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बीटी बैंगन, बीटी कॉटन और अब बीटी सरसो, क्या है ये बीटी क्रॉप जान लीजिए

अविनाश कुमार चंचल:

साल 2010 की बात है, तत्कालीन केन्द्र सरकार जी.एम. (जेनेटिकली मॉडिफाइड) बी.टी. बैंगन (बेसिलस थुरेन्जिएन्सिस, एक खास किस्म का बैक्टीरिया जो बीज में कीट प्रतिरोधक क्षमता पैदा करता है) को देश में लाने की तैयारी कर रही थी। लेकिन किसान संगठन, सिविल सोसाइटी से लेकर कई राजनीतिक पार्टियों ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया। बी.टी. बैंगन के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन हुए, अखबार से लेकर टीवी तक बी.टी. बैंगन के बहाने जी.एम. फसलों पर बड़ी बहस छिड़ गयी और अंत में, केन्द्र सरकार को अपना कदम वापिस लेना पड़ा। किसानों, वैज्ञानिकों और उपभोक्ताओं के दबाव में उस समय भारत सरकार को जी.एम. बैंगन की व्यावसायिक खेती पर अनिश्चितकाल के लिये रोक लगानी पड़ी थी।

आज केन्द्र में बीजेपी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है। वर्तमान केन्द्र सरकार जी.एम. सरसों को देश में लाने की तैयारी कर रही है। सरकारी समिति ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रेज़ल कमेटी’ (जी.ई.ए.सी.) द्वारा जी.एम. सरसों पर फैसला लेने की उम्मीद है।

हालांकि खुद बीजेपी शासित राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश जैसे सरसों उत्पादन वाले प्रदेशों ने भी जी.एम. सरसों के फील्ड ट्राइल से मना कर दिया है। गैर सरकारी संगठनों ने आरोप लगाया है कि जी.एम. सरसों का परीक्षण अवैज्ञानिक, अपर्याप्त, और अविश्वसनीय है। जी.ई.ए.सी. पर पारदर्शिता न बरतने का आरोप भी लगाया जा रहा है। जी.एम. सरसों बाजार में उतारने के पक्ष में सबसे महत्वपूर्ण तर्क सरसों की उपज में वृद्धि का दिया जा रहा है। जबकि देश में पहले से ही सरसों की कई ऐसे किस्म मौजूद हैं जो प्रस्तावित जी.एम. सरसों से उत्पादकता में बीस ठहरती हैं। दरअसल सरकार समर्थित दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा तैयार की गयी जी.एम. सरसों की इस नई किस्म की तुलना जानबूझकर पुरानी कम उत्पादन देने वाली किस्मों से की गयी, जबकि होना यह चाहिए था कि बाज़ार में पहले से ही मौजूद गैर-जी.एम. संकर और अन्य किस्मों से तुलना से होनी चाहिए थी, जो बीज बेहतर पैदावार के लिये जाने जाते हैं।

वैसे भी, सरसों की पैदावार बढ़ाने के लिये उन्नत बीजों के अलावा और भी कई तरीके उपलब्ध हैं। विकसित देशों में भी जी.एम. फसलों का विरोध काफी तेज हो गया है। अमेरिका के एक राज्य ने हाल ही में फैसला दिया था, जिसमें खाद्य पदार्थ बनाने वाली कंपनियों को जी.एम. फसलों से तैयार उत्पाद पर इस बात का चिन्ह देना ज़रुरी कर दिया था, जिससे उपभोक्तताओं को मालूम हो सके कि यह जी.एम. पदार्थ है। विकसित देशों में जी.एम. बाजार की स्थिरता ने इससे जुड़ी बड़ी-बड़ी कंपनियों का ध्यान भारत जैसे विकासशील देशों की तरफ दिलाया है, जहां कृषि में जी.एम. को आसानी से लाया जा सकता है।

जी.एम. फसलों से जुड़ी स्वास्थ्य चिंताओं को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। पिछले दिनों पूर्व स्वास्थ्य मंत्री डा. अंबुमनी रामदॉस ने भी वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा को पत्र लिखकर बैंगन और जी.एम. सरसों के बीच समानताओं पर ध्यान दिलाया है और पूछा है कि भारत को एक असुरक्षित तकनीक क्यों अपनाना चाहिए जबकि विकल्प मौजूद हैं?

