एक लंबे अरसे से कुछ सवाल मुझे परेशान कर रहे हैं। यकीन मानिये मैं नहीं पूछती आपसे ये सवाल अगर मेरी बेचैनी अपने चरम पर न होती।
पहला सवाल –
ऐसा क्यूँ होता है कि जब भी लड़के का जन्म होता है तो लोगों के चेहरे ख़ुशी से खिल उठते हैं और लड़की के होते ही लोग मायूस हो जाते हैं। नाते-रिश्तेदार भी ये कहते नहीं थकते कि- देखो तो बेचारे के फिर छोरी हुयी। लड़के की चाहत में ही लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या दिन-ब -दिन कम होती जा रही है। सेंसेस 2011 के अनुसार प्रति 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या 940 है। चौंकाने वाली बात ये है कि जब देश आज़ाद हुआ था और जिस वक़्त देश में भुखमरी, गरीबी और बेरोज़गारी चरम पर थी उस वक़्त ये अनुपात बराबर था।
आज जब हम बेहतर स्थिति में हैं और विकासशील देशों में गिने जाते है, शिक्षा का स्तर बढ़ा है, रोज़गार की संभावनाएं बढ़ी है, लड़कियां कई क्षेत्रों में आगे आ रही हैं तो ये सेक्स रेशियो बढ़ने के बजाये और घटा है। केरल और पुद्दुचेरी को छोड़ सभी राज्यों में लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में कम है और हरियाणा की स्थिति तो और भी खराब है, वहां लोग बिहार और बंगाल जैसे राज्यों से लडकियां पैसे देकर ला रहे हैं, ऐसी लड़कियों को हरियाणा में “मोलकी” यानी मोल चुकाकर या पैसों में लायी हुयी दुल्हन के नाम से जाना जाता है। आखिरकार लड़के लड़की में ऐसा भेद-भाव क्यों ?
दूसरा सवाल –
यहां मत जाओ, ये मत करो, वो मत पहनो, ज़ोर से न हंसो, ज़्यादा सवाल जवाब न करो, लड़कों की बराबरी न करो, देर रात तक घर से बाहर न रहा करो, नज़र नीची करके के चला करो, धार्मिक बनो, सहनशीलता औरत का गहना है, उच्छश्रृंखल लड़कियों को समाज अच्छी नज़रों से नहीं देखता, नौकरी करनी भी हो तो 10 से 5 की करो वो भी टीचिंग या बैंक की आदि। ऐसी तमाम हिदायतें हमें होश संभालते ही मिलने लगती हैं। सारी बंदिशें हम पर ही क्यों?
तीसरा सवाल –
क्यों हमें बचपन से ही खेलने के लिए गुड्डे -गुड़िया और किचन सेट दिए जाते हैं, जबकि लड़कों को बैट-बॉल और फुटबॉल। लड़कियां फ़ुटबाल और क्रिकेट क्यों नहीं खेल सकती? अगर लड़कियों को भी स्पोर्ट्स में लड़कों की तरह मौका दिया जाए तो पी.वी. सिंधु, साक्षी मलिक और दीपा करमाकर जैसी कई लड़कियां ओलंपिक जैसे खेलों में अपने देश का नाम रौशन कर सकती हैं। एक प्रसिद्ध फ्रेंच लेखिका सिमोन द बोउआर ने अपनी एक प्रसिद्ध किताब सेकंड सेक्स में कहा है कि, “औरतें पैदा नहीं होती बनायी जाती हैं।” हमारा ये पितृसत्तात्मक समाज बचपन से ही लड़कियों को अलग तरह की परवरिश देता है। ऐसी परवरिश जहां लड़कियों को धैर्य रखने के नाम पर मन मारना, धीरे बोलना, चुप रहना और सहना सिखाया जाता है। उसकी ज़िन्दगी के फैसले कोई और लेता है वो नहीं। आखिर क्यों औरत अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से नहीं जी सकती?
चौथा सवाल-
जब-तब खबरिया चैनलों और अख़बारों में छोटी-छोटी बच्चियों से लेकर सत्तर साल की बूढ़ी महिला से बलात्कार की घटनाएं देखने सुनने को मिलती हैं। कई ऐसे भी मामले सामने आये हैं जहां किसी महिला के परिवार वालों से बदला लेने के लिए उसे बलात्कार का शिकार बनाया गया। जो बलात्कारी होता है वो तो बच कर निकल जाता है लेकिन जो महिला या लड़की बलात्कार का शिकार होती है हम उल्टा उसके ही चाल-चलन में खोट निकलना शुरू कर देते हैं। सवालों के कटघरे में पीड़ित को ही खड़ा किया जाता है। शारीरिक बलात्कार से भी ज़्यादा दर्दनाक होता है मानसिक बलात्कार जो हमारा समाज करता है उस पीड़िता का। आखिर दोषी कौन बलात्कारी या बलात्कार पीड़िता? अगर बलात्कारी तो फिर उसको सज़ा देने के बजाये पीड़िता को क्यों परेशान किया जाता है?
पांचवां सवाल –
आपकी नज़र में एक अच्छी लड़की की परिभाषा क्या है? वो जो कभी ऊँची आवाज़ में बात न करे, हर ज़ुल्म चुपचाप सहे और उफ्फ तक न करे, जो सर से लेकर पांव तक कपड़ो से ढकी रहे, जो लड़कों से दोस्ती न करे, जो सबका कहना माने, जिसका कोई बॉयफ्रेंड ना हो। लोग कहते हैं औरतों को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए। आखिर क्या है ये मर्यादा, और इस मर्यादा को तय कौन करेगा। अगर महिलाओं के लिए ये मर्यादा पुरुषों ने तय की है तो क्या ये सब तय करने से पहले महिलाओं से सलाह-मशविरा किया गया या फिर इन्हें ज़बरदस्ती उन पर थोपा गया है।
लड़कियां अपने ही घर में परायी क्यों हैं क्यों हम उन्हें पराया धन मानते हैं? आज भी हम इस संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित है कि लड़कियों को तो पराये घर जाना है उतना पढ़ा लिखा दो जिससे उसको एक अच्छा घर और वर मिल जाए। ज़्यादा पढ़ी लिखी लड़कियों का दिमाग सातवें आसमान पर होता है, उनको बाहर की ऐसी हवा लगती है की घरबार सब चौपट हो जाता है। घर पर ध्यान ही नहीं देती। जबकि एक औरत अगर बाहर भी काम करती है तो उसको अपने बच्चों और परिवार की उतनी ही चिंता रहती है बल्कि उसकी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है वो घर का भी सारा काम व्यवस्थित करके निकलती है और ऑफिस में भी उतनी ही मेहनत करती है। ऑफिस में होते हुए भी उसको ये चिंता सताती है की पता नहीं मेरे बच्चे ने ढंग से खाना खाया होगा या नहीं। कहां है वो अपनी ज़िम्मेदारियों से बेखबर? उसकी इन ज़िम्मेदारियों में आप उसका कितना साथ देते हैं? और क्या परिवार की सारी ज़िम्मेदारी उसकी ही है?
जब तक औरतें अपने फैसले खुद लेने में सक्षम नहीं होती, वो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बनती, जब तक उन्हें प्रॉपर्टी या महज़ देह के रूप में देखा जायेगा इंसान के रूप में नहीं। जब तक औरतों को पुरुषों से कमतर आंका जायेगा और पुरुषों से ज़्यादा काम करने पर भी कम मेहनताना दिया जायेगा, तब तक मर्द और औरत के रिश्ते बराबरी के नहीं हो सकते और इसकी शुरुआत हमें अपने घर और आसपास ही करनी होगी।