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व्यक्तिवाद और अवसरवाद का गठजोड़ बन चुकी है दलित राजनीति

एक बार बाबा साहेब ने कहा था कि विरोधी मेरे ऊपर कई तरह के आरोप लगाएंगे, लेकिन मेरे चरित्र और मेरी ईमानदारी पर कोई भी आरोप नहीं लगा सकता। शायद यही वजह भी है कि बाबा साहेब के विचार को सभी राजनीतिक पार्टियां एक अहम स्थान देती हैं एवं खुद को दलितों का मसीहा साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती।

रोहित वेमुला की शहादत ने दलित क्रांति में एक नई जान फूंकी है। देश के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में दलित वर्ग के अधिकारों पर खुलकर चर्चा होने लगी है। जिग्नेश मेवानी जैसे युवा साथी इस क्रांति की मशाल को और भी आगे बढ़ाने हेतु प्रयासरत हैं। लेकिन इन सबके बीच आम आदमी पार्टी ने वो काम किया है, जिससे बाबा साहेब की आत्मा को बहुत चोट पहुंची होगी और अगर वो लौटकर आएंगे तो संविधान में खुद संशोधन करेंगे। इस पार्टी को उठाकर प्रशांत महासागर में फेंक देंगे।

आम आदमी पार्टी ने कहा है कि अगर पंजाब में जीतेंगे तो पंजाब का अगला उप-मुख्यमंत्री दलित होगा।

अब बताइए भला, यह राजनीति के निचले स्तर में भी कितना नीचे जा पहुंचा है। अभी तक पार्टी ने पंजाब के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार का नाम भी नहीं घोषित किया है। लेकिन ठीक उससे पहले दलितों के मसीहा और आधुनिक समय के तथाकथित महानतम् नेता भगत सिंह और बाबा साहेब के समावेश अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने उप-मुख्यमंत्री के पद को आरक्षित श्रेणी में डाल दिया है। इसका मतलब साफ है कि अगला मुख्यमंत्री कोई दलित नहीं, सवर्ण होगा और उन्होंने यह तय कर लिया। बाकी दलित समाज यह लॉलीपॉप लेकर उन्हें वोट करे। यही काम संघ, कांग्रेस भी करती रही है।

आम आदमी पार्टी का यह रवैया अब उन सभी परम्परागत राजनीतिक पार्टियों से बिल्कुल भी अलग नहीं रहा जिनका कि राजनीतिक आधार हमेशा व्यक्तिवादी, जातिवादी, अवसरवादी, सिद्धांतविहीन, मुद्दाविहीन और अधिनायकवादी रहा है।

वर्तमान समय की दलित राजनीति बाबा साहेब के विचारों और लक्ष्यों से पूरी तरह भटक चुकी है। यह व्यक्तिवादी और अवसरवादिता का गठजोड़ बन चुकी है। अब इसे एक रैडिकल विकल्प की जरूरत है। बाबा साहेब हमेशा से आंतरिक लोकतंत्र के प्रबल पक्षधर रहे हैं, लेकिन दलित उत्थान की बात करने वाली सभी पार्टियों में सामन्तवाद, अधिनायकवाद अंदर तक समा चुका है।

कुल मिलाकर सभी पार्टियों का दलित वर्ग के प्रति कोई भी स्पष्ट एजेंडा नहीं है जिसके कारण यह वर्ग हमेशा एक व्यक्ति के महत्वकांक्षाओं के आगे घुटने टेक देता है। दलित की राजनीति करने वाले दलित नेता भी ब्राह्मणवादी सोच से अछूते नहीं रहे हैं। समय की मांग है कि अब दलितों के लिए एक स्पष्ट एजेंडा हो जिसमे कि सैद्धांतिक गठजोड़ के साथ-2 उनके औद्योगिक, आर्थिक पक्ष का भी उल्लेख हो। महिलाओं एवं किसानों के लिए एक अलग उन्मूलन अभियान हो। तब कहीं जाकर हम एक मूलभूत क्रांति का बीज बो सकेंगे और बाबा साहेब के जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सही दिशा में अग्रसर हो पाएंगे।

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