प्रस्तावित जी.एम. सरसों डी.एम.एच.11 (धारा मस्टर्ड हाइब्रिड-11) खरपतवारनाशक सहनशील हैं लेकिन जोखिम मूल्यांकन के दौरान खरपतवारनाशक सहनशीलता या इस के चलते खरपतवारनाशकों के बढ़े हुए प्रयोग का या इन के मिलेजुले असर का अध्ययन नहीं किया गया है। ये खरपतवारनाशक या कीटनाशक खेत की मिट्टी के लिये भी खराब हैं और इनसे कैंसर जैसी खतरनाक बिमारियों की संभावनाएं बढ़ जाती है। देश में पहले से ही कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग ने कई सारी बिमारियों को जन्म दिया है, जिससे निपटना सरकार के लिये बड़ी चुनौतियों में से एक है।

इस मामले में और भी दिक्कते हैं एक तो खरपतवारनाशक के लिये सिर्फ एक ब्रांड ‘बेयर’ का ही इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे जी.एम. सरसों की खेती पर एक मल्टीनेशनल कंपनी का एकाधिकार हो जाने का खतरा बना रहेगा। साथ ही, खरपवतवारनाशक खेती और किसानी के लिये लाभदायक दूसरे साझेदार जैसे मधुमक्खियों, तितलियों और मिट्टी के दूसरे सूक्ष्म जीवों के लिये भी खतरनाक साबित होगा। इन ज़हरीले खरपतवारनाशकों द्वारा हमारे भोजन की थाली भी अप्रभावित नहीं रह पायेगी।

साथ ही, किसानों के लिये यह अलग तरह कीसमस्याएं पैदा करेंगी मसलन, मिश्रित खेती करना असंभव होगा और आसपास के खेतों में भी इसके दुष्प्रभाव होंगे। इतना ही नहीं, अभी तक देश के ज़्यादातर हिस्सों में खरपतवार हटाने के लिये श्रमिकों की मदद ली जाती है, खरपतवारनाशकों के इस्तेमाल के बाद उन श्रमिकों की जीविका पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।  बहुत से खरपतवार जो मवेशियों के लिये चारे या दवाई का काम करते हैं, उनका इस्तेमाल किसान नहीं कर पायेंगे। मज़ेदार बात यह है कि खरपतवारनाशक सहनशील बीज और खरपतवारनाशक दोनों को बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही बनायेगी। ज़ाहिर सी बात है अगर जी.एम. सरसों को देश में अनुमति दी जाती है तो इसका सबसे ज़्यादा फायदा उन्हीं कंपनियों को होगा। वैसे भी देश की खेती को विदेशी कंपनियों के हाथों में सौंपना भविष्य के लिये अच्छे संकेत नहीं हैं।

भारत में जी.एम. के प्रयोग के बेहतर नतीजे नहीं मिले हैं। करीब 15 साल पहले देश में बी.टी. कपास को अनुमति दी गयी थी। जानकार बताते हैं कि जिस कीट से बचाव के लिये बी.टी. कपास बनाई गयी थी उस कीट ने बी.टी. कपास के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। एक बार फिर से किसानों को कपास की खेती में पहले जितना ही कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ रहा है। वहीं दूसरी तरफ देश के कपास बीज बाज़ार पर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसेंटो ने कब्ज़ा कर लिया है। यहां बताना जरुरी है कि हाल ही में मोनसेंटो और बेयर नाम की दो बड़ी कंपनियों ने आपस में विलय किया है और अब वे पूरी दूनिया की खेती पर कब्ज़ा करने की फिराक में लगे हैं। महाराष्ट्र से लेकर देश के दूसरे कई हिस्सों में कपास की खेती करने वाले किसान सबसे ज़्यादा आत्महत्या कर रहे हैं और उनकी हालत दयनीय हो गयी है। साफ है कि पिछले 15 सालों में बी.टी. कपास से एक तरफ तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने खूब मुनाफा कमाया है, वहीं दूसरी तरफ किसान बदहाली के कगार पर पहुंच चुके हैं।

