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कौन कहता है लड़कियों के साथ भेदभाव हो रहा है -3

नासिरूद्दीन:

21 वीं सदी में आज़ादी के 70 साल बाद भारत में लड़कियों और स्त्रियों के साथ भेदभाव/गैरबराबरी की बात  कुछ हजम नहीं हो रही है। है न। हम स्‍त्री जीवन के सफर के ज़रिए इसी बात की पड़ताल करने की कोशिश में जुटे हैं। स्‍त्री जीवन का मकसद क्‍या है। क्‍या यह मकसद हम मर्दों की जिंदगी से कुछ अलग है। इस कड़ी में हम देखते हैं, जीवन का एक और पड़ाव-स्‍त्री के लिए सबसे बड़ी आजीविका हमने क्‍या चुनी है। तीन कडि़यों के इस सफर में हमें वरिष्‍ठ पत्रकार नासिरूद्दीन ले जा रहे हैं। आज उस सफर का तीसरा और अंतिम पड़ाव है। अच्‍छा लगे तो अपने साथी मर्दों को भी जरूर बताइएगा…

बीवी की ख्‍वाहिश का ख्‍याल

इस मुल्क में प्रगतिशील लेखकों के आंदोलन की बुनियाद रखने वाले लोगों में एक थी रशीद जहाँ। यह बात 20वीं सदी के तीसरे दशक की है। उनकी एक कहानी है ‘पर्दे के पीछे’। ज़रा देखिए उस कहानी की महिला पात्र अपनी हालत कैसे बयान कर रही है-

”मियाँ, बच्चे, घर सब कुछ है। जवानी? कौन मुझे जवान कहेगा, सत्तर बरस की बुढि़या मालूम होती हूँ। रोज़-रोज़ की बीमारी, …हर साल बच्चे जनने। हाँ, मुझसे ज़्यादा कौन ख़ुशि़कस्मत होगा। …डॉक्टरनी ने मुझसे मेरी उम्र पूछी। मैंने कहा, बत्तीस साल। …मैंने कहा, मिस साहब आप मुस्कराती क्या हैं, आपको मालूम हो कि सतरह साल की उम्र में मेरी शादी हुई थी। और जब से हर साल मेरे यहाँ बच्चा होता है। सिवाय एक तो जब मेरे मियाँ साल भर को विलायत गये हुए थे और दूसरे जब मेरे-उनके लड़ाई हो गई थी।

…न रात देखें न दिन बस हर व़क्त बीवी चाहिए। और बीवी पर ही क्या है, इधर-उधर जाने में कौन से कम हैं

…धमकी यह है कि दूध पिलाओगी तो मैं और ब्याह कर लूँगा। मुझे हर वक्त औरत चाहिए। मैं इतना सबर नहीं कर सकता कि तुम बच्चों की टिल्लेनवीसी करो…

एक दूसरी पात्र कहती है- .खुदा ऐसे मर्दों से बचाये। जानवर भी तो कुछ ख़ौफ़ करते हैं। यह तो जानवरों से भी बदतर हो गये। ऐसे मर्दों के पाले तो कोई न पड़े। …”

यह बात एक रईस घर की है। क्या इसका मतलब है कि यह बाकी महिलाओं पर लागू नहीं होता और आज की हिन्दू-मुसलमान किसी स्त्री पर लागू नहीं होगा? क्यों महाशय? लेकिन सवाल तो यहाँ भी उठ ही जा रहे हैं महाशय-

महाशय, जवाब दीजिए न। इसका जवाब नहीं सूझ रहा? तो ऐसा कीजिए किसी अनुभवी साथी या मर्द रिश्तेदार से पूछ डालिए न। क्या? मुझे नहीं बताएँगे? कोई बात नहीं, ख़ुद को ही जवाब ही दे दीजिए।

