क्या हमने कभी अपने घर में किसी भाई, पिता, पति या किसी और मर्द को बहन, बेटी, पत्नी या मां की हाथों में मेहंदी रचते देखा है? शादी-ब्याह, ईद, करवा चौथ, तीजिया, जीतिया या ऐसे ही किसी मौके पर घर के मर्दों से मेहंदी लगवाती स्त्रियां देखी हैं? जी…मज़ाक नहीं। क्या वाकई देखा है? हममें से ज़्यादातर यही कहते हैं कि यह सब लड़कियां करती हैं। मेहंदी लगाना और रचवाना- उनका काम है। है न!
अब ज़रा घर से बाहर निकलते हैं। पटना के एक बड़े बाज़ार में लाइन से बैठे कुछ मर्द लड़कियों के हाथ पर कुछ करने में जुटे हैं। गौर से देखने पर पता चलता है- अरे, ये तो मेहंदी रच रहे हैं, बहुत ध्यान से फूल, पत्ती, बेल बना रहे हैं। इस बाज़ार में यहां- वहां करीब 40 मर्द इस काम में जुटे दिख जाते हैं। हालांकि ऐसा सिर्फ पटना में नहीं हो रहा, ऐसे मर्द अब हर बड़े शहर के बाज़ारों में खूब देखे जा सकते हैं।
हर काम अच्छा है। मेहंदी तो रचना है, कला है इसे साधना पड़ता है। जिसने भी इस कला को साध इसलिए वह यह काम कर सकता है। इसलिए, सवाल यह नहीं कि हम मर्द इसे क्यों कर रहे हैं। सवाल यह है कि सदियों से घरों में मेहंदी लगा रहीं लड़कियां और इस कला को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने वाली हमारे घर की लड़कियां या महिलाएं बाजार में यह काम करते क्यों नहीं दिखतीं हैं?
हमारे समाज में काम का बंटवारा और दायरा तय है। घर के दायरे में होने वाला काम लड़कियों के हैं। उन्हें चौखट के अंदर रह कर काम करना है। इसलिए वही काम जो घर की चारदीवारी के अंदर स्त्रियां बड़ी खूबसूरती से करती हैं, घर के बाहर निकलते ही हम मर्दों का हो जाता है। इसे एक और तरीके से यों कहा जा सकता है कि जैसे ही स्त्रियों द्वारा सदियों से सहेजे किसी हुनर को दुनिया को दिखाने का मौका आता है और उससे आमदनी दिखने लगती है, हम मर्द उस पर काबिज हो जाते हैं। यानी पैसे वाला काम हम मर्दों का।
हम अपने घर की ही लड़कियों को ऐसे आमदनी वाले काम में ‘बाहर’ आगे नहीं बढ़ाते। तब हमें अपने ‘खानदान की इज़्जत’ और ‘मूंछ का ख्याल’ आने लगता है। इसीलिए, जो मर्द घर में चाय तक नहीं बनाते वे होटलों में फूली-फूली रोटी सेंकते हैं और नामी बावर्ची हो जाते हैं। जो घरों में पानी तक खुद नहीं पीते, बाहर बड़े अदब से दूसरों को पानी पिलाते हैं। सिलाई-कटाई घर के अंदर लड़कियों का काम माना जाता है, वही काम लड़कों को बड़ा टेलर मास्टर या डिज़ायनर बना देता है।
सड़क किनारे लगे ठेलों, खोमचों, ढाबों, बाज़ारों पर नज़र डालें तो साफ दिखता है कि ढेरों ऐसे काम जो घरों में सलीके से लड़कियां करती आ रही हैं, बाज़ार में उन्हीं से मर्द अपनी आर्थिक हालत मज़बूत कर रहे हैं। … और कमाल देखिए, घर में लड़कियों वाले काम बाज़ार में करने से हम मर्दों की इज़्जत कतई नहीं जाती।
आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि आर्थिक गतिविधियों में स्त्री समुदाय की भागीदारी, मर्दों के मुकाबले कम है। सन 2011 की जनगणना के मुताबिक, किसी तरह के काम में मर्दों की भागीदारी का दर लगभग 58.63 फीसदी है। दूसरी ओर, स्त्रियों के काम में भागीदारी का दर महज़ 29.25 फीसदी है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी 2004-05 में 37 फीसदी थी। यह 2009-10 में घटकर 29 फीसदी पर पहुंच गई। इस रिपोर्ट में आईएलओ के पास दुनिया के 131 देशों के आंकड़े हैं। महिलाओं की काम में भागीदारी के लिहाज़ से भारत का स्थान नीचे से 11वें पायदान पर है। आईएलओ के एक अर्थशास्त्री की टिप्पणी है कि आर्थिक वृद्धि दर तेज़ होने के बावजूद स्त्रियों की श्रम में भागीदारी शहरी और ग्रामीण इलाकों में घटी है।
यह सोचने वाली बात है कि एक तरफ लड़कियों की पढ़ाई में तेज़ी आई है तो वहीं दूसरी ओर, महिलाओं के काम का हिस्सा बढ़ने की बजाय घट रहा है। मुमकिन है, सामाजिक समूहों की बढ़ती आर्थिक मज़बूती महिलाओं को घर के दायरे में ही ‘सम्मानित’ रखने पर इज़्जतदार महसूस करती हो।
