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डियर गौरी शिंदे, मेरे बचपन पर फिल्म बनाने के लिए थैंक्स।

डियर गौरी शिंदे,

आपकी हालिया रिलीज़ हुई फिल्म ‘डियर जिंदगी’ ने मुझे बुरी तरह रुलाया। कुछ सीन्स इतने भावनात्मक थे कि बस खुद पर नियंत्रण करना मुश्किल था। पहले कभी नहीं हुआ ऐसा, शायद ऐसी फिल्म ही नहीं आई। या कुछ आई भी तो उनसे वैसा जुड़ाव महसूस नहीं हुआ।

मैं 4 साल की थी जब मेरे पिता ने मुझे मेरी मां से अलग कर दिया। यह कहकर मुझे ले आए की हम बाज़ार जा रहे हैं, मैं खुश थी मगर मां मुझसे लिपट रोए जा रही थी। कुछ साफ याद नहीं पर मां को मैंने जाते- जाते कहा था,’ रो मत मां, बाज़ार ही तो जा रही हूं और पापा की बाइक पर बैठ गई। शाम ढल गई मगर हम किसी बाज़ार में ना रूके, पापा फुसलाते रहें कि बड़ी वाली बाज़ार ले जा रहे हैं पर अब मायूसी घेरने लगी थी, लगने लगा था की बाज़ार नहीं कहीं और ले जा रहे हैं मुझे । गाड़ी एक बड़े से घर के नीचे रुकी। हम ऊपर गये तो एक औरत एक बच्चे के साथ खड़ी मिली।

मेरे पापा की पहली पत्नी थी वो और वो बच्चा मेरा सगा भाई। मुझे देख मुस्कुराई भी नहीं, नाराज़ होकर भाई को लिए भीतर कमरे में चली गईं। मुझे अकेला छोड़ दिया। फिर पापा आये , कहने लगे कि ये भी तुम्हारी ही मम्मी हैं। अब यही रहना है तुम्हें, स्कूल जाना है, पढ़ाई करनी है। जैसा पापा ने कहा था मैं उन्हें मां पुकारने लगी पर उन्होंने ऐसा करने से सख्त मना कर दिया – कहा, मां जी बुलाया करो मम्मी नहीं। जबकि मेरा भाई उन्हें मां कहकर पुकारता था। भाई से काफी लगाव था उन्हें, मगर मैं फूटे आंख नहीं सुहाती। मैं भी डरी- सहमी सी रहती थी। छोटी- छोटी बातों पर डांटना, डराना, पीटना – मुझे यकीन ही नहीं होता कि यह मेरी मां है। बाकि भाई बहुत सहज था उनके साथ। शायद मुझमें मेरी मां की झलक दिखती थी उन्हें। मेरी मां को वह हमेशा गालियां देती रहती।

मैं हमेशा सोचती थी…गलती क्या है मेरी? छुट्टियां हुई तो पापा मुझे गांव ले गये, अपनी मां से मिलवाने। मां की गोद में जाते ही अपने और पराये का एहसास हो गया। वह नरमाहट कहीं और नहीं। मैं वापस नहीं जाने के बहुत नखरे करती मगर मां समझा- बुझाकर भेज ही देती। तब से मैं छुट्टीयों का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी। मां जी को मेरा मां से मिलना बिल्कुल ही अच्छा ना लगता इसलिए कभी फोन पर बात भी ना कराती ना ही भाई को गांव जाने देती।  पापा की पहली शादी मां जी से हुई थी। शादी के 10 साल तक जब उनका कोई बच्चा ना हुआ तो मेरे पिता ने दूसरी शादी मेरी मां से कर ली। मां जी शादी से नाराज़ अपने मायके चली गई।

फिर जब मेरा भाई हुआ तो पापा उस दूधमुहे बच्चे को धोखे से मां जी के पास लेकर चले गये, उन्हें मनाने। मां को यह कहकर सांत्वना दिया कि पढ़ने तो भेजना ही था। इसी बहाने उसे भी संतान सुख मिल जाएगा और तुम्हारा बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने का सपना भी पूरा हो जायेगा। वो पढ़ी लिखी है, अच्छी परवरिश करेगी बच्चों की।  मां ने दिल पे पत्थर रखकर इस सच को स्वीकार लिया। फिर मेरा जन्म हुआ। मां ने मुझे जाने ना दिया पर पापा ने फिर से वही पैंतरा दोहराया। पढ़ाई का सोच मां ने मुझे भी त्याग दिया। हम मां जी के पास बड़े हुए, भाई से बहुत बनती थी मेरी मगर मां जी नहीं बदली। मुझसे दिल का रिश्ता नहीं जोड़ पाई। मैंने बहुत कोशिश की पर वो मुझे स्वीकारना नहीं चाहती थी।

बचपन की उन परेशान करने वाली यादों को जब पर्दे पर इतनी खूबसूरती से दर्शाया हुआ देखा तो बस लगा कि यह तो मेरी ही कहानी जैसी है। मां बाप अपनी परेशानियों और गलतियों की सज़ा बच्चों को दे देते हैं  फिर एक अच्छी परवरिश देने का ढोंग करते हैं। इंजीनियर, डाक्टर बना दिया इसकी दलील देते हैं मगर मेरे बचपन के साथ क्या किया इसका कोई जवाब है?  क्यों दबाई उस आवाज़ को जो खुलकर चिल्लाना चाहती थी? क्यों चुप करायी उस हंसी को जो ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगाना चाहती थी? जो खुले मैदान में खेलना चाहती थी, रंगों से यादों को रंगना चाहती थी, जिद्द करना चाहती थी, नखरे करना चाहती थी। क्यों?

आपकी इस फिल्म को देखने के बाद मुझे बहुत हिम्मत मिली कि इस सवाल को उनके सामने रख सकूं। मैंने रखा भी और उन्होंने माफी भी मांगी। आपकी यह फिल्म मेरी दबी हुई भावनाओं की आवाज़ बनी। मैं सकारात्मकता की ओर फिर से वापस आ गई।

थैंक्यू !

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