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पिछले 13,000 सालों का इतिहास बताने वाली किताब “गन्स जर्म्स एंड स्टील”

1997 में लिखी गई ज़रेड डायमंड की किताब “गन्स जर्म्स एंड स्टील”, लगभग पांच सौ पृष्ठों में पृथ्वी पर मानव-समाजों के बृहद इतिहास की रूपरेखा पेश करती है। ज़ाहिर है, इतने विस्तृत काल-खंड का इतिहास लिखते हुए, घटनाओं या व्यक्तियों की बजाय ज़रेड डायमंड पृथ्वी पर पिछले 13,000 वर्षों में घटित हुई भौगोलिक प्रक्रियाओं, पर्यावरण और पारिस्थितिकी में होने वाले ऐतिहासिक बदलावों, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं के ऐतिहासिक उत्पत्ति और विकास का अध्ययन करते हैं।

असल में, ज़रेड डायमंड मानव-समाजों का जो इतिहास लिखते हैं, वह फर्नांड ब्रादेल के काल-विभाजन के अनुसार कहें तो, ‘दीर्घ काल’/लॉन्ग द्यूरी (Longue Duree) का इतिहास है। अनाल्स स्कूल के इतिहासकार, ब्रादेल स्वयं अपनी किताब ‘द मेडिटरेनियन एंड द मेडिटरेनियन वर्ल्ड’ के पहले खंड में इतिहास में पर्यावरण की भूमिका का अध्ययन करते हैं और इसके लिए आधार बनाते हैं भौगोलिक अवस्थिति को। जिसमें वे पहाड़, पठार, मैदानों के बनने की प्रक्रिया, समुद्र और समुद्र तट, द्वीप-समूहों, प्राकृतिक/भौगोलिक सीमाओं, संचार और यातायात के साधनों के विकास का ऐतिहासिक अध्ययन करते हैं।

ज़रेड डायमंड अपनी इस किताब में, जो अपने लिखे जाने के लगभग दो दशकों बाद भी इंटर-डिसीप्लीनरी स्टडीज़ के क्षेत्र में एक मील का पत्थर है। यह दिखाते हैं कि अगर दुनिया के अलग-अलग क्षेत्र के लोगों के लिए इतिहास ने अलग-अलग मोड़ लिए तो इसके पीछे पर्यावरणीय कारक ज़िम्मेवार थे, ना कि कोई जैविक अंतर। पर पर्यावरणीय कारक पर ज़ोर देते हुए भी, वे आगाह करते हैं कि इसे “भौगोलिक नियतिवाद’ (geographical determinism) नहीं समझा जाना चाहिए। डायमंड आनुवंशिकी, जैव-भूगोल, पुरातात्विक अध्ययनों, भाषा-विज्ञान के साथ-साथ मोलिक्युलर बायोलॉजी, बिहेविरल इकोलॉजी, एपिडेमिओलॉजी (महामारियों का अध्ययन), ह्यूमन जेनेटिक्स के नवीनतम शोधों का भी भरपूर इस्तेमाल अपने अध्ययन में करते हैं।

डायमंड उन प्रक्रियाओं का अध्ययन करते हैं, जिनके ज़रिये मानव-समाज पशुओं को पालतू बनाने और कृषि-योग्य पौधों को पहचानने और आगे चलकर उनका संकरण करने में सफल हुआ। पालतू बनाए जा सके पशुओं और मानव-समाज की तमाम कोशिशों के बावजूद पालतू न बन सके पशुओं में अंतर दिखाते हुए डायमंड एक रोचक व्याख्या करते हैं। वे लियो टॉल्सटॉय की उस उक्ति का हवाला देते हैं, जिसे अन्ना कारेनिना में टॉल्सटॉय ने लिखा था और वह यह कि दुनिया के सारे सुखी परिवार एक जैसे होते हैं, पर सभी दुखी परिवार अलग-अलग कारणों से दुखी होते हैं। डायमंड इसी उद्धरण को पालतू पशुओं पर भी लागू करते हैं और कहते हैं, “दुनिया में पालतू बनाए जा सके सभी पशु एक जैसे थे और जो पशु पालतू नहीं बनाए जा सके वे अलग-अलग कारणों से पालतू नहीं बनाए जा सके”। इन अलग-अलग कारणों में भी वे 12 प्रमुख कारणों का एक समुच्चय (सेट) बनाते हैं।

