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सआदत हसन मंटो की दास्तान, मज़हब और सरहद के परे

कौशल भाटी:

अक्सर ट्रेन से ऑफिस आते-जाते सुबह शाम बोरियत हो जाती है। भारत में तो खूब साथी बन जाते हैं, रोज़ाना लोगों के साथ चलते-चलते डेनिश लोग थोड़े कम मिलनसार होते हैं। वो तो भला हो 4G नेटवर्क का, यूट्यूब खूब चलता है। पिछले हफ्ते यूं ही कुछ-कुछ ढूंढते हुए रोडियो मिर्ची का यूट्यूब चैनल मिल गया। एक महीने पहले ही एक सीरीज अपलोड की है उस चैनल पर, ‘एक पुरानी कहानी – सआदत हसन मंटो की कहानियां’

बचपन में मंटो की लिखी हुई खूब कहानियां पढ़ी हैं, पर इस नए परिवेश में इन कहानियों को सुनने का नज़रिया नया मिला है। इंसानों के बीच की ज़्यादातर नफ़रत सिर्फ इस बात से पैदा होती है कि, फलां-फलां लोग तो ये खाते हैं और ये करते हैं। यही चीज़ें धीरे-धीरे पहले मज़हब पर, फिर बिरादरी पर और फिर बिरादरी में ऊंची जात और नीची जात तक जाती हैं।

यहां के सुपर मार्किट में घूमते हुए अक्सर अपने जैसे लोग दिख जाते हैं। ये या तो पंजाबी बोलते है या फिर हिंदी, बात करो तो पता चलता है बॉर्डर पार से हैं। बात बढ़ती है तो चाय तक जाती है, फिर दिल्ली लाहौर अमृतसर और रावलपिंडी से घूमते हुए मोबाइल नंबर एक्सचेंज होता है। खुदाहाफ़िज करते हुए बोलना नही भूलते, नए हो यहां कोई ज़रुरत हो तो बताना। मुल्कों के बीच दीवारे खड़ी हैं पर इंसान सरहदों से आज़ाद हैं। एक जुमला याद आ गया था मुझे, ‘इंसान से मुल्क होते हैं, मजहब होते हैं। मुल्क और मज़हब से इंसान नही हुआ करते।’ वक़्त मिले तो मंटो को एक बार सुनियेगा ज़रूर।

मज़हब से मेरा मतलब ये मज़हब नहीं जिसमे हम में से 99% फंसे हुए हैं। मेरा मतलब उस खास चीज़ से है जो एक इंसान को दूसरे इंसान के मुकाबले में एक अलग हैसियत बख्शता है। पर वो चीज़ क्या है? अफ़सोस कि मैं उसे हथेली पर रख कर नही दिखा सकता- सआदत हसन मंटो

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