04 अक्टूबर, दोपहर का वक्त, इंदौर का आनंद मोहन माथुर सभागार।
अचानक 10-12 लोग भारत माता के जयकारे लगाते हुए घुसते हैं। इनके हाथों में तिरंगा झंडा है। वो सभागार के मंच की ओर बढ़ते हैं। हॉल में बैठे लोग संस्कृतिकर्मी हैं। इसलिए उन्हें लगता है कि यह कोई नाटक का हिस्सा है। नारे लगा रहे युवकों ने मंच पर मौजूद एक शख्स से माइक छीना। एलान किया कि आप सब अब हमारे साथ नारे लगाइए। जब तक नारे नहीं लगाएंगे, हम यहां से नहीं जाएंगे। क्या आप कन्हैया के समर्थक हैं? तब हॉल में बैठे लोगों को समझ में आया कि कुछ गड़बड़ है। यह हकीकत का नाटक है। लोग आगे बढ़ें। कुछ भगत सिंह का सबसे प्यारा नारा ‘इंकलाब जिंदाबाद’ लगाने लगे। फिर किसी तरह इन युवकों को बाहर किया गया। इन्होंने बाहर पथराव किया। एक शख्स बुरी तरह घायल हुआ। अखबारों में छपी खबरों से पता चलता है कि ये लोग भारत स्वाभिमान मंच/संगठन और हिन्दू जागरण मंच से जुड़े हैं।
हुआ यूं कि पिछले दिनों इंदौर में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव और 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन था। तीन दिनों के इस समागम में भाग लेने के लिए 22 राज्यों के लगभग 700 से ज्यादा संस्कृतिर्मी इकट्ठा हुए। इप्टा मानती है और एलान करती है कि उसकी नायक जनता है। इसलिए इप्टा ने इस सम्मेलन का केन्द्रीय विचार ‘सबके लिए एक सुंदर दुनिया’ रखा। उसके सारे कार्यक्रम की रूपरेखा इसी सुंदर दुनिया की चाह के इर्द-गिर्द रची गई थी।
सम्मेलन ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की छाया में हो रही थी। पूरे मुल्क में इसके बारे में गर्मागर्म चर्चा हो रही थी। न्यूज़ चैनल युद्ध भूमि बने थे/हैं। इसलिए इसका ज़िक्र न आए, यह मुमकिन नहीं था। ज़िक्र हुआ, इस पर बात हुई। यह भी हुआ कि दोनों मुल्कों के बीच तनाव खत्म करने के लिए अमन की बात की जाए। जंग से हल नहीं है। जंग करना आसान है, अमन लाना बहुत मुश्किल। यह चर्चा सबसे पहले संगठन के वरिष्ठ कार्यकर्ता और मशहूर संस्कृतिकर्मी फिल्मकार एमएस सथ्यू ने की। इप्टा के लोग जन सरोकार के नज़रिए से इस मुद्दे को देख रहे थे। स्थानीय मीडिया के एक हिस्से ने इस तरह की बात को राष्ट्र के प्रति ‘अपराध’ के रूप में देखा। खबर आई तो सम्मेलन पर हमलों का सिलसिला शुरू हो गया। बयान आने लगे।
हमले के पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मालवा प्रांत प्रचार प्रमुख का बयान आया। हमले के बाद इंदौर विभाग के प्रचार प्रमुख का बयान आता है। इनके बयान का स्वर था, इप्टा देशद्रोही है। यही नहीं ‘इप्टा सम्मेलन पूर्ण रूप से राष्ट्र के विरोध में हो रहा है’। इनके बयान में हमले को जायज़ ठहराने का तर्क भी था। ‘विद्यार्थियों’ ने तब हमला किया ‘जब उन्होंने देशविरोधी कार्य देखा’।
क्या 04 अक्टूबर के हमले को ऐसे उकसावे वाले बयान के नतीजे के रूप में देखना ज़रूरी नहीं है? कहीं हमले करने वाले ‘विधार्थियों’ का वैचारिक ताना-बाना संघ के ताने-बाने का नतीजा तो नहीं है? यह भी पता चल रहा है कि इस दौरान पुलिस की ओर से इप्टा के कार्यक्रमों पर काफी कड़ी निगाह रखी गई। यानी यह सांस्कृतिक वैचारिक ताना-बाना, राज्य के ताने-बाने से भी तो नहीं जुड़ा हुआ है?
