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ब्रेख्त ने भी जब खटमलों के सामने मान ली थी हार

जेएनयू में रहते हुए यदि खटमलों के बारे में न लिखा जाए तो यह खटमलों के साथ भारी नाइंसाफी होगी, खुद के साथ नाइंसाफी तो है ही! तो साहब, जिन्हें आप खटमल कहते हैं, इनका वैज्ञानिक नाम है ‘सीमेक्स लेक्टुलेरियस’। खटमल परपीड़ा में इतने महारथी रहे हैं कि वे ज्ञात इतिहास के पूरे दौर में ऐसा ही करते रहे हैं। कीट-विज्ञानियों की मानें तो खटमलों का पहला शिकार चमगादड़ थे। यानी यह परजीवी, खुद दूसरे जीवों का खून पीने वाले चमगादड़ों का खून पीता था। आगे चलकर भूमध्यसागर के निकट स्थित गुफाओं में खटमलों ने पहले-पहल मानव-रक्त का स्वाद चखा। और यकीन मानिए यह स्वाद उन्हें इस कदर भाया कि वे इंसानों के मुरीद हो गए।

मानव सभ्यता के आखेटक खाद्य-संग्राहक काल में खटमलों को इंसानों के करीब आने का मौका नहीं मिल सका। पर जब मानव-जाति ने गांवों और आगे चलकर शहरों में स्थायी रूप से बसना शुरू किया, तो खटमलों को अपनी ‘मुरीदी’ दिखाने का भरपूर अवसर मिला।

खटमल धीरे-धीरे यूरोप और एशिया में फैल चुके थे। इटली (77 ई), चीन (6वीं सदी), जर्मनी (11वीं सदी), फ्रांस (13वीं सदी), इंग्लैंड (1538) भी खटमलों के प्रकोप का शिकार बन चुके थे। खटमलों को लेकर नामावलियां भी विकसित हो चुकी थीं, मसलन, बेडबग के अलावा उन्हें, ‘वालपेपर फ़्लौंडर’, ‘नाईट राइडर’, ‘रेड कोट’, ‘महोगनी फ्लॅट’, और ‘क्रीमसन रंबलर’ भी कहा जाता था। “देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर” प्रकृति वाले इन खटमलों के लिए, बर्तोल्त ब्रेख्त ने लिखा:
“शार्क मछलियों को मैंने चकमा दिया, शेरों को मैंने छकाया, मुझे जिन्होंने हड़प लिया वे खटमल थे।”

प्राचीन काल में खटमलों को चिकित्सकीय गुणों से सम्पन्न माना जाता था। “नेचुरलिस हिस्टोरिका” लिखने वाले प्लिनी ने ईसा की पहली सदी में लिखा कि खटमलों का प्रयोग सर्पदंश के उपचार हेतु किया जा सकता है। 19वीं सदी के एक होमियोपैथिक ग्रंथ के अनुसार खटमलों से तैयार टिंक्चर का प्रयोग मलेरिया के उपचार में किया जा सकता है।

19वीं सदी में औद्योगीकरण और यातायात के साधनों के तीव्र विकास ने खटमलों के लिए अनुकूल वातावरण बनाया। हालांकि यह परजीवी कीट अमीर-गरीब में कोई फर्क नहीं करता, पर दुनिया भर में खटमलों का सबसे ज़्यादा शिकार गरीब और मजदूर ही हुए। फैक्टरी और उद्योगों के इर्द-गिर्द रहने वाला श्रमिक वर्ग खटमलों का आसान शिकार बना, कारण कि मजदूर खटमलों को खत्म करने के लिए अपेक्षाकृत महंगे कीटनाशकों का प्रयोग नहीं कर सकते थे। सड़कों, रेल-मार्गों, जलयानों और हवाई जहाज़ों ने खटमलों को उन सुदूर क्षेत्रों में भी पहुंचाया, जो अब तक खटमल से अनभिज्ञ थे।

1930 के दशक में आर्थिक महामंदी से जूझते यूरोप और अमेरिका में श्रमिकों और मज़दूरों की बस्तियों में खटमल की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया था। दोनों ही विश्वयुद्धों में, सैनिकों का जितना खून युद्धभूमि में बहा, लगभग उतना ही खून खटमलों ने बैरकों और खंदकों में सोते-जागते जवानों के शरीर से चूस लिया। जवानों के हेलमेट, उनके पिट्ठू-बस्ते (बैकपैक), वर्दी और यहां तक कि सेना की कैंटीन तक में खटमल मौजूद थे।

20वीं सदी के उत्तरार्ध में खटमल, सभी सार्वजनिक स्थलों मसलन, अस्पतालों, स्कूलों, कालेज और विश्वविद्यालय परिसरों, पुस्तकालयों, होटलों, दमकल विभागों, पुलिस स्टेशनों और तो और शवदाह गृहों आदि में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। खटमलों के खात्मे के लिए बहुत-से नुस्खे और रसायन आजमाए गए। इनमें कुछ प्रमुख थे: मरक्यूरी क्लोराइड, हाइड्रोजन साइनाइड, पाइरेंथरम, केरोसिन, गैसोलीन, बेन्जीन, टूर्पेंटाइन और डीडीटी आदि। (देखें, माइकल पॉटर, ‘द हिस्ट्री ऑफ बेडबग मैनेजमेंट’)