यही वजह है कि देश में चौतरफा जी.एम. सरसों का विरोध किया जा रहा है। सरसों बोने वाले मुख्य राज्यों सहित किसान संगठन, दर्जनों वैज्ञानिकों और हज़ारों नागरिकों ने जी.एम. सरसों को अनुमति नहीं देने के लिये सरकार से मांग की है। जी.एम. सरसों के खिलाफ शुरु हुए ऑनलाइन पेटिशन पर हजारों लोगों ने अपना हस्ताक्षर किया है। 2 अक्टूबर को दिल्ली सरकार ने जी.एम. सरसों के खिलाफ और देशी सरसों के पक्ष में जश्ने सरसों का आयोजन किया। इस कार्यक्रम में विभिन्न पार्टियों और संगठनों के नेताओं ने एकसुर में जी.एम. सरसों को नकारने की बात कही है। वहीं गांधी जयंती के दिन ही देश के लगभग 100 शहरों में जी.एम. सरसों के खिलाफ प्रदर्शन किया गया है।

बैंगन की तरह ही सरसों के लिये भी भारत विविधता का केन्द्र है। 2004 में डा. स्वामीनाथन की अगुवाई में बनी कृषि मंत्रालय की समिति की रिपोर्ट से लेकर 2013 की सुप्रीम कोर्ट की तकनीकी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में पूरी तरह से भारतीय फसलों के बीज में जी.एम. तकनीक के प्रयोग के खिलाफ स्पष्ट निर्देश दिया। भारत में पारंपरिक रूप से सरसों का उपयोग भोजन के अलावा आयुर्वेदिक दवा के रुप में भी किया जाता है। बच्चों की तेल मालिश की परंपरा बहुत पुरानी है। जी.ई.ए.सी. द्वारा जी.एम. सरसों के इन पर पड़ने वाले प्रभाव का भी आकलन नहीं किया गया है। ज़ाहिर सी बात है जी.एम. सरसों हमारे बच्चों और भविष्य दोनों के लिये खतरनाक हो सकता है।

जी.एम. सरसों के विरोध में मधुमक्खी पालन करने वाले संगठन भी उतर आये हैं। भारत में शहद उत्पादन की एक लंबी परंपरा रही है। पिछले सालों में भारतीय शहद उद्योग तेज़ी से बढ़ा है। मधुमक्खी पालन करने वाले किसानों के लिये सरसों एक प्रमुख संसाधन रहा है। सरसों के पैदावार में भी मधुमक्खी पालन से करीब 20 से 25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होती है। जी.एम. सरसों आने के बाद यह कहना मुश्किल है कि मधुमक्खियों पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ेगा।

जी.एम. फसलों को लेकर दुनिया भर में चिंताएं ज़ाहिर की जा रही हैं। यह स्वास्थ्य, पर्यावरण और आर्थिक रुप से एक खराब सौदा साबित हुआ है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तकनीकी विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में बी.टी. बैंगन पर भारत सरकार द्वारा लगाई गई अनिश्चितकालीन रोक को वैज्ञानिक माना है। जी.एम. सरसों भी बी.टी. बैंगन से अलग नहीं है। अगर जी.एम. सरसों को स्वीकार किया जाता है तो इस बात की प्रबल संभावना है कि आने वाले दिनों में दूसरे उत्पादों में भी जी.एम. का रास्ता साफ हो जायेगा।

केन्द्र सरकार को जी.एम. सरसों स्वीकार करने में हड़बड़ी नहीं दिखानी चाहिए। इससे संबंधित सारी जानकारियों को सार्वजनिक किये जाने की ज़रुरत है, क्योंकि यह सीधे-सीधे देश के सभी नागरिकों के स्वास्थ्य से जुड़ा मामला है, साथ ही सभी पहलूओं मसलन, जी.एम. उत्पाद की ज़रुरत, लोगों के स्वतंत्र चुनाव का अधिकार, अन्य विकल्पों का मूल्यांकन, सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का आकलन, विभिन्न साझेदारों से संवाद करके ही इस मामले में कोई कदम उठाना चाहिए।

वहीं सरकार को सरसों का उत्पाद बढ़ाने के लिये तेल के आयात शुल्क में वृद्धि करनी चाहिए, बीज में निवेश करने की बजाय किसानों को सीधा सब्सिडी मुहैया कराना चाहिए , जिससे कृषि की समस्याओं को किसान नियंत्रित, सुरक्षित, सस्ती और टिकाऊ तकनीक से खत्म किया जा सके और हमारे भोजन की थाली प्रदूषित होने से बचा रहे।

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