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यूपी चुनाव: पब्लिक कमल खिलाए, साइकिल चलाए, हाथी हांके कि पंजा लड़ाए

विवेकानंद सिंह:

क्रोमोज़ोम यानी गुणसूत्र से तो आप लोग वाकिफ ही होंगे। इसमें ज़रा-सा एब्रेशन (दोष) आ जाये, तो डिसेबिलिटी, मेंटल इलनेस और नपुंसकता जैसी समस्याएं आम बात हो जाती हैं। सत्ता के मामले में भी ऐसी समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। बहुमत से एक सीट भी इधर-उधर हों, तो पूरा का पूरा खेल बिगड़ जाता है।

अब उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव को ही लीजिए। वहां की 403 विधानसभा और एक एंग्लो-इन्डियन सदस्य सहित 404 विधानसभा सदस्यों वाली विधानसभा में विजयी आंकड़े यानी 203 सीटें हासिल करने का हर पार्टी का अपना समीकरण है। अभी तक जो चुनावी रुझान बन रहे हैं उस हिसाब से सत्ता की रेस में तीन प्रमुख पार्टियां शामिल हैं। बाकी दलों में कांग्रेस, राहुल गांधी को नेतागिरी की ट्रेनिंग देने के लिए और बचे-खुचे बस अपनी दाल-रोटी की जुगाड़ के लिए मैदान में डटे हैं।

हालांकि, मामला इतना भी आसान नहीं है, जितना कि सर्वे वाले बता रहे हैं। फिर भी राज्य में धीरे-धीरे हालात कुछ ऐसे बनाये जाने की कोशिश हो रही है कि, बहुसंख्यक हिन्दू अस्मिता जग जाए और वे जय श्री राम का नारा लगाने वालों के साथ हो लें। क्यूंकि, मुसलमान तो जय श्रीराम के उद्घोषकों के साथ जायेंगे नहीं! ऐसे कार्ड को खुल कर खेलने की तैयारी दिख रही है।

क्यूंकि 2014 लोकसभा चुनाव में बसपा ब्राह्मणों की जली है, इसलिए फूंक-फूंक कर मुस्लिम-दलित एकता के ज़रिये सत्ता की ओर बढ़ना चाहती है। वहीं सपा की हालत कसाई के हाथों आ चुके उस बकरे जैसी हो गयी है, जिसे एहसास है कि अब किसी भी सूरत में उसे कटना ही है इसलिए वह जितना ज़ोर लगा सकती है लगा रही है।

भाजपा, जिसे सर्वे रेस में सबसे आगे बताया जा रहा है, उसको मैं रेस में आते हुए ज़रूर देख रहा हूं। भाजपा का इतिहास गवाह है, जब भी आलतू-फालतू को उठाया गया है यानी जिन मुद्दों का सरोकार वहां की जनता से कम और उनकी भावनाओं से ज़्यादा जुड़ा हो, तब भाजपा लाभ की स्थिति में होती है।

पाकिस्तान के मामले पर ज़ारी राजनीति, उत्तर प्रदेश में पीएम द्वारा रावण दहन आदि कार्यक्रम राजनीतिक रूप से अक्रिय पड़े दलित और पिछड़ों के वोट को हिन्दू अस्मिता के नाम पर भाजपा अपनी ओर करने में जुटी है। अगर ऐसा सच में हो जाता है, तो भाजपा उत्तर प्रदेश की सत्ता का गुणसूत्र हासिल कर सकती है। फिर भी भाजपा की चुनौती मुख्यमंत्री उम्मीदवार है क्यूंकि बिहार हो या उत्तर प्रदेश, मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की जाति ही वोट की रफ़्तार की असली दिशा तय करेगी।

सपा की आखिरी होप अखिलेश यादव ही हैं। एक-से-एक धाकड़, बाहुबली और भ्रष्टाचार आरोपी राजनीतिज्ञों के कुनबे में अखिलेश आशा की एक किरण की तरह संघर्षरत हैं। बाकी सपा के नेताजी यानी मुलायम सिंह की राजनीति का भी यह शायद रिटायरमेंट चुनाव है, तो उनके अपने वोटर का रुख भी देखने वाला होगा।

कांग्रेस और अन्य दल को ज़ीरो बटे सन्नाटा समझना मेरे हिसाब से भूल होगी। क्यूंकि अगर सही में भाजपा चुनाव जीतने वाली है, तो मान लीजिए कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस दूसरे नंबर पर रहेगी। बसपा और सपा क्षेत्रीय छत्रप हैं, इसलिए लड़ाई दिलचस्प रहेगी।

अब देखना तो यही है कि उत्तर प्रदेश की जनता क्या देखती है? पांच साल की सपा सरकार के काम को या फिर ढाई साल के मोदी सरकार की ऊर्जा को या कुमारी मायावती की प्रशासनिक क्षमता को या फिर सर्जिकल स्ट्राइक की गूंज को या जय श्री राम के नारे को…। इनमें से जिस पर उत्तर प्रदेश की अराजनीतिक जनता की दृष्टि पड़ गयी, वही रथ लखनऊ की तरफ बढ़ेगा।

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