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“आंदोलन के कवि गोरख पाण्डेय ने भड़कना नहीं दुनिया को बदलना सिखाया है”

विष्णु प्रभाकर:

हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा,
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफरत।
मैं तो सिर्फ उनके बिखरे हुए शब्दों को
लय और तुक के साथ लौटा रहा हूं।
मगर तुम्हें डर है कि आग भड़का रहा हूं। ( तुम्हें डर है)

यह कविता है कवि गोरख पाण्डेय की। ये गोरख के अन्दर के कवि की असली लोकेशन है, जहां से कवि वैचारिक पोषण प्राप्त करता है। वह कवि ही क्या जो सत्ता से ना टकराये। जो कवि सत्ता विरोधी होता है, वही कवि जनकवि होता है।

गोरख पाण्डेय को इस दुनिया से रूखसत हुए एक लम्बा अरसा गुज़र चुका है। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, गोरख की कविताएं और लोकप्रिय होती जाती हैं। गोरख आंदोलन के कवि हैं।

आंदोलन के कवि

आंदोलनों ने ही गोरख को और गोरख की कविताओं को लोकप्रिय बनाया है। खासकर छात्रों और नौजवानों के आंदोलनों में जितनी गोरख की कविताएं पढ़ी जाती हैं और गीत गाये जाते हैं, उनके समकालीन हिंदी साहित्य के शायद ही किसी कवि को उतना मुनासिब हो।

तात्पर्य यह है कि इतनी सरल और सुव्यवस्थित भाषा में गोरख ने कविताएं कही हैं कि कोई भी गोरख की कविताओं और गीतों को समझ जाता है। सिर्फ समझ ही नहीं जाता बल्कि उनसे आसानी से जुड़ जाता और ऐसा महसूस करता है कि गोरख ने उसी के दर्द को कविता के रूप में कलमबद्ध किया हो।

लेकिन हिन्दी समीक्षा जगत की समस्या यह है कि गोरख पाण्डेय का जितना मूल्यांकन होना चाहिए था उतना नहीं हुआ। इलाहाबाद और दिल्ली में आये दिन साहित्यिक सेमिनार और गोष्ठियां होती रहती हैं, लेकिन मुझे याद नहीं कि आखिरी बार गोरख पर केन्द्रित सेमिनार कब और कहां हुआ था।

अंग्रेज़ी और हिंदी साहित्य पर लंबी बहस

“कला, कला के लिए” इस पर एक लम्बी बहस है हिन्दी साहित्य और अंग्रेज़ी साहित्य में भी। “कला की जरूरत” नामक पुस्तक के लेखक फिशर ने इसी पुस्तक में लिखा है,

मनुष्य स्वयं से बढ़कर कुछ होना चाहता है। वह सम्पूर्ण मनुष्य बनना चाहता है। वह अलग-अलग व्यक्ति होकर संतुष्ट नहीं रहता, अपने व्यक्तिगत जीवन की आंशिकता से निकलकर वह उस परिपूर्णता की ओर बढ़ने की कोशिश करता है, जिसे वह महसूस करना चाहता है। वह जीवन की ऐसी परिपूर्णता की ओर बढ़ना चाहता है, जिससे वैयक्तिकता अपनी तमाम सीमाओं के कारण उसे वंचित कर देती है। वह एक ऐसी दुनिया की ओर बढ़ना चाहता है जो अधिक बोधगम्य हो, जो अधिक न्यायसंगत दुनिया हो।

विश्व प्रसिद्ध कवि बर्टोल्ट ब्रेश्ट ने कहा है,

हमारे रंगमंच के लिए निहायत जरूरी है कि वह समझ से पैदा होने वाले रोमांच को प्रोत्साहित करे और लोगों को यथार्थ में परिवर्तन करने से प्राप्त होने वाले आनन्द का प्रशिक्षण दे।

कला के मुतल्लिक़ गोरख का क्या कहना उसको देखिए और फिर ये भी देखिए कि गोरख की कला से क्या अपेक्षाएँ थीं और गोरख  एक कलाकार से क्या उम्मीद करते थे।

“कला कला के लिए हो/ जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए/ न हो/ रोटी रोटी के लिए हो/ खाने के लिए न हो”

गोरख की कविताओं में औरतें

जन संस्कृति मंच और सांस्कृतिक संकुल ने गोरख की प्रकाशित, अप्रकाशित कविताओं का संकलन प्रकाशित किया है। गोरख के कविता संग्रह का कोई सफ़ा पलटिए आप, आपको मेहनतकश जनता की आवाज सुनाई देगी।

बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सिर
लहूलुहान गिर पड़ी वह औरत दिखाई देगी।
गरीब मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ी थीं कैथर कला की औरतें”
लड़ते हुए दिखाई देंगी।

गोरख के काव्य की एक खास विशेषता यह है कि गोरख के काव्य में औरतें अलग-अलग रूपों में घूम घूमकर आयी हैं। “कैथर कला की औरतें” कविता को ले लीजिए इस कविता में लड़ती विद्रोही औरतें दिखेंगी।

इन औरतों को ही गोरख पाण्डेय ने अपनी कविता का मौजूं बनाया। कैथर कला की घटना कोई समान्य घटना नहीं थी। गोरख की दृष्टि उस बड़ी परिघटना तक पहुँची है जिसे कवियों ने एक समान्य घटना मानकर छोड़ दिया या यूं कहें कि उनकी दृष्टि वहाँ तक नहीं पहुंच पायी।

“बंद खिड़कियों से टकरा कर” कविता में गोरख ने पूरी संवेदना के साथ औरत की ऐतिहासिक पीड़ा को जिस प्रकार से चित्रित किया वैसा चित्रण हिन्दी कविता में बहुत कम है। इस कविता में गोरख औरत की पीड़ा का चित्रण तो किया ही है साथ ही साथ पूरे पुरूष समाज को कटघरे में खड़ा कर देते हैं, दण्डित करते हैं – “गिरती है आधी दुनिया/ सारी मनुष्यता गिरती है/ हम जो जिंदा हैं/ हम दण्डित हैं।”

अंधेरे कमरों और बंद दरवाज़ों से
बाहर सड़क पर जुलूस में और युद्ध में
तुम्हारे होने के दिन आ गये हैं (तुम जहां कहीं भी हो)”

इस कविता को ले लीजिए। अक्सर ये कविता आंदोलन में बिना नाम के दिख जाती है। इस तरह की कविता लिखने वाले गोरख पहले कवि हैं जिन्होंने सड़क, जुलूस और युद्ध में औरतों के होने की आवश्यकता को महसूस किया है। जैसे-जैसे कवि का कविताई में समय बीता है वैसे-वैसे कवि का गुस्सा भी बढ़ता गया है और इस कदर बढ़ गया हो कि कवि इस बात पर उतारू है कि

ये आंखें हैं तुम्हारी तकलीफ का उमड़ता हुआ  समंदर
इस दुनिया को जितनी जल्दी हो
बदल देना चाहिए।

 

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