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मुलायम के डिप्लोमैटिक रथ के सारथी अखिलेश

के.पी. सिंह:

अखिलेश यादव की विकास रथयात्रा का बुधवार को बेहद सुखद प्रस्थान हुआ जबकि इसके पहले इस यात्रा को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे थे। आखिरी-अाखिरी तक इस बात पर सस्पेंस रहा कि मुलायम सिंह इस रथयात्रा को हरी झंडी दिखाने के लिए आएंगे या नहीं। यहां तक कि दीपावली के बाद उनके अचानक दिल्ली चले जाने को इस बात से जोड़ा गया कि वे अखिलेश की रथयात्रा से अप्रसन्न हैं। शिवपाल सिंह के तो बयानों से ही यह तय था कि वे रथयात्रा से दूरी बनाएंगे। उन्होंने कहा था कि 5 नवंबर को समाजवादी पार्टी का रजत जयंती समारोह होना है जिसको सफल बनाना बेहद गुरुतर दायित्व है।

लेकिन मुलायम सिंह ने आखिर में अपने पत्ते खोले। 3 नवंबर को ही मीडिया के लोगों को यह पता चल पाया कि मुलायम सिंह रथयात्रा को हरी झंडी दिखाने के लिए आ रहे हैं। रथयात्रा के प्रस्थान के कुछ देर पहले ही यह भी डिस्क्लोज किया गया कि उनके साथ शिवपाल यादव भी होंगे। ज़ाहिर है कि शिवपाल को मुलायम सिंह के ही दबाव में इसके लिए मजबूर होना पड़ा। जब मुलायम सिंह के साथ शिवपाल ने रथयात्रा के मंच पर इंट्री की तो उनके भतीजे और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश के खेमे में हर्ष की लहर दौड़ गई। अखिलेश ने भी चाचा को अग्रपंक्ति में बैठने के लिए आमंत्रित करके दिखावे के शिष्टाचार में कोई कसर नहीं छोड़ी।

आगे के घटनाक्रम से उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि उनकी अगवानी चाचा के लिए नहीं बल्कि पापा द्वारा निहित पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के लिए है। उन्होंने अपने संबोधन में एक भी बार शिवपाल का ज़िक्र नहीं किया। यही नहीं उन्होंने अपने भाषण में शिवपाल की दुखती रग को यह कहकर छेड़ा कि उन्हें यह भलीभांति अहसास था कि यह चुनावी वर्ष है जिसमें साजिशें होंगीं और ऐसा हुआ भी, लेकिन उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा। समाजवादी पार्टी की सत्ता में अगली बार भी वापसी के लिए वे शुरू से ही दृढ़ संकल्पित थे और इस अभियान में बिना साजिशों से विचलित हुए वे बदस्तूर अपनी गति बनाए रखे हुए हैं। जब अखिलेश यह कह रहे थे तो बेबसी के भाव से शिवपाल का चेहरा स्याह हो रहा था। लेकिन अखिलेश ने उन्हें शुरू में ही बुलवा दिया था जिसकी वजह से उनके पास अखिलेश को धो डालने का कोई मौका ही नहीं बचा था।

ऊपरी तौर पर विकास रथ यात्रा के शुभारंभ के मौके पर भी मुलायम सिंह ने टीम अखिलेश के प्रति यह कहते हुए तल्खी जताई कि जो लोग नारेबाजी करते हैं वे लाठियां नहीं झेल सकते। इस तजुर्बे के वे स्वयं बहुत भुक्तभोगी हैं। उन्होंने रथयात्रा के नामकरण में संशोधन का उनका सुझाव न मानने का उलाहना भी अखिलेश को मंच से दिया लेकिन पुत्र और उनके समर्थकों के प्रति वितृष्णा जताने का उनका यह अभिनय कितना बनावटी और नकली है, यह किसी से छिपा नहीं रह गया। इसीलिए अखिलेश ने उनके प्रतिकूल भाषण की कोई परवाह नहीं की।