लड़कियों की एकमात्र आजीविका

चलिए एक और चीज़ पढ़ते हैं। महादेवी वर्मा का नाम आपने सुना होगा और स्कूल में इनकी कविताएँ भी पढ़ी होंगी। सन् 1942 में इनकी एक किताब आई ‘शृंखला की कडि़याँ’। अभी आज़ादी नहीं मिली थी और आज़ादी के लिए महिला-पुरुष, लड़के-लड़कियाँ सभी मिलकर लड़ रहे थे। सन् 1942 में ही अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था। ज़ाहिर है, आज़ादी के बाद नए मुल़्क के लिए ढेरों ख़वाब भी पल रहे होंगे। इस ख़वाब में लड़कियों के भी ख़्वाब होंगे। ख़ैर… महादेवी जी की इस पुस्तक में शामिल एक लेख के चंद अंश देखिए-

”… (स्त्री के) जीवन का प्रथम लक्ष्य पत्नीत्व और अंतिम मातृत्व समझा जाता रहा, अत: उसके जीवन का एक ही मार्ग और आजीविका का एक ही साधन निश्चित था। यदि हम कटु सत्य सह सकें तो लज्जा के साथ स्वीकार करना होगा कि समाज ने स्त्री को जीविकोपार्जन का साधन निकृष्टतम दिया है। उसे पुरुष के वैभव की प्रदर्शनी तथा मनोरंजन का साधन बनकर ही जीना पड़ता है, केवल व्यक्ति और नागरिक के रूप में उसके जीवन का कोई मूल्य नहीं आँका जाता।…

जैसे ही कन्या का जन्म हुआ, माता-पिता का ध्यान सबसे पहले उसके विवाह की कठिनाइयों की ओर गया। …

… स्त्री के विकास की चरमसीमा उसके मातृत्व में हो सकती है, परन्तु यह कर्तव्य उसे अपनी मानसिक तथा शारीरिक शक्तियों को तोल कर स्वेच्छा से स्वीकार करना चाहिए, परवश होकर नहीं। कोई अन्य मार्ग न होने पर बाध्य होकर जो स्वीकार किया जाता है, वह कर्तव्य नहीं कहा जा सकता। यदि उनके जन्म के साथ विवाह की चिंता न कर उनके विकास के साधनों की चिंता की जावे, उनके लिए रुचि के अनुसार कला, उद्योग-धंधे तथा शिक्षा के द्वार खुले हों, जो उन्हें स्वावलम्बी बना सकें और तब अपनी शक्ति और इच्छा को समझकर यदि वे जीवनसंगी चुन सकें तो विवाह उनके लिए तीर्थ होगा, जहाँ वे अपनी संकीर्णता मिटा सकेंगी, व्यक्तिगत स्वार्थ को बहा सकेंगी और उनके जीवन उज्जवल से उज्जवलतर हो सकेगा। इस समय उनके त्याग पर अभिमान करना वैसा ही उपहासस्पद है, जैसा चिडि़या को पिंजरे में बंद करके उसके, परवशता से स्वीकृत जीवन-उत्सर्ग का गुणगान।…

… (पति होने के इच्छुक युवक) प्राय: पत्नी के भरण-पोषण का भार ग्रहण करने के पहले भावी श्वसुर से कन्या को जन्म देने का भारी से भारी कर वसूल करना चाहते हैं।… सभी अपने आपको ऊँची से ऊँची बोली के लिए  नीलाम चढ़ाए हुए हैं। प्रश्न उठता है कि क्या यह क्रय-विक्रय, यह व्यवसाय स्त्री के जीवन का पवित्रतम बंधन कहा जा सकेगा? क्या इन्हीं पुरुषार्थ और पराक्रमहीन परावलम्बी पतियों से वह सौभाग्यवती बन सकेगी?…

… हम स्त्रियों के विवाह की चिंता इसलिए नहीं करते कि देश या जाति में सुयोग्य माताओं और पत्नियों का अभाव हो जाएगा, वरन इसलिए कि उनकी आजीविका का हम और कोई सुलभ साधन नहीं सोच पाते।…

