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‘इंडियन रेलवे’ और ‘भारतीय रेल’ के बीच की खाई दिखाती है असली भारत की तस्वीर

भारतीय रेल में अगर आप सफर करते हैं, तो आपको इस देश की सड़ी-गली व्यवस्था का वीभत्स रूप अकसर देखने को मिल जाता है। इस देश को नज़दीक से जानने-पहचानने का सबसे महत्वपूर्ण ज़रिया,  ‘भारतीय रेल’ ही है। शायद इसलिए महात्मा गांधी ने 1915 में भारत को देखने और समझने के लिए भारतीय रेल का ही सहारा लिया था। वैसे आज़ादी की लड़ाई से लेकर सामाजिक लड़ाई तक में भारतीय रेल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतीय रेल, सामाजिक और राजनीतिक क्रांति का ज़बरदस्त ज़रिया था।

यह माना जाता है कि बहुत सारी सामाजिक बुराइयों को भारतीय रेल कम करने में सहायक साबित हुई थी। भारतीय समाज भले ही विभिन्न वर्णों एवं जातियों में विभाजित था लेकिन ट्रेन में सबको साथ बैठना ही पड़ता था। कोई अमीर हो या गरीब, ऊंची जाति का हो अथवा नीची जाति का, अछूत हो या महिला, सभी अंग्रेजों के लिए भारतीय रेल में बराबर थे। मतलब, भारतीय को ‘कुत्ते’ से अधिक कुछ भी नहीं समझा गया था। अंग्रेजों के लिए ‘भारतीय रेल’ नहीं बल्कि ‘इंडियन रेलवे’ था। ‘इंडियन रेलवे’ में भारतीयों का सफर करना मना था। अंग्रेजों लिए रेलवे, महज इस देश के प्राकृतिक सम्पदा को लूट कर ले जाने का माध्यम था।

यह ‘इंडियन रेलवे’ और ‘भारतीय रेल’ का विभाजन हिन्दुस्तानियों को बहुत खलता भी था। जहां एक ओर ‘इंडियन रेलवे’ सभी सुविधाओं से लैस था, वहीं दूसरी तरफ ‘भारतीय रेल’ में लोग गाय-भैंसों की तरह ठूस दिए जाते थे। जहां एक ओर ‘इंडियन रेलवे’ समय का पाबंद था, वही दूसरी तरफ ‘भारतीय रेल’ में समय की पाबन्दी जैसी कोई चीज़ नहीं थी। ‘भारतीय रेल’ किसी सुनसान जगह पर घंटो खड़ा रहता था ताकि ‘इंडियन रेलवे’ को पास कराया जा सके। यह सब हो रहा था क्योंकि अंग्रेज़, हिन्दुस्तानियों को नीचा दिखाना चाहते थे।

आज़ादी की लड़ाई, इस सपने के भी साथ लड़ा जा रहा था कि जब देश आज़ाद होगा तो ‘इंडियन रेलवे’ और ‘भारतीय रेल’ के बीच की खाई समाप्त हो जाएगी। हिन्दुस्तानी, इस नीचता के भाव से उबर जायेंगे। एक नई व्यवस्था बनेगी जिसमें ‘भारतीय रेल’ को घंटो खड़ा रहकर ‘इंडियन रेलवे’ को पास करते टकटकी लगाकर नहीं देखना पड़ेगा। भारतीयों के समय की भी कीमत बराबर होगी। उन्हें भारतीय होने पर गर्व होगा। हिंदुस्तान की आज़ादी के साथ ही सभी को ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ के सिद्धांत के साथ बराबर कर दिया गया था। भारतीय, आज़ादी की लड़ाई में किये हर बलिदान को सफल मानने लगे थे। अब फिर से सभी ‘भारतीय रेल’ में मूंछ तरेरते हुए इस विश्वास के साथ सफ़र शुरू करने लगे थे कि अब किसी गोरे से भद्दी गाली सुनाने का डर नहीं। लेकिन फिर से ‘भारतीय रेल’ किसी सुनसान जगह पर घंटो खड़ी थी और सनसनाती हुई ‘इंडियन रेलवे’ पास कर रही थी। अब लोगों को झटका लगा था कि सरदार भगत सिंह ने सही कहा था की आज़ादी के बाद शासन ‘भूरे लोगों’ द्वारा हो जायेगा, इसलिए लड़ाई समाजवाद के लिए लड़नी पड़ेगी।