भारत में खटमल:

संस्कृत में खटमलों के लिए जो शब्द प्रयोग होता है, वह है “मत्कुण”। इसका उल्लेख माघ रचित ‘शिशुपालवध’ में भी मिलता है:“मत्कुणाविव पुरा परिप्लवौ सिंधुनाथशयने निषेदुष:। गच्छत: स्म मधुकैटभो विभोर्यस्य नैद्रसुखविघ्नतां क्षणम।।”

11वीं-12वीं सदी में रचित ‘कथा-सरितसागर’ में खटमलों की एक कथा आती है। कथा मूल रूप में पंचतंत्र से ली गयी है। कथा-सरितसागर की खटमल-कथा यूँ है:
“किसी राजा के पलंग में एक मंद विसर्पिणी नाम की जूँ छिपकर रहती थी। वहां अकस्मात कहीं से टीटीभ नामक खटमल भी आ गया। उसने कहा, ‘मैंने राजा का खून कभी नहीं पिया है, यदि आपकी कृपा हो तो मैं आज थोड़ा-सा राजा का खून पी लूं’। उसके बहुत अनुरोध करने पर मंद विसर्पिणी ने कहा, ‘अच्छा तुम यहां रह सकते हो, किन्तु जब राजा सो जाए, तब काटना’। जूँ की अनुमति मिल जाने पर खटमल वहीं रहा। रात्रि में ज्योंही राजा खाट पर आकार लेटा, त्योंही खटमल ने उसे काट लिया। राजा एकदम ‘अरे काट लिया! अरे काट लिया!’ कहता हुआ उठ खड़ा हुआ। तब खटमल तो शीघ्र ही वहां से भाग गया पर राजा के नौकरों ने जूँ को पाकर मार डाला। इसलिए हे राजन! टीटीभ के संपर्क से मंद विसर्पिणी जूँ मारी गई।”

औपनिवेशिक काल में खटमलों ने भारतीयों के साथ-साथ उन अंग्रेज़ों को भी काफी हलकान किया, “जिनके राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था।” 1816-18 के दौरान मद्रास प्रेसीडेंसी के एक अस्पताल में सर्जन रहे जेम्स लाडर ने अस्पताल में रोगियों के लिए लोहे की चारपाइयों के व्यवहार पर ज़ोर दिया, ताकि उनमें खटमल न आ सके। (देखें, जेन बकिंघम, ‘लेप्रोसी इन कॉलोनियल साउथ इंडिया’)

इंडियन मेडिकल सर्विस के कैप्टन डब्लू.एस. पैटन, एफ. डब्लू. क्रैग सरीखे चिकित्सकों ने खटमलों और उनसे फैलने वाले रोगों पर शोध किया। 1907 में प्रतिष्ठित ‘साइंस’ पत्रिका में लिखते हुए ए.ए. जिराल्ट ने भारत में कालाजार की बीमारी के लिए खटमलों को एक कारण बताया।

खटमल: साहित्य और सिनेमा में

1730 ई. में (1787 संवत), आगरा के कवि अली मुहिब खाँ प्रीतम ने “खटमल बाईसी” नामक हास्य रस की एक किताब लिखी। मुहिब खाँ लिखते हैं:
“बिधि हरि हर, और इनतें न कोऊ, तेऊ, खाट पै न सोवें खटमलन को डरिकै।
कोऊ न उपाय, भटकत जनि डोलै सुन, खाट के नगर खटमलन की दुहाई है॥”

शायर अकबर इलाहाबादी (1846-1921) ने खटमलों से आजिज़ आकर लिखा:
“इस कदर था खटमलों का चारपाई में हुजूम, वस्ल का दिल से मेरे अरमान रुख़सत हो गया।”

राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक “एशिया के दुर्गम भूखंडों में” लद्दाख और ल्हासा के दुर्गम क्षेत्रों में भी खटमलों के आतंक का ज़िक्र किया है। ल्हासा के आगे एक गांव द्जङ् के बारे में लिखा है उन्होंने: “सब लोग सो गए। हम भी लेटे। अब सारे शरीर में चुनचुनाहट हो रही थी। उठने में आलस-सा था। लेटे-लेटे सोच रहे थे- पिस्सू है या खटमल! किंतु और देर तक बहलाव करना मुश्किल था। टॉर्च उठाकर देखा- दीवार, सिरहाने लाल-चलित बिन्दुओं से सुशोभित हो रही थी। क्या खटमल दादा तुम पहुंच गए!”

बॉलीवुड ने खटमलों के साथ उतना उपेक्षापूर्ण व्यवहार नहीं किया जितना कि अकादमिक जगत ने। कवि गोपाल दास नीरज ने एक गीत ही लिख मारा खटमलों पर, जिसके बोल थे धीरे से जाना खटियन में ओ खटमल...” और जिसे गाया था, हरदिलअज़ीज़ किशोर कुमार ने और इस गीत को संगीत से संवारा था सचिन देव बर्मन ने। ‘छुपा रुस्तम’ फ़िल्म (1973, निर्देशक-विजय आनंद) का यह गीत देवानंद और हेमामालिनी पर फ़िल्माया गया, खटमलों को इससे बेहतर की उम्मीद और हो भी क्या सकती थी।

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