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“आसमान में चाँद सितारे हैं, बैंकों के बाहर कतारें हैं…”

सुमित श्रीवास्तव:

प्रधानमंत्री मोदी ने 8 नवम्बर को डिमाॅनिटाइज़ेशन का ‘ऐतिहासिक’ फैसला लिया, इस बात को 15 दिन से ज़्यादा हो गये हैं और ये ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ से भी ज़्यादा फेमस हो गया है, मतलब बच्चा-बच्चा वाकिफ है डिमाॅनिटाइज़ेशन से। तो डिमाॅनिटाइज़ेशन जैसे गंभीर मुद्दे पर बात करने से पहले कुछ लाइट नोट पर बात कर लेते हैं।

जबसे मोदी सरकार आयी है, इन्होंने गंभीर से गंभीर और जटिल से जटिल काॅन्सेप्ट्स को भी आम भाषा तक पहुँचाया है और हम निरीह जनता को खुल के इस्तेमाल करने का मौका दिया है। साल की शुरूआत में आया ‘सेडीशन’, इतना प्रचलित हुआ कि हम इंसानों के साथ-साथ फूल पत्ती, समोसा सबको देशद्रोही ठहराने लगे।

फिर अभी हुआ था, ‘सर्जिकल स्ट्राइक’, प्रधानमंत्री ने खुद डिमाॅनिटाइज़ेशन को भ्रष्टाचारियों के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक बताया था। घरवालों से पैसे माँगने पर अब जवाब मिलता है कि कब तक हमारे सेविंग्स पर सर्जिकल स्ट्राइक करते रहोगे।

खैर, अब आया डिमाॅनिटाइज़ेशन। पहले भी ये शब्द था पर इतने सहज प्रचलन में नहीं था। एक ट्वीट मैंने पढ़ा हाल ही में, “इश्क वो करेन्सी हो जो कभी डिमाॅनिटाइज़ नहीं होती।”

सही है! सरकार, कम से कम फेसबुकिया शायरों के काम तो आ रही है और हमारा ज्ञानवर्धन भी हो रहा है।

बहरहाल।

सरकार कोई भी पाॅलिसी लागू करती है तो सोच समझ के, सारे स्टेकहोल्डर्स को ध्यान में रख के और एक्सपर्ट्स की राय लेकर। साथ में ये भी ध्यान रखती है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। पर इन पाॅलिसीज़ की सफलता समय पर निर्भर करती है। बहुत प्लानिंग के बाद भी कभी-कभी कुछ चीज़ें फेल कर जाती हैं। आप लागू करते वक्त नहीं कह सकते कि ये बिल्कुल सही फैसला था, या बेहद मूर्खतापूर्ण था। जैसे अरविंद केजरीवाल के आॅड-इवेन की सफलता इस बात से तय होगी कि उससे कितना प्रदूषण कम हुआ और जितना कम हुआ, क्या वो जायज था बनाम जो अन्य क्षेत्रों में लाॅस हुआ। तो अंत में डिमाॅनिटाइज़ेशन क्या साबित होगा, इसको हम लोग समय पर छोड़ देते हैं, पर अभी हम लोग इसकी लीगल वैलिडिटी पर बात कर सकते हैं। अलग-अलग अदालतों में याचिकाएँ दायर की गई हैं इसके खिलाफ, जिनकी एक साथ सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करेगी। कुछ महत्वपूर्ण पहलू हैं जिन्हें याचिकाकर्ताओं ने उल्लेखित किया है (Reference- The Wire):-

पहला,

RBI एक्ट, 1934 के सेक्शन 26 (2) के अनुसार, RBI के केन्द्रीय बोर्ड की सिफ़ारिश पर केंद्र सरकार किसी भी मूल्य के बैंकनोट के किसी खास सीरिज़ की कानूनी वैधता समाप्त कर सकती है।

पर उसमें एक तारीख सुनिश्चित करनी होती है कि किस तारीख से ये वैधता खत्म होगी, जो केंद्र सरकार के अधिकार में नहीं आता। केंद्र सरकार तारीख तभी तय कर सकती है, जब वो जनता को इसके लिए पहले से सूचित करे।

दूसरा पहलू है,

डिमाॅनिटाइज़ेशन एक्ट-1978 के अनुसार, इतने बड़े स्केल पर डिमाॅनिटाइज़ेशन राजपत्र से नहीं सूचित किया जा सकता। इसके लिए RBI एक्ट में संशोधन करना पड़ेगा। ये स्केल कौन डिफाइन करेगा, पता नहीं।

एटाॅर्नी जनरल मुकुल रोहतगी का कहना है कि वाकई में जो डिमाॅनिटाइज़ेशन होता है, उसमें पुराने नोट रखना भी अपराध है। तो गोपनीयता रखने के लिए सरकार ने ये सिर्फ डिक्लेयर किया है कि 500 और 1000 के नोट अब वैध नहीं हैं और RBI की तय तिथि तक नोट वापस होने के बाद RBI एक्ट में बदलाव कर दिया जाएगा।

एक पहलू ये भी है कि संविधान के 19वें आर्टिकल के अनुसार लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है।

इसके अलावा, केंद्र सरकार ने ये साफ नहीं किया है कि डिमाॅनिटाइज़ेशन RBI की सिफारिश पर किया गया है या सिर्फ सलाह ली गयी, जिसे कानूनी तौर पर चैलेन्ज किया जा सकता है। और भी कुछ कन्टेन्शन्स हैं जो सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पर ही पता चलेगा।

खैर, अब तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही पता चलेगा कि ये मूव हमें किस लेंस से देखना चाहिए। तब तक के लिए,

“आसमान में चाँद सितारे हैं, बैंकों के बाहर कतारें हैं…”

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