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आगे बढ़ते देश में बिखरते विश्वविद्यालय

दीपक भास्कर:

किसी भी देश को देखना हो तो उस देश के विश्वविद्यालय को देखना चाहिए। अगर वहां सब ठीक हो रहा है तो आश्वस्त हो जाना चाहिए कि देश में सब कुछ ठीक हो रहा है। विश्वविद्यालय किसी भी देश की वह आदर्श स्थति होती है जहां आप सभी तरफ के व्यभिचार से परेशान होकर पहुंचते हैं, वो महसूस करने जो शायद आप बाहर देख नही पाते। वहां पहुंच कर आप सुकून भरी सांस लेकर कह उठते हैं कि काश! हमारा देश भी ऐसा ही होता।

[envoke_twitter_link]विश्वविद्यालय में हर ‘आदर्श स्थिति’, प्रैक्टिकल से भी ज़्यादा  प्रैक्टिकल लगती है।[/envoke_twitter_link] वो सब कुछ जो बाहर यह कह कर नकार दिया जाता है कि ये संभव नही है, यहां पर ज़मीन पर उतरा हुआ, प्रैक्टिस होता हुआ दिखता है। जात-पात, ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, काला-गोरा, परिवारवाद, ब्राह्मणवाद, भाई-भतीजावाद जो कि समाज का एक अंगीभूत सत्य है, विश्वविद्यालय में आते ही इनकी कब्र खोद दी जाती है और उस सपने के ‘देश’ को ज़मीन पर लाया जाता है।

बहरहाल, किसी भी देश की तरक्की उस देश के विश्वविद्यालयों पर ही निर्भर करती है। दुनिया के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि, पहले किसी भी देश का विश्वविद्यालय बेहतर होता है और फिर वो देश दुनिया भर में अपनी सत्ता कायम कर पाता है। ब्रिटेन से पहले ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज ने परचम लहराया। हार्वर्ड और एमआईटी ने अमेरिका को पहचान दिलाई। चीन के भी कई विश्वविद्यालय अब दुनिया के जाने-माने विश्वविद्यालयों में से एक हैं। अमरीका में रहकर ही नोआम चोमस्की, पॉल क्रुगमन जैसे लोग सरकार की गलत नीतियों की खिलाफत करते हैं और अमेरिका के सबसे प्रिय भी हैं।

विश्वविद्यालयों का काम भी तो यही है कि भटकते देश को सही रास्ता दिखाना, देश की सरकार पर नकेल कसना। विश्वविद्यालय किसी भी राजनैतिक पार्टी की जागीर नहीं बल्कि उस देश के लोगों की सबसे ‘बड़ी और प्रखर पार्टी’ होती है, उनकी आवाज़ होती है। तमाम पार्टियों के लिए, जनमानस महज़ ‘एक वोट और संख्या’ हो सकता है लेकिन विश्वविद्यालय तो हर व्यक्ति को नागरिक मानता है और उसके नागरिक अधिकारों की लड़ाई की अगुआई भी करता है।

लेकिन यह तब होता है जब विश्वविद्यालय अपने को देश में फैले करप्शन से अलग कर आदर्श स्थिति पैदा करता है। अब सवाल यह है कि क्या हमारे विश्वविद्यालय वो आदर्श स्थापित कर पा रहे हैं जिन आदर्शों की समाज को ज़रूरत है? क्या हमारे विश्वविद्यालय समाज से आगे जाकर सोच पा रहे हैं? असल में, अब विश्वविद्यालय समाज से आगे नही बल्कि कई मामलों में समाज से भी पीछे चले गए हैं। कभी विश्वविद्यालय पर ये आरोप लगता था कि पता नही लोग यहां क्या-क्या सोचते हैं, जो बिलकुल अलग है, समझ से परे है। विश्वविद्यालयों पर शायद ये आरोप सही था और अच्छा भी था।

विश्वविद्यालयों पर समाज से अलग सोचने के आरोप का ख़त्म होना, हमारे विश्वविद्यालयों के ख़त्म होने की कहानी है। जहां समाज तमाम तरह के “वाद”(जातिवाद, ब्राहमणवाद इत्यादि) में फंसा हुआ है वहीं विश्वविद्यालय को इन ‘वाद’ से बाहर निकलकर, एक संवैधानिक राष्ट्र के निर्माण की तरफ बढ़ना होता है। लेकिन अब विश्ववद्यालय तमाम तरह के “वाद” का बेहतरीन उदहारण हो गया है। ‘भाई-भतीजावाद’ से ग्रसित, विश्वविद्यालयों में ज़्यादातर नियुक्ति (अपोइन्टमेंट), पदोन्नती ‘जातिवाद, क्षेत्रवाद, परिवारवाद, सगे-सम्बन्धीवाद’ के आधार पर ही हो रहा है।

