आज आम इंसान इतना असंवेदनशील हो गया है कि मानवता से विश्वास उठता जा रहा है। फिर चाहे वह 2013 में जयपुर की एक आम सड़क पर बिलखता हुआ पति हो जिसकी पत्नी की एक्सीडेंट में मौत हो जाने के बाद उसकी लाश बीच सड़क पर पड़ी हो या 2011 में दिल्ली के धौलाकुआं में एक भीड़-भाड़ वाले पैदल पुल पर एक लड़की को सरेआम गोली मार दी गयी हो। क्या वजह रही होगी, कि इस तरह की घटनाओं के दौरान वहां से गुज़रने वाला कोई भी इंसान रुक नहीं रहा था? क्या वजह है इस तरह की असंवेदनशील व्यवहार की?
[envoke_twitter_link]शहरों का दायरा बढ़ता जा रहा है जहां इंसान की सुविधाओ का बोझ, और ज़्यादा जटिल और सकुंचित होता जा रहा है[/envoke_twitter_link]। 1951 में भारत की जनसंख्या 36 करोड़ से कुछ ज़्यादा थी जो 2011 तक 121 करोड़ को पार कर चुकी थी। इसकी मार शहरों पर ज़्यादा पड़ी। अगर इस रिपोर्ट (पेज 4) को देखें तो 1961 में भारतीय शहरों की आबादी 7.8 करोड़ थी, वह 2011 में 41 करोड़ के आंकड़े को पार कर चुकी थी। यानी कि 2011 में हमारे देश की कुल 33.88% आबादी शहरों में निवास कर रही थी, इसका मूल कारण है रोजगार की खोज में गांव से शहरों की ओर आना। बस यही वजह है कि शहर में हरेक व्यक्ति सुबह से देर रात तक मशीन की तरह काम कर रहा है और उस हर तथ्य को झुठलाने की कोशिश कर रहा है जो उसके जीवन को सुखमयी होने से रोकता है। बेहद कम लोग ही होते हैं जो सुख सुविधाओं के सभी साधन जुटा पाते हैं, ज़्यादातर इस कोशिश में नाकामयाब हो जाते हैं और यही तंगदिली और हार का डर हमारी असंवेदनशीलता में बदल जाता है।
अगर एक नज़र जीडीपी पर कैपिटा पर डालें, जो 2004-2005 में 26000 रूपए से कुछ ज़्यादा थी, 2014-2015 में 98,000 रूपए से भी ज़्यादा हो चुकी थी। लेकिन आंकड़ों पर गौर करें तो सन 2004 से 2013 के बीच खाने-पीने की चीज़ों के दामों में 157% बढ़ोतरी हुई। गौर करने लायक बात हैं कि भारत दुनिया में साग-सब्जी पैदा करने के मामले में दूसरे स्थान पर है इसके बावजूद देश में सब्जियों के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई और यह 350% तक जा पहुंची। बड़े शहरों में प्रौपर्टी के दाम 2005 के दामों की तुलना में लगभग 500% तक बढ़े हैं और यही हाल किराये के मकानो का भी है। इसी दौरान (2005 से 2015 के बीच) जीवन की ज़रुरत की हर दूसरी चीज़ के कई गुना दाम बढ़े हैं जैसे बिजली, पानी, कपडा, पेट्रोल, इत्यादि। मतलब [envoke_twitter_link]आमदनी तो बढ़ी लेकिन महंगाई उससे भी कहीं ज़्यादा बढ़ी।[/envoke_twitter_link]
इसी तरह अपराध दर में भी इज़ाफा हुआ है, 2005 में जहां प्रति एक लाख लोगों पर 456 अपराध दर्ज किए गए वहीं 2015 में यह आंकड़ा 581 हो गया। कारों की संख्या तो बढ़ गयी लेकिन ट्रैफिक एक बड़ी समस्या बन गया, बढ़ते ट्रैफिक की वजह से प्रदुषण भी बढ़ा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व की 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 10 हमारे देश भारत के शहर हैं।
अब आप समझ ही गये होंगे कि आज शहरी जीवन एक लड़ाई बन चुका है, जिसमें हम खुद अपने आप से रोज़ लड़ते हैं। इस लडाई में हमारे ज़ज्बात हमारी मजबूरियों से लड़ते-लड़ते बड़े गंभीर तरीके से घायल हो जाते हैं और यही वजह है कि आज भारत का आम शहरी अंदर से दयाहीन हो चुका है। अब इन मुश्किलों का हल क्या है? मेरे पास कोई अनुभव नहीं है और ना ही कोई ऐसी शक्ति कि इसका हल बता सकूं, हां किसी संत के आशीर्वाद से या किसी राजनीतिक भाषण से इसका हल हर्गिज़ नहीं मिल सकता। हम सब को मिलकर सोचना होगा और रोजगार के अवसर दूर-दराज के गांवों में भी पैदा करने होंगे, ताकि गांवों से पलायन तो कम से कम रोका जा सके।