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चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई

के.पी. सिंह:

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने अंकल अमर सिंह को लेकर कहा था कि परिवार में और पार्टी में स्थितियां तब बिगड़ीं जब बाहरी लोगों के कहने से फैसले करने का प्रयास होने लगा। बाहरी को लेकर उनका संकेत कोई बहुत गूढ़ नहीं था और था भी तो जल्द ही प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने स्पष्ट कर दिया कि अमर सिंह ही वह बाहरी व्यक्ति हैं जिनकी वजह से परिवार और पार्टी में इतना ज्यादा कलह भड़का है। लेकिन इस बीच ऐसा बहुत कुछ हो चुका था जिसका अंदाज़ा आज तक नहीं लगाया जा सका। बहरहाल सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने इसी तकरार के बीच अमर सिंह की समाजवादी पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव पद पर नियुक्ति का हस्तलिखित लेटर जारी कर दिया। जिसका साफ आशय था कि सपा सुप्रीमो की निगाह में अमर सिंह बाहरी नहीं हैं। इससे एक तरह से अमर सिंह के सामने रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव दोनों को मुलायम सिंह ने नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

अमर सिंह का कद निश्चित रूप से इससे पार्टी में बढ़ा था और अनुमान किया गया था कि इसके बाद अमर सिंह का मनोबल बढ़ने का नतीजा पार्टी मामलों में उनकी और सक्रियता बढ़ जाने के रूप में सामने आएगा, लेकिन एक ओर जहां समाजवादी पार्टी में पारिवारिक शीतयुद्ध अब और अधिक प्रचंड होकर खुले युद्ध का रूप लेने की इंतजा पर पहुंच रहा है वहीं अमर सिंह अप्रत्याशित तौर पर अधिक सक्रिय होने की बजाय नेपथ्य में चले गए हैं। अगर उन्हें हाशिये पर किसी और वजह से ढकेला गया है या वे स्वयं ही सैफई परिवार की जलती आग में अपना दामन झुलसने से बचाने के लिए एक किनारे रहने की सतर्कता बरत रहे हैं। यह अभी स्पष्ट नहीं है।

समाजवादी पार्टी की अंतर्कलह में परिवार के अंदर ध्रुवीकरण स्पष्ट है लेकिन फिर भी बहुत सारी गुत्थियां ऐसी हैं जो अबूझ पहेली बन गई हैं। मामला अकेला अमर सिंह के परिदृश्य से अंतर्ध्यान हो जाने का नहीं है। कौमी एकता दल(कौएद) के मामले में भी विचित्र स्थिति बनी हुई है। शिवपाल सिंह यादव ने मुख्तार अंसारी का संदर्भ आने पर एक दिन अचानक घोषणा की कि कौएद का सपा में विलय हो चुका है क्योंकि नेताजी ने यह फैसला किया है। उनके इस बयान में स्वतः शामिल था कि कौएद के विलय का मतलब अपनेआप में मुख्तार अंसारी का भी समाजवादी पार्टी का अंग बन जाना है। साथ ही उन्होंने यह इशारा देने में भी किसी किंतु-परंतु की कोई गुंजाइश नहीं रखी कि उनके बयान का मतलब आने वाले विधानसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी को समाजवादी पार्टी द्वारा अपना प्रत्याशी बनाना भी है, लेकिन इसके बाद शिवपाल सिंह को अपने इस मंसूबे से मुकरना पड़ा और यह सफाई देनी पड़ी कि कौएद  के सपा में विलय का मतलब सपा द्वारा मुख्तार अंसारी को अपनाया जाना नहीं है। मुख्तार अंसारी निर्दलीय विधायक चुने गए थे और अगर उनकी इच्छा होगी तो अगला चुनाव उन्हें बतौर निर्दलीय हैसियत ही लड़ना पड़ेगा।

