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दिल्ली से ताजमहल वाया इंडियन रेलवे- असुविधा के लिए खेद है

वाह ताज ! इस शब्द के कानों में पड़ते ही एक अनोखी भावना उत्पन्न होती है, मानो क्या सच में कोई अपने प्यार की निशानी को इतना भव्य और खूबसूरत रूप दे सकता है? प्यार की निशानी माने जाने वाले इस अजूबे को देखने को लोग अक्सर आतुर रहते हैं, जिनमें से मैं भी एक हूं। जी हां बचपन से ताज की एक झलक पाने को बेचैन, मुझे आज वो मौका मिल ही गया।

मैं बिहार में रहने वाले एक मध्यवर्गीय परिवार का लड़का हूं, जो इस वक़्त दिल्ली में अपनी आगे की पढ़ाई पूरी कर रहा हूं। दुर्गा पूजा की छुट्टियों में  मैं और मेरे एक दोस्त ने बड़े सोच-विचार के बाद आगरा चलने का मन बना ही लिया। लेकिन फिर एक आम समस्या हमारे सामने आ खड़ी हुई, ‘बजट’ जिसका लगभग हर साधारण भारतीय को किसी जगह पर जाने से पहले सामना करना होता है। बहरहाल हमने अपना बजट निर्धारित कर लिया और गुरुवार करीब 9 बजे निकल चले नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर।

फिर क्या था हमे जिस बात की आशंका थी वही बात हुई, ट्रेन अपने समय से 3 घंटे लेट। ताज के दीदार में दिल की धड़कनों को थामे हम ट्रेन का इंतज़ार करते रहे और फिर अचानक ट्रेन का आगमन हुआ। मानो हम सिपाही भर्ती के मैदान में हों, लोग जनरल डिब्बे की तरफ ऐसे भागे कि अगर वो पहले न पहुंचे तो भर्ती से बाहर हो जाएंगे। फिर भी हम बड़ी जद्दोजहद के बाद जनरल डिब्बे में घुसने में कामयाब रहे और आगरा के लिए हमारा सफर चालू हो गया।

बहरहाल अब हम थोड़ी चर्चा ट्रेन के उस सफर की कर लेते हैं। दम घोंटने वाली भीड़, पांव तक न रख पाने वाली जगह, उमस भरी गर्मी और ऊपर से बंद पड़े पंखे, मानो सभी मुझसे ही बदला लेने को बेचैन हो। लेकिन मैं भी मन में ताज के दीदार की उत्सुकता लिए इन सभी को दरकिनार किये जा रहा था। इसी बीच सीट पर बैठने को लेकर कुछ लोगों ने आपस में ही लड़ाई चालू कर दी, नतीजन वहां मौजूद लोग आपस में और धक्का-मुक्की करने लगें और फिर बड़ी मशक्कत के बाद ही मामला शांत हुआ। इस सारे घटनाक्रम के दौरान मुझे ट्रेन में बैठे उन आरक्षित डिब्बे के लोगों की याद आई कि कम से कम वो इस सफ़र में चैन की सांस तो ले पा रहे हैं। मगर हमारी उतनी अच्छी किस्मत कहां, बहरहाल हमे ट्रेन में बैठे करीबन 3 घंटे से ज़्यादा हो चुका था मगर अब तक आगरा पहुंचने का कोई पता न था।

पसीने से लत-पत कपड़े, गंदे हो चुके जूते और बिखरे बालों के साथ हम खीच-खाच कर आगरा पहुंच तो गये, लेकिन ट्रेन ने हमारी मंज़िल तक पहुंचने में करीब 5 घंटे लगा दिए। वहीं यात्रा का असल समय 3 घंटे का था तो कुल मिलाकर ट्रेन ने हमारे 5 घंटे बर्बाद कर दिये, फिर भी हमारी ताज को देखने की जिज्ञासा कम न हुई। हम स्टेशन से ऑटो लेकर ताज की ओर निकल चले। दिल में एक अलग सी बेचैनी, आंखों में उत्साह लिए हम तेज़ी से ताज की और बढ़े जा रहे थे और तभी मानो हमारे दिल के अरमानों पर किसी ने धारदार तलवार से वार कर टुकड़े-टुकड़े कर दिये हो। ऑटो से उतरते ही किसी की आवाज़ आई कि ताज के दीदार का वक़्त ख़त्म हो चुका है और अब मुख्य दरवाज़ा शनिवार को खुलेगा। उस वक़्त मुझे सबसे पहला ख़याल हमारी रेलवे व्यवस्था का आया जिसकी वजह से हम जैसे साधारण लोग बड़ी मुश्किल से अपना बजट बना इतनी दूर ताज के दीदार को आते तो हैं, मगर सिर्फ एक ट्रेन के लेट होने के एवज़ में हताशा और अपने बड़े मुश्किल से कमाए पैसों की बर्बादी पाते हैं।

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