अखिलेश ने कहा था कि वे नेताजी के नैसर्गिक राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं और मुलायम सिंह के तमाम डिप्लोमेटिक रुख के बावजूद उन्हीं के जरिए इस बात का अहसास भी उन्होंने करा दिया। ऐसा नहीं है कि शिवपाल पिता-पुत्र की इस अंडरस्टैंडिंग को समझ न रहे हों, लेकिन उनके पास कोई और चारा भी तो नहीं है। उनकी पस्त मानसिकता का ही नतीजा रहा कि इस कार्यक्रम में उन्होंने इनडायरेक्ट अपने द्वारा निष्कासित अखिलेश की टीम को समाजवादी पार्टी के रजत जयंती सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण भी यह कहते हुए दे दिया कि सारे नौजवान जो कि समाजवादी परिवार में आस्था रखते हैं, रजत जयंती समारोह के कार्यक्रम में आएं लेकिन अनुशासन का ध्यान रखें।

शिवपाल समझ रहे थे कि पिता-पुत्र का टीम वर्क इतना मजबूत है, जिसकी वजह से उनके प्रदेश अध्यक्ष होने के बाद पार्टी संगठन के उसूल अप्रासंगिक कर दिए गए हैं। जिनको उन्होंने निष्कासित किया वे न तो मंत्रिमंडल से निकाले जा रहे हैं और न ही मुख्यमंत्री के स्तर के महत्व के कार्यक्रमों से अलग किए जा रहे हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा निष्कासित रामगोपाल यादव के साथ अखिलेश की मंत्रणा को भी राष्ट्रीय अध्यक्ष रिश्तों के नाम पर इग्नोर कर रहे हैं। टीम अखिलेश के निष्कासित नेता समाजवादी पार्टी के महासम्मेलन में भी बिन बुलाए पहुंच गए थे। बिना बुलाए लोगों के आने पर मुलायम सिंह ने ऊपरी तौर पर तो काफी अप्रसन्नता जताई।

पिता-पुत्र के तालमेल का एक और नमूना यह था कि जब मुलायम सिंह ने पहले से अगले मुख्यमंत्री का चेहरा तय करने को लेकर चर्चाओं पर विराम रखने की रणनीति तय कर दी थी। अखिलेश ने इस पर मलाल की कोई शिकन अपने चेहरे पर आने देने की बजाय खुद भी रथयात्रा शुभारंभ की सभा में  नेताजी के स्टैंड को बार-बार यह कहकर बढ़ाया कि अगली बार भी समाजवादियों की वापसी होगी बजाय अपना नाम लेने के।

विकास रथयात्रा की सभा के बहाने मुलायम सिंह ने यह ज़ाहिर कर दिया कि वे भी अब चुक गए हैं। उनमें और शिवपाल में यह क्षमता नहीं दिखाई दी कि पार्टी के महासम्मेलन में पूरी पार्टी को एकजुट दिखाने का ध्येय सफल कर सकते। उस दिन जूतों में दाल बंटती नजर आई। कार्यकर्ता ही नहीं नेता तक सार्वजनिक रूप से आपस में भिड़ गए। शिवपाल और अखिलेश में हाथापाई की नौबत आ गई। उस समय खुद मुलायम सिंह भी मौजूद थे लेकिन वे पूरी तरह निरुपाय नजर आए। जबकि विकास रथयात्रा की ओपनिंग में अखिलेश ने अपना कार्यक्रम होने के नाते इतना शानदार प्रस्तुतिकरण किया कि उनके और शिवपाल के घटक पार्टी की माला में एक सूत्र में पिरोये नजर आए। अखिलेश ने प्रोफेसर रामगोपाल यादव को इसमें पार्टी के फैसले के नाम पर आमंत्रित करने से मना कर दिया था लेकिन रामगोपाल ने इसे अपमान के रूप में संज्ञान में लेने की कोई जरूरत नहीं समझी बल्कि उन्होंने अपनी खामोशी के माध्यम से अखिलेश को पूरी सहूलियत देने का ख्याल जताया।