आखिर मुलायम सिंह का आशीर्वाद प्राप्त होते हुए भी इस मामले में शिवपाल सिंह यादव बैकफुट पर जाने को मजबूर क्यों हुए, यह वास्तव में एक पहेली है। मुलायम सिंह समाजवादी पार्टी और सत्ता परिवार के मुखिया कल भी थे और घोषित रूप से आज भी सभी पक्ष उन्हीं को मुखिया मान रहे हैं। परिवार का कोई भी सदस्य हो उसकी जो राजनीतिक हैसियत है वह भी मुलायम सिंह की ही देन है और परिवार को वे अपनी एक शक्ति मानते रहे हैं, इसलिए उन्होंने परिवार में कलह को पैदा तक न होने देने की सतर्कता हमेशा दिखाई है। आज भी वे परिवार के लिए अपने इस प्रतिबद्धता से न मुकरने का दृढ़ निश्चय दिखा रहे हैं, लेकिन आज हकीकत कुछ बदली हुई है। मुलायम सिंह सत्ता परिवार के सर्वमान्य मुखिया के रोल से हटकर खुद एक पार्टी बन गए हैं। शिवपाल सिंह की पक्षधरता में वे इस सीमा तक आगे बढ़ चुके हैं कि उन्हें पुत्रमोह की भी कोई परवाह नहीं रह गई है।

[envoke_twitter_link]मुलायम सिंह सार्वजनिक रूप से अखिलेश यादव को अपमानित करने में भी अब गुरेज नहीं कर रहे।[/envoke_twitter_link] लोक भवन के लोकार्पण के अवसर पर उनकी यह भावना खुलकर सामने आ गई थी जिससे पार्टी के नेताओं से लेकर अधिकारी तक स्तब्ध रह गए थे। अखिलेश यादव के नये घर में प्रवेश के समय भी वे शिवपाल के साथ ही आए। अखिलेश यादव के निष्कासित साथियों की पार्टी में वापसी के लिए हस्तक्षेप करना तो दूर उन्होंने तो रामगोपाल के भांजे अरविंद यादव तक के लिए शिवपाल को टोकने का कदम अभी तक नहीं उठाया है। लोहिया जयंती पर हुए कार्यक्रम में इस खींचतान पर अखिलेश ने भी जवाबी मुद्रा साध ली। जब वे कार्यक्रम में मुलायम सिंह के आने के पहले ही वहां से चले गए और उन्होंने अपने चाचा शिवपाल सिंह तो बात तक नहीं की।

मुलायम सिंह के एकतरफा रवैये के बाद रामगोपाल और अखिलेश खुलकर उनके खिलाफ खड़े होने से भले ही परहेज़ कर रहे हों, लेकिन जिस तरह से दोनों अपनी चालें आगे बढ़ा रहे हैं उससे यह साफ है कि परिवार के मुखिया ने अपने प्रति उनकी आस्था को खो दिया है। अखिलेश और रामगोपाल इटावा में 5 घंटे तक एक साथ रहे। मुलायम सिंह यादव और शिवपाल के समानांतर कार्य करने की झलक देने वाली यह शुरुआत का तारतम्य अब लगातार जारी है। लगता ऐसा है कि शायद सपा मुखिया भी बढ़ते कलह के बीच अपने आपको किंकर्तव्यविमूढ़ महसूस करने के लिए मजबूर हो गए हों।

परिवार में सीधा टकराव इस स्तर तक पहुंच चुका है कि अब किसी को बाहर से उसे भड़काने के लिए घी डालने की जरूरत नहीं रह गई इसलिए अमर सिंह जैसों की तटस्थता होशियारी भी कही जाएगी। अमर सिंह अपनी गिरफ्त में शिवपाल सिंह यादव को लिए हुए थे, लेकिन जनेश्वर, लोहिया और जेपी की स्मृतियों से जुड़े सार्वजनिक कार्यक्रमों की बात तो दूर उनकी परछाई तक शिवपाल यादव के इटावा में गृह प्रवेश में भी देखने को नहीं मिली। ऐसा इसलिए हुआ कि उन्हें बुलाया ही नहीं गया था या वे खुद भी मुलायम परिवार में अपने नजदीकियों तक के निजी कार्यक्रमों से परहेज कर रहे हैं। इस सवाल का उत्तर बताना भी आसान नहीं है। अमर सिंह तो क्या आजम खां तक को मुलायम परिवार की संगीन हालत की वजह से सांप सूंघ गया है। एक ओर यह माना जा रहा है कि आज भी समाजवादी पार्टी का जो कुछ वजूद और वकार है वह नेताजी की बदौलत है तो दूसरी ओर गुणा-भाग लगाने वालों के मन में यह भी है कि पार्टी के भविष्य की कुंजी तो अखिलेश के हवाले हो चुकी है और इस कारण उनकी निगाह से उतरने का मतलब अपने भविष्य को चौपट करना है।

