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टैक्स और काला धन

रंजन ऋतुराज:

बहुत पहले की बात है, भारत की कई कम्पनी कम्प्यूटर असेंबली का काम करती थी, विप्रो, एचसीएल, ज़ीनिथ इत्यादि। कम्प्यूटर के अधिकतर पार्ट्स पर कस्टम ड्यूटी बहुत ज़्यादा होती थी, जिसके कारण इन तथाकथित ब्रांडों को भी माइक्रोप्रासेसर और मेमोरी के समग्लर पर आश्रित होना पड़ता था।

ये समग्लर दसों उंगली में हीरा और बड़ी-बड़ी कारों में इन तथाकथित कंपनियों में आते थे और पूरे पैसे एडवांस में लेते थे। स्थिति ऐसी थी कि बेंगलौर के कई इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने वाले बिहारी विद्यार्थी पढ़ाई को बीच में ही छोड़, नेपाल के रास्ते माइक्रोप्रासेसर और मेमोरी चिप/हार्ड डिस्क की समग्लिंग करने लगे। इनमे से कई आज के दिन बेंगलौर में किसी आलीशान बंगले में बैठ ‘सॉफ्टवेयर’ का धंधा कर रहे हैं।

फिर जब टैक्स/कस्टम ड्यूटी कम हुआ तो हार्डवेयर की समग्लिंग बिलकुल ख़त्म हो गयी। अभी हाल में ही भारत सरकार ‘इनकम डेकलेरेशन स्कीम’ लायी लेकिन वो फ़ेल हो गयी। कारण यह था की कुल टैक्स क़रीब 45 % था। अगर यही कुल टैक्स 30% होता तो शायद यह स्कीम अकेले 2 लाख करोड़ जमा कर सकती थी।

15 साल पहले तक इनकम टैक्स का स्लैब 60% तक था, उस हालात में एक डॉक्टर या वकील के पास टैक्स चोरी के अलावा कोई चारा नहीं था। आप साल में एक करोड़ कमाए और 60 लाख टैक्स उन हाथों में दे दिए जो आपके पैसे को उड़ा डाले!

देखिए, मानव स्वभाव और सामाजिक संरचना समझिए। हम और आप बिना मतलब के किसी का फ़ोन तक नहीं उठाते हैं, फिर एक अठन्नी भी टैक्स में ज़्यादा देना अखरेगा ही। या फिर सरकार को इतना मज़बूत होना होगा कि, टैक्स से जमा पैसों को सही उपयोग करे। यहां तो कोई सरकार मुफ़्त में टीवी बांट रही है तो कोई लैपटोप। महीने के अंत में सैलरी स्लिप में TDS में कटी कमाई को देख, एक बार तो यही लगता है कि काश यह पैसा सही जगह लगे।

[envoke_twitter_link]टैक्स रिफॉर्म के नाम पर सर्विस टैक्स भी दंड लगता है।[/envoke_twitter_link] दोस्तों के साथ एक हज़ार का डिनर और उस पर ढाई सौ रुपये का टैक्स, सुबह आठ से शाम आठ बजे तक खटने वाले को ये ज़रूर अखरेगा। आप टैक्स सिस्टम अमेरिका/यूरोप जैसा लगाना चाहते हैं और सुविधा के नाम पर कुछ नहीं! यह गलत है।

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