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नोट बदलते ही बदल गए सारे मुद्दें

सुजीत कुमार:

पिछले कुछ दिनों से देश के अन्दर उबाल सा मचा है। और ये ज़्यादातर अखबारों और टीवी डिबेट में दिख रहा है। भोपाल एनकाउंटर, कश्मीर में कर्फ्यू, नजीब का गायब होना, NDTV पर बैन और प्रधानमंत्री का ब्लैक मनी पर चलाया गया हथौड़ा। हालांकि, ऑपरेशन ब्लैक मनी के बाद जैसे लगभग सारे मुद्दे ख़त्म हो गए हों और ये सारे मुद्दें टीवी डिबेट से गायब भी हैं। हालांकि, ट्रम्प की जीत और ब्लैक मनी मीडिया में कदम ताल करता दिख रहा है। लेकिन, इनदोनों में काफी अंतर है और मेरी यह कोशिश है कि इस अंतर को दिखाया जाए।

हम लोकतंत्र को बाकी व्यवस्थाओं से अलग इसलिए भी देखते हैं क्योंकि यह हमे नाचने, गाने, घूमने, खेलने की आज़ादी के साथ साथ न्यायसंगत व्यस्था देता है। इस से परे हमें बोलने, वो भी व्यवस्था और नीतियों के खिलाफ कुछ कहने की आज़ादी देता है। लेकिन, अभी हम किस दिशा में जा रहे हैं, यह सवाल ज़रुरी है और हम सब को खुद से और दूसरों से पूछने की ज़रुरत है। सबसे पहले हम अमेरिका को देखते है, वहां ट्रम्प के राष्ट्रपति चुनावो में जीत के बावजूद, लोग सड़क पर “ट्रम्प मेरा राष्ट्रपति नहीं” की तख्तियां लेकर उतर रहे हैं। इसमें भारी संख्या में नौजवान, छात्र और समाज सेवी के साथ-साथ अमेरिकी अभिनेता भी शामिल हैं। सवाल यह कि लोकतंत्र में जीत जाने पर भी विरोध क्यों?

मेरे हिसाब से वहां लोग लोकतंत्र का विरोध नहीं बल्कि उन नीतियों का विरोध कर रहे हैं जो एक ख़ास तबके के खिलाफ और सामाजिक न्याय के विरोध में हैं। ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि चुने हुए नेता को यह एहसास हो कि वो केवल अब वोट देने वाले मतदाता का नहीं बल्कि पूरी जनता का नेता है और उस एक समेकित और सम्मिलित नीति के दिशा में काम करना है।

दूसरी ओर, हमारा देश भारत, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र। जहां नयी सरकार चुनाव जीतने के बाद से ही आक्रामक मुद्रा में है प्रधानमंत्री के लगभग हर भाषण में भ्रष्टाचार सुनाई देता है और सर्जिकल स्ट्राइक का अंदाज़ भी इतर है। 8 नवम्बर की शाम जब प्रधानमंत्री ने काली कमाई के खिलाफ मोर्चा खोला तो पूरा देश प्रधानमत्री के साथ दिखा। इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है और साथ दिखना भी चाहिए। लेकिन जैसे-जैसे दिन गुज़रे, इसकी खामियों का पर्दाफाश होता गया। लोग सड़कों पर बदहाल दिखे, कुछ खबरें लाइन में खड़े-खड़े दम तोड़ने, कुछ अपनी बेटी के विवाह में कैश नहीं इंतज़ाम करने के कारण।

सबसे बड़ी बात ये रही कि इक्के दुक्के टेलीविज़न इंटरव्यू में दिहाड़ी करने वाले मज़दूर, पूरे गर्म जोशी से प्रधामंत्री की सराहना करते नहीं थक रह थे। साम्यवाद के पुजारी और वामपंथी विचारक भी यदा कदा अखबारों में लेख और भाषण देकर ही सीमित रहे हैं। लेकिन, इस व्यवस्था में अभी भी दिहाड़ी मजदूर, खेतिहर किसान और गुमटी में सामान बेचने वाला व्यापारी, बैंको की तरफ अपने ही पैसे के लिए सुबह शाम दौर रहा है लेकिन शायद हमारी सरकार इस दौर को देशभक्ति के जज्बे से देख रही है। मैं तो बहुत पहले से मानता हूँ कि सबसे बड़ा देश भक्त, रिक्शा खीचने वाला, बड़े बड़े अपार्टमेंट के लिए इट धोने वाला मज़दूर है, शहर को साफ़ रखने वाला सफाईकर्मी है। लेकिन, हमेशा देशभक्ति इसे ही क्यों साबित करना पड़े, जिसके लिए लगभग सरकार हमेशा ही निराशा लेकर आती है।

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