आज़ादी के सत्तर साल का जश्न अभी-अभी ख़त्म हुआ है और भारत के रेलवे स्टेशन पर उद्घोषणा सुनते ही आपका दिल बैठ जाता है। हम सबको यह लगने लगता है कि हम कितने असहाय हैं, कितने बेबस हैं। किसी उद्घोषणा में यह कहा जाता है कि किसी जगह से आने वाली ट्रेन पैंतीस घंटे विलम्ब से चल रही है। जो ट्रेन पिछली रात को रवाना होने वाली थी, वो आज रात की रवानगी के लिए संभावित है। किसी प्लेटफॉर्म से हांफते हुए आकर, कोई कहता है कि वहां जाने वाली ट्रेन रद्द कर दी गयी है। बस सब तरफ अंधेरा सा छा जाता है। तभी प्लेटफॉर्म पर छुक-छुक करती ‘इंडियन रेलवे’ की लाल रंग में सरोबार, एक ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आकर लग जाती है।

इस देश का वह ‘बराबर नागरिक’ सोच में पड़ जाता है कि उसने भी तो पैसे देकर टिकट ख़रीदा है, फिर उसकी ट्रेन रद्द कैसे हो गयी है। उसे भी तो बहुत ज़रूरी काम था, अगर वो समय पर नहीं पहुंचा तो मालिक मज़दूरी काट लेगा, वो तो देहाड़ी मज़दूर है, रोज़ काम करना और उस मज़दूरी पर जीवन गुज़ारना ही उसकी नियति है। वो ये भी मानता है, कम पैसे होने की वजह से इसने उस ट्रेन का टिकट ख़रीदा है, जिसका भी नियत समय पर खुलना और पहुंचना तय है, टिकट पर ही तो लिखा है। यह अलग बात है इस ट्रेन को ज़्यादा समय लगता है, लेकिन उसकी ट्रेन का कैंसिल होना, इतने लम्बे घंटो का विलम्ब होना तो, कही से भी न्यायोचित नही है। लेकिन इस व्यक्ति को यह शायद पता नही कि वो आज़ाद भारत के ‘भारतीय रेल’ का वो यात्री है, जो आज भी महज़ एक संख्या है, ‘कैटल क्लास’ है, नागरिक नहीं।

किसी ‘इंडियन रेलवे’ में सफ़र करने वालों को शायद ये पता भी ना चले कि भारतीय रेल में सफ़र करने वाले यात्री नहीं बल्कि योद्धा होता है, जो अंत तक लड़ता है और कई बार शहीद भी हो जाता है। भारतीय रेल में आप वेटिंग टिकट लेकर भी चढ़ सकते हैं, कई बार बिना टिकट भी। पचहत्तर सीट वाली बोगी एक सौ पचहत्तर लोग होते हैं, वही दूसरी तरफ इंडियन रेलवे में आप किसी भी स्थिति में वेटिंग टिकट या बिना टिकट (टी टी को मैनेज करके) यात्रा नही कर सकते हैं। जहां कभी रेल समाज को एक जगह लाकर बिठाने का काम करता था वही आज फिर से भारत दो भागों विभाजित में दिख रहा है। एक वो भारत जो इंडियन रेलवे का ‘यात्री’ है और दूसरा भारतीय रेल का ‘योद्धा’ है।

बहरहाल, इस देश की सरकार को ये कब समझ आएगा कि यह देश है न कि किसी परचून की दुकान या फिर कोई मल्टी-नेशनल कंपनी जिसमें हर पैसे वालों को स्पेशल अटेन्सन और सुविधा दी जाती है। अगर किसी ‘भारतीय रेल’ के योद्धा को न्याय नहीं मिले तो क्यों वो इस परचून की दुकान अपना माने। तो क्यूं ना कोई कह दे कि ये आज़ादी झूठी है। इस योद्धा ने तो अंग्रेजों को मार भगाया था लेकिन अपने ही लोगों से कैसे लड़ेगा, इसलिए मूक-योद्धा बना हुआ है।

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