इस अजाब में पूरी समाजवादी पार्टी लस्त-पस्त होती जा रही है। परिवार में बढ़ते अलगाव के बीच अखिलेश का यह बयान भी लोगों के लिए उनके बीजक का अर्थ निकालने की चुनौती बन गया है कि जीतता वही है जिसके हाथ में तुरुप का इक्का होता है। समाजवादी पार्टी के लोग यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा कौन सा तुरुप का पत्ता अखिलेश यादव के पास है जिसे वह अपने पिता और चाचा के चक्रव्यूह की काट के लिए ब्रह्मास्त्र के रूप में इस्तेमाल करने का इरादा रखते हैं। क्या अखिलेश 1989 के जनता दल के चुनाव में पेश आए घटनाक्रम जैसा इतिहास दोहराना चाहते हैं जब बिहार में मुलायम, चंद्रशेखर और लालू की जुगलबंदी की वजह से अपराधियों को टिकट बंट जाने पर वीपी सिंह ने वहां पहुंचकर सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि जहां उनकी पार्टी ने अपराधियों को उम्मीदवार बनाया है वहां जनता उन्हें पसंद करने के बावजूद उनकी पार्टी के उम्मीदवार को वोट न दे। इस संभावना पर नजर गड़ाए पार्टी के नेता यह मंथन कर रहे हैं कि अगर ऐसे धर्मसंकट का मौका आ जाए तो उन्हें कैसी भूमिका निभानी पड़ेगी।

खुद अखिलेश यादव ने भी कहा है कि अभी कुछ दिनों तक तो वे प्रदेश में नंबर एक पर थे लेकिन अब समाजवादी पार्टी किस नंबर पर है, यह नहीं कह सकते। उनके इस बयान के पहले कानपुर में मेट्रो के शिलान्यास के समय वेंकैया नायडू कह गए थे कि केंद्र में मोदी और प्रदेश में अखिलेश मिलकर यूपी को आगे बढ़ाएंगे। वेंकैया नायडू का यह बयान केवल मौके की शोभा के लिए कही गई बात थी या इसके गहरे निहितार्थ हैं यह अभी कोई समझ नहीं पा रहा। इस बीच इंडिया टुडे का सर्वे सामने आ गया है जिसमें कहा गया है कि यूपी में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आ रही है लेकिन उसे स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा। संयोग यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने यूपी में मुख्यमंत्री पद के लिए किसी चेहरे को पेश न करने का फैसला लिया है और गठबंधन के मामले में उसका हालिया इतिहास बड़ा उदार रहा है, जहां बहुत कम सीटें होते हुए भी उसने मायावती को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकारा है तो अखिलेश तो मायावती की तुलना में उसके लिए सुविधाजनक ही हैं। उनकी खातिर अपनी दावेदारी का त्याग करने में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद भाजपा को क्या ऐतराज हो सकता है।

राष्ट्रवाद के भाजपा समर्थकों के फेसबुकिया कोहराम के बावजूद इस पार्टी का नेतृत्व यह जानता है कि उसे न तो अभी तक देश के बहुमत का समर्थन मिल पाया है और न ही बहुसंख्या में जनमत का समर्थन उसके पक्ष में कभी हो पाएगा इसलिए एनडीए के दौर की तरह ही, भाजपा ने देश में चक्रवर्ती शासन की अपनी महत्वाकांक्षा को स्थगित करके स्थितियों से समझौता करने की ठान ली है। जिसमें उसे न केवल तमिलनाडु में जयललिता की पार्टी का शासन स्वीकार है बल्कि उसने मानसिक रूप से तथाकथित तीसरी शक्ति के साथ भी नया समायोजन बना लेने की मानसिक तैयारी पूरी कर ली है जिसमें उसे बिहार में नीतीश स्वीकार हो सकते हैं तो उत्तर प्रदेश में अखिलेश।

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