विवेक राय:
आज रात 12 बजे से भारत में एक ऐतिहासिक प्रकिया शुरू हो गयी है, जिसमे [envoke_twitter_link]500 और 1000 के नोट अब गैरकानूनी हो जायेंगे।[/envoke_twitter_link] प्रधानमंत्री ने अपने उद्धबोधन में भ्रष्टाचार और इससे पोषित आतंकवाद को खत्म करने का आह्वाहन करते हुए सरकार के इस फैसले पर सभी से अपना सहयोग मांगा। उन्होंने कहा कि कोई भी [envoke_twitter_link]ईमानदार नागरिक परेशानी तो सह सकता है पर भ्रष्टाचार नहीं[/envoke_twitter_link], इसलिए उन्हें उम्मीद है कि ईमानदार लोगों का सहयोग मिलेगा।
वास्तव में [envoke_twitter_link]सरकार का यह कदम एक सराहनीय कदम तो है पर ये भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए पर्याप्त नहीं है। [/envoke_twitter_link]सरकार के इस फैसले में अभी कितनी विसंगतिया हो सकती हैं, ये देखना बाकी है। हर कोई उम्मीद कर रहा है कि सरकार ने ये फैसला पूरी तैयारी के साथ लागू किया होगा जिसमे हर विसंगति से निपटने का विकल्प होगा।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ये फैसला एक हिम्मतवाला फैसला है और इसे सफलतापूर्वक पूरा करना एक चुनौती तो है ही साथ में इसमें एक व्यापक प्रबंधन की भी ज़रूरत भी होगी। सरकार यदि सच में समर्थन चाहती है तो आलोचना को भी स्वीकार करना होगा क्योंकि आलोचना सरकार को सुझाव भी देती है (कहीं ऐसा न हो कि सरकार की आलोचना करने वाले अब ‘देशद्रोही’ की तर्ज़ पर ‘भ्रष्टाचारी’ कहलाने लगे)। [envoke_twitter_link]समर्थन का मतलब सिर्फ ‘प्रशंसा’ नहीं होता।[/envoke_twitter_link] निर्णय को अमल में लाना इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि ईमानदार जनता भी तकलीफ उठाएगी। वो घर जहां शादी या कोई महोत्सव होना है, उन्हें ये फैसला आकस्मिक या ‘तुगलकी फरमान’ ही लगेगा। वो पारंपरिक व्यापारी जो बैंक में ‘बड़े नोट’ मांगते थे, अब उन्ही नोट को जमा करने के लिए बैंक में लाइन लगा कर खड़े होंगे। हां, जिनके पास इन बड़े नोटों की भरमार है और उन्हें गलत तरीकों से कमाया गया है, उन्हें समझ आएगा कि ‘सब माया है’ और उन्होंने ईमान बेच कर सिर्फ कागज़ की रद्दी ही इकट्ठी की है।
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सवाल ये भी हैं कि [envoke_twitter_link]क्या सिर्फ करंसी नोटों का संग्रहण ही एक कारण है भ्रष्टाचार का?[/envoke_twitter_link] ये बहुत पुराना फैशन है। आज अधिकारियों के पास, कालाबाज़ारियों के पास और छुटभैया नेताओ के पास ही ये नकदी मिलती है पर सफेदपोश नेता, बड़े पूंजीपति और अभिनेताओं का कालाधन तो किसी स्कूल-कॉलेज के धंधे में लगा है, तो किसी का रियल-स्टेट बिज़नेस में। कहीं कोई फ़र्ज़ी कंपनी बना कर पनामा पेपर्स कांड की तरह बचा है तो कोई चुनावो में पैसा लगा कर जंगल, जमीन, माइंस, रोड के ठेके ले लेता है। कोई कंपनी 2G -3G स्प्रेक्ट्रम से कमाता है या क्रूड ऑयल की चोरी से ब्लैकमनी कमाते हैं।
हो सकता है, इस तरह का कालाधन 500-1000 के नोटों की तरह आतंकवाद को पोषित न करता हो पर ये पैसा भारतीय राजनीती में पूंजीपतियों की लॉबी तैयार कर जल-जन-जंगल-ज़मीन को प्रभावित करने वाले निर्णयों को भी करवाता है। इस तरह के दोहन वाले भ्रष्टाचार के लिए सरकार की क्या योजना है? इस तरह के [envoke_twitter_link]भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने वाले को ‘आर्थिक सुधारो’ का विरोधी क्यों माना जाता है?[/envoke_twitter_link] क्या ये बड़े ताकतवर सिर बच जायेंगे? सरकार को और देश को अभी बहुत बड़ी लड़ाई लड़नी है, जनता तो आज भी उम्मीद से बैंक में कतार लगा के खड़ी हो जाएगी पर क्या सरकार सच में भ्रष्टाचार के हर रूप को खत्म करने में निरपेक्ष हो पायेगी?
जब पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने बैंको के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की थी तो उनके इस निर्णय की बहुत खिलाफत हुई थी पर आज देश उस निर्णय पर गर्व करता है। प्रधानमंत्री श्री मोदी का निर्णय भी ऐसा ही है, ऐतिहासिक तो है पर वर्तमान की विसंगतियों के साथ, क्योंकि अभी परंपरागत खुदरा और थोक व्यापारी जो व्यापार के लिए नकदी रखता है, परेशान होगा, उसे अब बैंक की भीड़ बनना पड़ेगा। इससे घरेलू व्यापार प्रभावित भी हो सकता है, बैंको पर भी काम का दवाब होगा। [envoke_twitter_link]हो सकता है कुछ दिन बैंको-पोस्ट ऑफिस की अफसरशाही आम जनता को भुगतनी पड़े[/envoke_twitter_link] और कितनी भीड़ बैंको में उमड़ेगी, ये देखने वाली बात होगी।
इतिहास बिना बलिदान के नहीं बनता, अगर जनता बलिदान कर रही है तो इतनी उम्मीद तो सरकार से करेगी ही कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में अब बड़े सर भी नहीं बक्शे जायेंगे। हर निर्णय, अच्छे मंतव्य के बावजूद कुछ विसंगतिया लाता है। देखना ये होगा कि सरकार ताकत से निपटेगी या तदबीर से।