इस बीच पार्टी में अपनी प्रभुता के शिवपाल के मुगालते को सहलाने के लिए बिहार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन तैयार करने की उनकी उड़ान को मुलायम सिंह पूरी छूट दिए हुए हैं, लेकिन अखिलेश को पता है कि यह मंसूबा शेखचिल्ली के सपने से ज्यादा अहमियत नहीं रखता और उनसे पहले मुलायम सिंह भी इस सच्चाई से परिचित हैं। पिता-पुत्र की केमिस्ट्री के चलते ही अखिलेश महागठबंधन के शिवपाल के अभियान से बौखलाहट ज़ाहिर करने की बजाय यह कह रहे हैं कि नेताजी इस दिशा में जो करेंगे वह उन्हें और पूरी पार्टी को मान्य होगा। दूसरी ओर नेताजी तो सहयोगी दलों के मामले में हमेशा सर्वभक्षी रहे हैं और उनके इस मिजाज में कोई परिवर्तन संभव नहीं है। ऐसे में महागठबंधन होगा कैसे? नीतीश कुमार मुलायम सिंह के सर्वसत्तावादी रुख को बखूबी जानते हैं और बिहार के हालिया विधानसभा चुनाव में वे मुलायम सिंह पर भरोसा करने की कीमत भी चुका चुके हैं। इसलिए उन्होंने भी बहाने से 5 नवंबर को सपा के रजत जयंती समारोह में भाग लेने से तौबा जता दी है।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर के ताज़ा बयान में यह जाहिर किया गया है कि प्रशांत किशोर (पीके) की गठबंधन के लिए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव से दिल्ली में उनके आवास पर हुई मुलाकात को पार्टी का कोई समर्थन नहीं है। इससे पहले कि मुलायम सिंह जद यू को पांच और कांग्रेस 20 सीटें देने पर समझौते के लिए मजबूर करने का उपक्रम करें, महागठबंधन के टारगेट की पार्टियों ने पहले ही समाजवादी पार्टी के प्रस्ताव से दूरी जताना शुरू कर दिया है। जब कोई महागठबंधन बनना नहीं है तो अखिलेश क्यों परेशान हों, साथ ही पिता के प्रति आज्ञाकारिता का यश लूटने में क्यों पीछे रहा जाए। इसलिए उन्होंने कहा कि नेताजी अगर महागठबंधन बनाते हैं तो उन्हें स्वीकार करना ही पड़ेगा।

चुनाव आते-आते सपा का अंदरूनी सिनेरियो क्या होगा, यह तस्वीर अब काफी हद तक साफ होती जा रही है। शिवपाल को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भी बिना डंक का बिच्छू बनाकर मुलायम सिंह ने अपने राजनैतिक कौशल की एक और चमत्कृत करने वाली बानगी पेश कर दी है। अखिलेश को लगातार खरी-खोटी सुनाते रहने के बावजूद उनके अपने विपरीत फैसलों को भी रोकने का हस्तक्षेप न करके उन्होंने साफ संदेश दे दिया है कि आखिरकार सपा के युवराज अखिलेश ही हैं। इसलिए पार्टी में किसी और की नहीं उन्हीं की चलने वाली है। यह स्थिति स्पष्ट होने से समाजवादी पार्टी में प्रमुख नेता दुविधा में रहने की बजाय अखिलेश के पाले में पहुंचने का निर्णायक रुख अख्तियार करने लगे हैं।

अखिलेश का आत्मविश्वास मौजूदा परिस्थितियों में बुलंदी पर है। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि वे बहुत साफ-सुथरे राजनीतिज्ञ हैं। उनके नये आवास की साज-सज्जा में 80 करोड़ रुपये का खर्चा हो जाने की बातें कही जा रही हैं। अखिलेश आकर्षक योजनाएं बनाने में तो माहिर हैं लेकिन अपने पिता की तरह ही पार्टी फंडिंग के उनके तौर-तरीके अधिकारियों को ज्यादा से ज्यादा निचोड़ने पर निर्भर हैं। इसलिए सभी विभागों में करप्शन और मनमानी इतनी  बढ़ गई है कि किसी योजना का लाभ पात्र लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा पर अखिलेश को इससे क्या लेना-देना।

उन्हें लगता है कि उनकी योजनाओं से प्रदेश की जनता बेहद प्रभावित हो रही है। जिसकी वजह से 2017 के चुनाव में फिर उनकी वापसी होगी। लेकिन जनता अब बहुत भोली नहीं रही। यह पब्लिक है सब जानती है, की तर्ज पर उत्तर प्रदेश के मतदाता हर चीज समझ रहे हैं। यह दूसरी बात है कि जब हमाम में हर कोई नंगा खड़ा है तो मतदाताओँ की मजबूरी अपेक्षाकृत मर्यादित अखिलेश को रिपीट करने की बन जाए यह संभव है। सपा के लोग भी इसी यकीन के चलते अपना हौसला बुलंद किए हुए हैं।

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