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गांवों में महिला सशक्तिकरण पर कब होगी बातें?

ज्योति सांखला:

औरत के लिए प्रयोग होने वाला ‘देवी’ शब्द सुनने में जितना पवित्र और सम्मान योग्य लगता है, आम जीवन में ये औरत के लिए उतना ही शर्मनाक है। आधुनिक युग के इस दौर में भी एक औरत गलत समझी जाती है यदि वो बिना परदे के घर से बाहर निकल रही है। औरत ही बेशर्म होती है यदि कोई पराया मर्द उसका चेहरा देख लेता है। सुनने में भले ही ये पुरानी सदी की बातें लगे लेकिन आज भी भारत में खासकर राजस्थान के गांवों में महिलाओं के प्रति यही रवैय्या है।

इस सोच का असर भले ही उन महिलाओं पर नहीं हो रहा हो, लेकिन इनकी आने वाली पीढ़ी इसी सोच के साथ आगे बढ़ रही है। जिसके परिणाम का अंदाज़ा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि, गांवों में लड़के जितनी आज़ादी के साथ घूम-फिर सकते हैं लड़कियों पर उतनी ही पाबंदी है। क्योंकि डर है कि कहीं वो भी बेशर्म ना हो जाएं।

एक तरफ हम महिला सशक्तिकरण की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, दूसरी तरफ महिलाओं के प्रति ये नज़रिया दर्शाता है कि, अभी खोखला शहरी सशक्तिकरण चल रहा है। महिलाओं के अधिकारों की बातें करने वाले बुद्धिजीवियों ने कभी किसी गांव की चौपाल पर महिला सशक्तिकरण की बात की है? अगर की होती तो वो हकीक़त से रूबरू हो पाते कि, जब नशे में धुत पति रात को बिना किसी गलती के  अपनी पत्नी को गालियां देकर पीटता है तब भी सुबह में वही पत्नी सिर्फ ये कहकर दूसरों को समझाती है कि “[envoke_twitter_link]रात को थोड़ी सी ज़्यादा पी ली थी इसलिए हाथ उठा दिया[/envoke_twitter_link]”।

गांवों की कम ही लड़कियों को हँसते हुए देखा होगा आपने, उसकी तो हंसी पर भी पहरा है। घर के अलावा बाहर में खुलकर हँसना उसके लिए एक गुनाह है, क्योंकि देवियां ज़ोर से नहीं हँसा करती। अपनी उम्र से पहले ही यहां लड़कियां सयानी हो जाती हैं। जिसके लिए पढाई के अलावा सब कुछ ज़रुरी होता है।

इसे धैर्य कहें या लाचारी, लेकिन जो भी है हमारे समाज के लिए बहुत ही घातक है। ऐसा नहीं है कि यह समस्या सिर्फ गांवों की है, यही हाल शहरों का भी है पर वहां उनकी आवाज़ को सहारा देने वाले कई लोग हैं। लेकिन गांवों में तो अभी वो आवाज़ ही नही है जिसे सहारा देना पड़े।

समाज ने देवी बनाकर उसे मंदिर में बैठा दिया है, लेकिन घर की देवियों को घर में इंसान तक का दर्ज़ा नहीं दे सका।[envoke_twitter_link] इस समाज ने जिस शर्म के परदे में औरत को लपेट रखा है इससे उसे खुद के अलावा कोई बाहर नहीं ला सकता।[/envoke_twitter_link] उसे खुद ही समझना होगा कि वो अपने बच्चों के लिए किस तरह का आदर्श प्रस्तुत कर रही है? आज अगर उसे बेशर्म कहा जा सकता है तो कल यहां पर उसकी बेटी या बहु भी हो सकती है। सिर्फ वही है जो अपनी खुद की आवाज़ बनकर, समाज और आने वाली पीढ़ी को सही दिशा देने में सक्षम है।

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