… भारतीय पुरुष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंग बिरंगे पक्षी पाल लेता है, उपयोग  के लिए गाय या घोड़ा पाल लेता है, उसी प्रकार वह एक स्त्री को भी पालता है तथा अपने पालित पशु-पक्षियों के समान ही वह उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है। …

प्रत्येक भारतीय पुरुष चाहे वह जितना सुशिक्षित हो, अपने पुराने संस्कारों से इतना दूर नहीं हो सका है कि अपनी पत्नी को अपनी प्रदर्शनी न समझे। उसकी विद्या, उसकी बुद्धि, उसका कला कौशल और उसका सब उसकी आत्मश्लाघा के साधन मात्र हैं। जब कभी वह सजीव प्रदर्शन की प्रतिमा अपना भिन्न व्यक्तित्व व्यक्त करना चाहती है, अपनी भिन्न रुचि या भिन्न विचार प्रकट करती है, तो वह पहले क्षुब्ध, फिर असंतुष्ट हुए बिना नहीं रहता।”

ये सत्तर साल पहले की बात है। इस बीच आज़ादी मिली। नया मुल़्क अस्तित्व में आया। नया विधान बना। संविधान ने गारंटी की- किसी के साथ इस आधार पर भेदभाव नहीं होगा कि वह लड़का है या लड़की। … इसके बाद पाँच पीढि़याँ तो निकल ही गईं होंगी। माना तो यही जाता है कि हर अगली पीढ़ी, अपनी पिछली पीढ़ी से सोच-विचार में आगे रहती है। नई पीढ़ी कई पुराने मूल्य छोड़ती और तोड़ती हैं। नए मूल्य गढ़ती है। है न।

हालाँकि यहाँ भी कुछ सवाल ज़हन में उठ रहे हैं। जैसे-

जनाब बोलिए न। ख़ुद को तो जवाब देंगे? अपने को ही दीजिए।

हमारा सुंदर संसार

महाशय अगर आपका जवाब है कि आज की तारीख में ये सारी बातें और सवाल, बेमानी और ब़कवास हैं तो य़कीन जानिए हमने आज़ादी के बाद बहुत सुंदर संसार रचा है। दुनिया के सुंदरतम संसारों में एक। है न!

मगर ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है महाशय तो हमें सोचना होगा। उन सवालों के जवाब जो आपने ख़ुद को दिए, उन्हें सबके साथ खंगालना होगा। सवाल है कि लड़कियाँ अगर हर जगह पाँव जमा रही हैं तो क्या समाज यानी मर्दिया समाज लड़कियों के बारे में अपने नज़रिए में बदलाव लाया है।

असल में तो हालात तो तब बदलेंगे न महाशय जब नज़रिए में बदलाव आएगा। यह तो ऊपरी बदलाव है और महाशय। यह बदलाव भी उतना है जितना मर्दिया निज़ाम को भाता है।

अब तो आप जानते ही हैं जनाब कि लड़कियों को बराबरी की जद्दोजेहद कब से चल रही। वैसे आपको क्या, ढेरों लोगों को लगता है कि यह हवा कहीं पश्चिम देश की है। यानी यह ख़्याल पश्चिम मुल़्क से आया कि लड़कियाँ भी लड़कों की तरह ही इंसान हैं और बतौर इंसान उसे वे सारे ह़क मिलने चाहिए जो लड़कों को मिलते हैं। लेकिन ध्यान रखिएगा कि न तो बुद्ध की थेरियाँ, न ही बिहार और यूपी के लोकगीतों की रचियता, न ही सीमन्तनी उपदेश की लेखिका और न भारती, महादेवी पश्चिमी मुल्क के बाशिंदे हैं।

(नासिरूद्दीन ने ‘लड़कों की खुशहाली का शर्तिया नुस्‍खा’ नाम की एक सीरिज लिखी है। इसे सीएचएसजे ने प्रका‍शित किया है।)

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