सब कुछ वैसा ही जैसा हमारे समाज में होता रहा है। हम सबके फादर हैं लेकिन विश्वविद्यालय में नियुक्ति के लिए आपको एक ‘गॉडफादर’ की ज़रुरत होती है। अगर वो है! तो आप मेरिटोरियस हैं, अन्यथा बस योग्य-अभ्यर्थी ही होते हैं। ऐसा नही है कि बस आपने इंटरव्यू में बेहतर किया और आश्वस्त हो गए, बल्कि इसके अलावा जो सब कुछ करना होता है वो इंटरव्यू से कही ज़्यादा  महत्वपूर्ण है। अगर बोर्ड मेम्बर आपकी “जाति, धर्म, क्षेत्र” के हैं तो आपको एक सहजता का आभास होने लगता है। ये सहजता ही करप्शन की शुरुआत है। अगर आपके ‘गॉड-फादर’ हैं या आपके गाइड या सुपरवाइज़र उस बोर्ड में है तो फिर ये और भी आसान हो जाता है, इन सभी के साथ, आपके निजी सम्बन्ध अच्छे होने निहायत ज़रुरी हैं। अब ये अलग बात है कि अच्छे सम्बन्ध तो वैचारिक सहमति से ही बनते हैं, ना कि असहमति से।

वैसे! कुछ अपवाद भी होते होंगे लेकिन अपवाद का उदहारण होना ही किसी भी समस्या की धुंधली तस्वीर पेश करता है। अब यहां छात्र को ‘गॉड’ नही बल्कि ‘गॉडफादर’ को खोजना नित्यांत आवश्यक हो जाता है। एक रिसर्चर के लिए रिसर्च करने से बड़ा काम इस ‘गॉडफादर’ को खोजना होता है। इन तमाम वर्षों में, इन सभी से आपके सम्बन्ध एक सामान गति से चलना ज़रूरी होता है, जबकि आम-जीवन के सम्बन्ध में उठा-पटक की गुंजाईश हर वक्त रहती है। अगर आपके सम्बन्ध अच्छे हैं तो शुरू से लेकर अंत तक, यह प्रोसेस बहुत ही आसान है। अन्यथा आप उस कतार में शामिल हैं जहां पर कुछ “शुरू” नही होता बल्कि सब कुछ “ख़त्म” हो जाता है।

विश्वविद्यालय तो हो रहे परिवर्तन की प्रक्रिया को और तेज़ करने का नाम है, लेकिन अब यहां अक्सर कहते सुना जा सकता है कि इससे पहले भी यही होता था तो अब क्यूं चिल्लाहट मची हुई है। जो होता था अगर वही होगा तो साफ़ है विश्वविद्यालय एक समय पर जाकर स्थिर हो गया है। अगर विश्वविद्यालय एक समय-काल में रुक गया है, तो हमें मान लेना चाहिए की देश की तरक्की में सबसे बड़ा बाधक यह विश्वविद्यालय ही होगा।

अब मंज़र यह है कि समाज भी, विश्वविद्यालयों के पथ-प्रदर्शन का मोहताज नही बल्कि खुद अपना मार्ग प्रशस्त कर रहा है। जहां समाज में जाति, धर्म, आदि-आदि टूट रहे हैं, वहीं विश्विद्यालयों में मजबूत हो रहे हैं। ऐसा नही है कि समाज बहुत अच्छा हो गया है, लेकिन इस बात से कोई इंकार नही कि विश्वविद्यालयों ने समाज की सभी कुरीतियों को अपना लिया है और अपने को समाज से अलग कहने में विफल हो गया है।

कभी विश्वविद्यालय में आत्म-सम्मान को लेकर सबसे ज़्यादा  सजग किया जाता था, लेकिन आज आपको सबसे पहले आत्मसम्मान की तिलांजलि देने को कहा जाता है। अब यह भी एक सच है कि, समाज में आत्मसम्मान की लड़ाई विश्वविद्यालयों से कही ज़्यादा  तेज़ है। [envoke_twitter_link]विश्वविद्यालों की जर्जर स्थिति, देश की जर्जर स्थिति के लिए सबसे ज़्यादा  ज़िम्मेदार है।[/envoke_twitter_link] अगर विश्वविद्यालय समाज से सौ कदम आगे चल रहा है, अलग सोच रहा है, हमारे दकियानूसी विचारों की खिलाफत कर रहा है तो खुश हो जाइए, आपका देश अवश्य आगे बढ़ रहा है।

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