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अति राष्ट्रवादी भारतीय मीडिया का शिकार पाकिस्तानी कलाकार

हरबंश सिंह:

भारतीय सर्जिकल ऑपरेशन को पूरी तरह से भुनाने के बाद आज कल भारतीय मीडिया में पाकिस्तानी कलाकारों का मुद्दा विशेष रूप से छाया हुआ है और इसबार सवालों के कटघरे में है करण जौहर की फिल्म ऐ दिल है मुश्किल । पूरा विवाद फिल्म में पाकिस्तानी एक्टर फवाद खान के रोल को लेकर है। इस मुद्दे पर हो रही राजनीती को अपने फायदे के लिए भुनाने में भारतीय मीडिया कोई कसर नहीं छोड़ रहा, मानो देशभक्ति और देशद्रोह की नयी परिभाषा तय की जा रही है और इस फिल्म को भारत में देखना और नहीं देखना एक तरह से राष्ट्रप्रेम का सवाल बन गया हो।  तो क्या इस फिल्म की रिलीज़ के बाद इसकी लोकप्रियता साबित करेगी हमारी देशभक्ति ?  अगर इस फिल्म को हमारे देश में लोकप्रियता मिली तो हमारे देश में देशभक्त से ज़्यादा देशद्रोही हो जाएंगे?

पाकिस्तानी खिलाड़ियों और कलाकारों का विरोध पहले भी होते रहा है, मसलन 2008 में मुंबई में हुए हमले के बाद पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों को आईपीएल (IPL) में खेलने से मना कर दिया गया था, उससे पहले 1 अप्रैल 2001, भारतीय सरकार ने भारतीय क्रिकेट टीम को शारजाह में खेलने से रोक दिया। आइये अब पूरे मामले को एक आम भारतीय, एक फिल्म निर्माता और एक कलाकार के रूप में समझने की कोशिश करते हैं।

कलाकार और उसकी कला कई सीमाओं को पार कर जाती है, लता मंगेशकर को पूरा पाकिस्तान उतना ही पसंद करता है जितना भारत उसी तरह से नुसरत फतह अली खान को भारत में भी उसी तरह से पसंद किया जाता है। कई भारतीय कलाकार पाकिस्तानी फिल्मो में जाने माने चेहरे रहे हैं जैसे नसीरुद्दीन शाह (खुदा के लिये) और ओम पुरी (ऐक्टर इन लॉ)। सनद रहे कि मीडिया में हो रहे हो हल्ले की वजह से ही धोनी पर बने फिल्म से भी फवाद खान का रोल काट दिया गया। जब फवाद खान ने खुदा के लिए में काम किया और फिल्म भारत में भी रिलीज़ हुई तब शायद ही किसी मीडिया हाऊस ने ये कहा कि एक पाकिस्तानी ने अच्छा काम किया और घर्म के कट्टरवाद के खिलाफ संदेश दिया, लेकिन इस मामले में राष्ट्रभक्ति के नाम पर ज़रूर लोगों को प्रभावित करने का काम किया।

अब बात करते हैं एक फिल्म निर्माता के नज़रिये से जो फिल्म बनाता है। व्यापारिक फिल्में मुनाफे के दृष्टिकोण से ही बनाई जाती है। करण जौहर ने  सबसे पहले अपनी फिल्म “कुछ कुछ होता है” को इंटरनैशनल मार्केट में उतारा था, जिसे काफी सराहना मिली थी इसके बाद और कई फिल्म निर्माताओं ने भी इस चलन को अपनाया। जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से मोटी कमाई का सिलसिला शुरु हुआ तो ये एक नया प्रचलन बन गया। इसी सिलसिले में पाकिस्तान में भी भारतीय फिल्मों को प्रदर्शित किया जाने लगा। पाकिस्तानी कलाकार का फिल्म में होना उस हर पाकिस्तानी दर्शक की दिलचस्पी बढ़ा देता है जो दुनिया के अलग अलग कोने में हिन्दी सिनेमा का इंतज़ार करता है।

और ऐसे बढ़ता है फिल्म का बाज़ार, लेकिन इस तरह के विवाद के बाद और फिल्म के नफे नुकसान के चलते कई समझौते होते हैं जैसे कि करण जौहर ने अपनी अगली फिल्मों में किसी पाकिस्तानी कलाकार के साथ काम ना करने का भरोसा दिया है। इसी के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस द्वारा बुलाइ गयी बैठक में करण जौहर,  मुकेश भट्ट और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे शामिल हुए और शायद जबरन वसूली को एक सभ्य रंग देने का काम किया। मुकेश भट्ट ने कहा कि फिल्म पर विरोध ख़त्म हो गया है और करण जौहर आर्मी वेलफेयर फंड में कुछ राशि जमा करायेंगे। बाद में राज ठाकरे ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि अब से हर वो फिल्म निर्माता जो पाकिस्तानी कलाकार के साथ फिल्म बनाएगा/बनाएगी  उसे पहले भारतीय आर्मी फंड में 5 करोड़ रुपये दान देने होंगे। क्या ये भारतीय नागरिक की अभिव्यक्ति की आज़ादी को ठेस नहीं है जो उसे संविधान द्वारा दिया गया  है?

हम में से बहुत इस बहस को दर्शक बनकर देख तो रहे हैं लेकिन खुलकर इसपर अपनी राय नहीं रखते हैं, शायद ये राष्ट्रवाद का नया दौर है।अंत में यही कहूंगा की भारतीय फिल्में कही ना कही हमारी अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रतीक है और इन्हें राजनीति मकसद से उपजे विवादों से दूर रखना चाहिए और भारतीय दर्शक पे इसका फैसला छोड़ देना चाहिये कि कितना सही है किसी पाकिस्तानी कलाकार को भारतीय फिल्म में लेना या ना लेना।

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