्दों से कम नहीं हैं और कोई इल्मी मसला यानी पढ़ाई-लिखाई आज तक ऐसा साबित नहीं हुआ है कि वहाँ तक मर्दों के ज़हन की पहुँच होती हो और औरतों की न होती हो। बल्कि जहाँ तक हमारा और हमारे चंद अहबाब का तज़ुर्बा लड़कियों की तालीम के बारे में है, इससे मालूम होता है कि बनिस्बत लड़कों के लड़कियाँ ज़्यादा ज़हीन और बुद्धिमान और रोशन ख़्याल होती हैं। जिन लड़कियों ने मदरसा में तालीम नहीं पाई और अपने घरों में पढ़ना-लिखना सीखा है उनका क़िस्सा सुनने से हमें बेइंतहा ताज्जुब हुआ। अक्सर सूरतों में यही सुना कि उनकी कोई बाक़ायदा तालीम नहीं हुई न कोई ख़ास शख़्स उनकी तालीम के लिए मख़सूस हुआ बल्कि दोचार हऱफ बहन से, दो चार हऱफ भाई से, दो चार हऱफ वालिदा से उठते-बैठते सीखती रहीं। भाई-बहनों को लिखते देख कर ख़ुद उनकी नक़्ल करने लगीं। ऱफता-ऱफता ख़ुद ही इस क़दर लिखना-पढ़ना आ गया कि कई साल तक के लिए भाइयों की तालीम की खास टीचर बन गईं।
हमने कभी किसी लड़के को इस तरह अधूरी तालीम से कोई फ़ायदा हासिल करते नहीं देखा। जिस वालदैन को यकसाँ उम्र का लड़का और लड़की पढ़ाने का इत्तेफ़ाक़ हुआ होगा उसे साफ़ रोशन हो गया होगा कि लड़के अमूमन अक़्ल के भद्दे और कम तेज़ होते हैं और लड़कियों के हमराह हमेशा फि़सड्डी रहते हैं।”
जानते हैं ये कौन साहब हैं। मौलवी हैं। देवबंदी हैं। मौलवी सैयद मुमताज़ अली। 120 साल पहले 1896 में उन्होंने यह लिखा था। इनकी बात को भी काफी लम्बा वक्त गुज़र गया। है न! तो इनकी बात भी अब इतिहास की बात ही हो गई होगी?
तो ये बातें भी बेमानी ही हो गई होंगी और कोई यह नहीं कहता होगा-
महाशय क्या सोच रहे हैं? चलिए थोड़ा ग़ौर कीजिए और अपने को ही जवाब दीजिए।
स्त्रियां आज़ाद हैं
देखिए, तमिल कवि सुब्रह्मण्य भारती भी कुछ कह रहे हैं। भारती की रचनाएं 20वीं सदी की शुरुआत की हैं। सौ साल पहले की मान सकते हैं। उनकी एक कविता का हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह का है-
”सुनो, मैं घोषणा करता हूँ नए क़ानून की-
औरत आज़ाद है।सुनो ध्यान से, यह क़ानून क्या है:
अगर दुनिया के सभी जीव देवता माने जाते हैं।
तो पत्नी देवी क्यों नहीं, बोलो मूर्खों?तुम उड़ने-उड़ाने की शेख़ी बघारोगे,
आज़ादी व दया-करुणा का नाम लेकर
आनंद विह्वल हो जाओगे
आज़ादी से वंचित रखोगे
तो पृथ्वी पर कैसा जीवन रह जाएगा।”
भारती जी का एक लेख है, ”पतिव्रता”। उसका एक अंश है-
”…यदि पुरुष चाहता है कि स्त्री उससे सच्चा प्रेम करे तो पुरुष को भी स्त्री के प्रति अटूट श्रद्धा रखनी चाहिए। भक्ति के द्वारा ही भक्ति का आविर्भाव होगा। एक दूसरी आत्मा, भय से त्रस्त होकर हमारे वश में रहेगी ऐसा मानने वाला चाहे राजा हो, गुरु हो या पुरुष हो, वह निरा मूर्ख है। उसकी इच्छा पूरी न होगी। आतंकित मानव का प्राण चाहे प्रकट रूप में गुलाम की भांति अभिनय करे, हृदय के अंदर द्रोह की भावना को वह अवश्य छिपाता रहेगा। भयवश होकर प्रेम खिलता नहीं।”
तो जनाब भारती के शब्दों में छिपी भावना क्या कहीं से महिलाओं की आज की हालत से जुड़ती है? सोचिए न यह बात सौ साल पहले लिखी गई थी। 20वीं सदी में। हम रह रहे हैं 21वीं सदी में। सबसे आधुनिक, सबसे सभ्य और सबसे वैज्ञानिक युग में।
सवाल इसलिए तो उठ रहे हैं-
महाशय, क्या जवाब है आपका। मुझे नहीं देना चाहते। कोई बात नहीं ख़ुद को तो जवाब देंगे? चलिए अपने को ही दीजिए।
(नासिरूद्दीन ने ‘लड़कों की खुशहाली का शर्तिया नुस्खा’ नाम की एक सीरिज़ लिखी है। इसे सीएचएसजे ने प्रकाशित किया है।)
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