एक अन्य जगह ज़रेड डायमंड इस उक्ति को कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है को उलट देते हैं और कहते हैं कि आविष्कार आवश्यकता की जननी होती है, और वे आविष्कारों को आवश्यकता का स्रोत बताने वाले अपने अध्याय का शीर्षक ही देते हैं: “नेसैसिटीज़ मदर”। वे अनेक उदाहरणों से ये दिखलाते हैं कि बहुतेरे आविष्कार तो ऐसे थे जिनकी तत्कालीन समाज को कोई जरूरत ही नहीं थी, पर उनकी खोज होने के बाद धीरे-धीरे वे समाज की ज़रूरत बनते चले गए।

वे पूरी दुनिया पर यूरेशिया का वर्चस्व स्थापित होने के लिए यूरेशियाई समाजों में सबसे पहले धातुओं के इस्तेमाल को; यूरेशियाई समाजों में सैन्य प्रौद्योगिकी के विकास को; यूरेशियाई समाजों में मशीनों को चलाने के लिए आवश्यक ऊर्जा के स्रोतों की उपलब्धता को, जिसने आगे चलकर इन समाजों को स्थल और समुद्री यातायात में अन्य समाजों से कहीं आगे बढ़ा दिया। यूरेशियाई समाजों के भिन्न राजनीतिक संगठन को; लिखने की कला और दस्तावेज़ आदि रखने की प्रक्रिया को, अंततः जिसने नौकरशाही को जन्म दिया और यूरेशियाई समाजों में उपजी महामारियों को और महाद्वीपों के अक्षांशीय विस्तार को ज़िम्मेदार मानते हैं।

हालांकि यह पूरी किताब ही पठनीय है पर खासकर, इस किताब का अंतिम अध्याय “द फ्यूचर ऑफ ह्यूमन सोसायटी एज़ अ साइंस” समाज-विज्ञान और मानविकी के हर छात्र को अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए। इस अंतिम अध्याय में, डायमंड न सिर्फ इस प्रश्न के बारे में, अपने निष्कर्ष और सामान्यीकरण हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं, कि आखिरकार अलग-अलग महाद्वीपों के लोगों में आज जो विभेद व अंतर हम पाते हैं, उसके पीछे कौन-से भौगोलिक, ऐतिहासिक और पर्यावरणीय कारक काम कर रहे थे।

साथ ही वे ऐतिहासिक विज्ञान (हिस्टोरिकल साइंसेस), मसलन जलवायु-विज्ञान, भूगर्भविज्ञान, परिस्थितिकी अध्ययन, खगोल-विज्ञान, इवोल्यूशनरी बायोलॉजी, जीवाश्म/पुराश्म विज्ञान (पेलियोंटोंलॉजी), और गैर-ऐतिहासिक विज्ञानों (नॉन हिस्टोरिकल साइंसेस) में अंतर को भी इस अंतिम अध्याय में रेखांकित करते हैं, उनके अनुसार यह अंतर इनमें इस्तेमाल होने वाली प्राविधि, कार्य-कारण संबंध, पूर्वानुमान की क्षमता और जटिलता का अंतर है। वे ऐतिहासिक विज्ञानों में प्रेक्षण, तुलनात्मक अध्ययन, और प्राकृतिक प्रयोगों (नेचुरल एक्सपेरिमेंट्स) की प्रक्रिया को उल्लेखनीय बताते हुए उन पर ज़ोर देते हैं। वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि ऐतिहासिक विज्ञान घटना के घटित होने के बाद ही उसकी व्याख्या (posteriori explanation) कर सकते हैं, इन विज्ञानों में घटना के घटित होने से पहले उसकी व्याख्या (a priori explanation) मुश्किल है।

 

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