इसकी एक वजह तो यह है कि हमारा समाज मुंह अंधेरे उठकर देर रात तक जुती रहने वाली स्त्रियों के काम को ‘काम’ के दर्जे में नहीं रखता है। यही नहीं स्त्रियों के काम का बड़ा हिस्सा अवैतनिक भी है। यह उसकी ज़िम्मेदारी और स्त्री धर्म में शामिल है। श्रम में महिलाओं की भागीदारी कम होना न सिर्फ स्त्रियों के हक में बुरा है बल्कि समाज और देश के हित में भी खराब है। एक अध्ययन कहता है कि अगर काम में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी तो आर्थिक वृद्धि दर भी तेजी से बढ़ेगी।
इन सब बातों के साथ, एक बड़ा सवाल है कि जो लोग काम करने को तैयार हैं या काम करने लायक हैं उनके लिए श्रम बाज़ार में ‘काम’ कहां है? अगर कहीं कुछ काम है या काम के अवसर आ रहे हैं, तो सामाजिक ढांचा उन्हें मर्दों को पहले लेने का अवसर दे रहा है। शहरों में महिलाओं की काम में भागीदारी पहले भी कम थी लेकिन धीरे-धीरे गांवों में भी अब उनके लिए काम के मौके घट रहे हैं।
इसलिए, हम मर्द खूब काम करें, मेहंदी रचते मर्द भी बड़े अच्छे लगते हैं। मगर कितना अच्छा हो, अगर हम ये काम घर के अंदर भी करें। यानी घर की लड़कियों को मेहंदी लगाएं, रोटी सेकें, प्याज़ काटें, पानी पिलाएं… अगर हमें ये ज़्यादा कठिन लग रहा है तो एक दूसरा उपाय भी है। बाहर भी लड़कियों को ये सारे काम करने दें, उन्हें बाहर काम करने का बेहतर माहौल दें। मेहंदी लगाती या दूसरे काम करती लड़कियां/ महिलाएं सिर्फ घरों में ही नहीं, बाज़ार में भी दिखें। वे भी अपने लिए कुछ पैसा हासिल करें। अपने पैरों पर खड़ी हों, अपना मुस्तकबिल खुद बनाएं। अच्छा रहेगा न!
(पहली बार प्रभात खबर में प्रकाशित)
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Niraj Bahadur Pal
Nasiruddin ji, Yah sach hai ki hal ke do decades mein women participation ghati hai, lekin uske kai karan hain. Jis ILO ki report aap chenp rahe hain, us ILo report ko poora padha jana bhi chahiye aur aap jahan se isko utha rahe hain, shayad wah jagah sahi nahi ho sakti hai. yahan khabar banane mein aap thode peechhe ho gaye. Yah sirf bharat mein hi nahi balki poore vishwa ki sthiti hai, Bharat ya east asia jaise desh jahan ab bhi dharmik kureetiyan gahre tak vidyaman hai, wahan bharat jaise desh ka contribution jo ki 24% hai, use kam karke aankna galat hoga. World bank ke anusar yah sthiti 28% se 24% huyi hai, aise kyun hai, aaiye jara iske karanon par nazar daalte hain. Beete decades me Infrastructure aur naukri ki opportunity achhi khasi badhi hai, aur wahan bhi jahan naukri ke opportunity nahi thi, wahan opportunity paida hui. To pahle research mein jahan 10 12 shahar aate the, aaj un shaharon ki sankhya badh gayi hai, is tarah male aur female ka population bhi aur unka yogdan bhi badha hai, lekin agar hum use percentage ki nigah se dekhein, to unka percentage ghata hai. Har ek baat ko agar positive rtareeke se rakh jay to uska jyada asar padta hai, global mandi ke bavjood, bharat mein rojgar ke srijan hote rahe, agar main apni cimpany ki baat karun to beete do saalon mein yahan femal percentage 35% se 40% hua hai, yah ek pahal hai, aur uska swagat kiya jana chahiye. aur aisa lagbhag har jagah ho raha hai, jaise jaise shahar badhenge, unki sankhya badhegi, aane wle samay mein yah ho sakta hai ki thoda percentage aur ghate lekin no of wopmen working are going to increase. if you see. And in a decade, you will see that the percentage will be sky rocketed. this is how economy and stat works. Agar baat buri lagi ho to khama kijiyega but this can be presented in a different way that’s what I meant. Also, please pull out the complete report of ILO and World Bank as well, and read and analyse the complete report. there are more positive things than writing about negative. Dhanyavaad.