इस हमले का निशाना तीन दिन बाद और साफ हो गया। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने एक लेख लिखा। लेख का पूरा स्वर किसी भी हिंसक उकसावे का पूरा आधार मुहैया कराती है। लेख में विजयवर्गीय लिखते हैं, ‘…कन्हैया भी वामपंथी है, जो जेएनयू में राष्ट्रविरोधी नारे लगा रहा था। हैदाराबाद के रोहित वेमुला का प्रेरणास्रोत देशद्रोही गद्दार अफज़ल गुरु था। ये सब राष्ट्रद्रोह के नासूर हैं। एमएस सथ्यू उसमें नया नाम जुड़ गया है। वामपंथ की खाल पहने ऐसे लोग पाकिस्तानी कसाब से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। चाणक्य ने कहा था कि सीमा पार के दुश्मनों से कहीं ज़्यादा खतरनाक होते हैं घर के दुश्मन।…’ इस लेख में इप्टा और सथ्यू के लिए काफी बुरे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। इसे पढ़ने के बाद एक सामान्य इंसान की इप्टा या सथ्यू के बारे में क्या छवि बनेगी? उनके साथ क्या करने का विचार मन में पनपेगा? या विचार पनपाने के लिए ये लेख लिखा गया है?
इससे कुछ दिनों पहले हरियाणा सेंट्रल यूनिवर्सिटी में महाश्वेता देवी की रचना पर आधारित नाटक ‘द्रौपदी’ के खिलाफ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने हंगामा किया था। इस नाटक को सैनिकों के खिलाफ बताया गया। यहां भी, मकसद इनके आयोजकों को ‘देशद्रोही’ साबित करना ही था।
राष्ट्रद्रोहियों की तलाश में इतने तरह-तरह के नामों वाले संगठन पूरे मुल्क में लगे हैं। ताज्जुब की बात है कि फिर भी राष्ट्रभक्तों की ‘राष्ट्र्द्रोहियों’ /देशद्रोहियों की सूची खत्म नहीं हो रही है। या यह सूची कितनी लम्बी है, यह भी पता नहीं चल रहा है। हर कुछ दिन बाद एक ‘राष्ट्रद्रोही’ का नाम सामने आ जा रहा है। पैमाना भी बहुत साफ नहीं है। इसलिए सामान्य लोग समझ नहीं पाते हैं। इन्हें इसकी घोषणा करनी पड़ती है कि अगला राष्ट्रद्रोही कौन है।
इसीलिए मौका पाते ही उन्होंने इस बार संस्कृति के क्षेत्र में 74 साल से पैर जमाए एक संगठन और उसके एक महत्वपूर्ण बुजुर्ग कार्यकर्ता को नए ‘राष्ट्रद्रोही’ के रूप में चुना है। गौरतलब है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ देश की आज़ादी के आंदोलन में इप्टा की सक्रिय भागीदारी रही है। जिस संगठन की नायक जनता हो, जो सबके लिए सुंदर दुनिया बनाने की बात करती हो और इसी मकसद से जिसके लोग संस्कृतिकर्म से जुड़े हों, उन्हें भी अब देशभक्ति का सर्टिफिकेट लेना पड़ेगा?
इस मुल्क में कुछ लोग और कुछ संगठन ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के प्रखर पैरोकार हैं। इनसे जुड़े लोग ही ‘राष्ट्रद्रोही होने का एलान करते हैं और इसकी पैराकारी में जुट जाते हैं। यह सांस्कृतिक रूप से असरदार होने की वैचारिक लड़ाई है। यह एक खास संकरी संस्कृति को समाज और राजनीति की असली आवाज़ बनाने की लड़ाई है। इस लड़ाई में भाषण देने वालों से तो यह विचार लड़ ले रही है लेकिन लिखने-पढ़ने- नाटक करने- गीत गाने-फिल्म बनाने वालों से पिछड़ जा रही है। वे इस सांस्कृतिक दायरे में प्रभुत्व यानी दबदबा यानी अपनी तानाशाही चाहते हैं। इस दायरे में असरदार होते ही उनकी सांस्कृतिक वैचारिक जीत मुकम्मल शक्ल अख्तियार करने लगेगी। इसलिए इस बार ‘राष्ट्रद्रोही’ की तलाश उन्हें भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा के दर तक ले आई।