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अपनी किताब ‘बिहार से तिहाड़’ पर कन्हैया कुमार से सीधी बातचीत

अभिषेक झा:

JNU के कन्हैया कुमार पिछले कुछ दिनों में जितना चर्चा में थे उसके बाद राष्ट्रीय राजनीति में उनके संभावित भविष्य को नकारा नहीं जा सकता है। कन्हैया, JNU में 9 फरवरी को लगाए गए देश विरोधी नारों के बाद मीडिया और देश के लिए चर्चा बने, वो तब JNU  छात्र संघ के अध्यक्ष थे। इस वाकये के बाद राष्ट्रद्रोह के आरोप में कन्हैया को गिरफ्तार किया गया लेकिन आरोप सिद्ध ना होने की वजह से पहले 6 महीने की आंतरिक ज़मानत पर बाहर आएं जिसे बाद में नियमित ज़मानत में बदल दिया गया। कन्हैया के जेल ने राष्ट्रभक्ति के बहस को एक नया मोड़ दिया और पुलिस की भारी सुरक्षा के बावजूद सुप्रीम कोर्ट को उनकी सुरक्षा के निर्देश देने पड़े।

जेल से निकलते निकलते कन्हैया एक बेहद ही चर्चित युवा चेहरा बन चुके थे। जेल से बाहर आने के बाद JNU के फ्रीडम स्क्वायर(एडमिन ब्लॉक) पर दिये गए कन्हैया के भाषण को ना सिर्फ लाईव प्रसारित किया गया बल्कि अगले दिन की अखबारों की सुर्खियां भी बनाई गई। कन्हैया के नारों को गानों का शक्ल भी दिया गया। कन्हैया ने इन सबको समेटते हुए यादों को किताब की शक्ल दी है, सफरनामे का नाम है ‘बिहार से तिहाड़’ जिसे जल्द ही हिंदी और इंग्लिश दोनो भाषाओं में प्रकाशित किया जाएगा। कन्हैया ने इस किताब में बिहार में शुरुआती दौर में अपने विचारों के विकास से लेकर अपने तिहाड़ तक की यात्रा को समेटा है। किताब पब्लिश होने से पहले Youth Ki Awaaz के अभिषेक झा ने कन्हैया की यात्रा को अपने सवालों के कुछ स्टॉपेज पर रोका, पढ़िए कन्हैया कुमार से अभिषेक झा की बातचीत।

अभिषेककिताब लिखने के पीछे इंस्पिरेशन क्या रही?

कन्हैया– देखिये इंस्पिरेशन तो कुछ ख़ास नहीं रही बस घटनाक्रम के साथ में इवेंट्स जुड़ते चले गए और ये आ गया। जब जेल से निकल कर के आया तो पत्रकारों ने पूछा कि आपने कुछ जेल डायरी वगैरह लिखी है क्या? हमने कहा हाँ कुछ लिखा तो है, फिर उन्होंने पूछा कि क्या आप उसको पब्लिश करेंगे? उस वक्त हमने कहा कि सोचा नहीं है। फिर मेरे दोस्तों ने सलाह दिया कि लिखना चाहिए। बात सिर्फ एक इंसान की नहीं है, उस पूरे के पूरे सिचुएशन को लोगों के बीच में ले जाना चाहिए कि एक्चुअली मसला क्या था। फिर हमने डिसाइड किया कि इसको किताब की तरह लिखते हैं।
हम बोले कि फिर तो बिहार से शुरू करना पड़ेगा, क्योंकि बिहार से ही तिहाड़ आये हैं। आप जहां जन्म लेते हैं, कैसे आपका अपब्रिंगिंग होता है, कैसी पढाई होती है उसका आपके सोच पर क्या असर पड़ता है? क्योंकि मैं जेल अपनी सोच कि वजह से गया और वो सोच मेरी सोच नही है। वो समाज के एक बड़े हिस्से की सोच है।

अभिषेकआप और भी कई आंदोलनकारियों से, एक्टिविस्ट्स से मिलते रहे हैं और अभी आपके साथ खुद भी एक मूवमेंट के दौरान डायरेक्ट एक रिप्रेशन हुआ, आपको अपने खुद के एक्सपीरियंस से और दूसरों के एक्सपीरियंस से क्या सीखने को मिला और क्या सिमिलैरिटीज़/ डिफरेंसेस देखते हैं?

कन्हैया– समाज के अंदर जो एक बड़ा हिस्सा है हैव-नॉट्स का जिनके लिए आज भी जो है जस्टिस बहुत दूर कि चीज़ है, उन सबकी कहीं न कहीं ये एक कहानी है। तो बहुत सारी सिमिलैरिटीज़ हैं, जैसे एक आम इंसान के लिए एजुकेशन लेना कितना डिफिकल्ट होता है और जब वो एजुकेशन लेता है और सीखता है और अपनी आइडेंटिटी को ट्रेस करने कि कोशिश करता है तो देखता है कि किस तरीके से इतिहास में उसको लेके एक डिनायल है।
जैसे कि आप देखिये कि रोहित वेमुला, किस तरीके से उसकी माँ लिटरली मज़दूरी करके अपने बच्चे को एक अच्छे इंस्टिट्यूट में भेजती है और जो उसका दर्द है, उस दर्द को लेकर वो लड़ता है। आपको मालूम होगा कि उन लोगों के ऊपर भी याकूब मेमन के समर्थक होने का आरोप लगा। हम लोगों के ऊपर अफ़ज़ल गुरु के समर्थक होने का आरोप लगा। दरअसल हम लोगों का न याकूब मेमन से कोई लेना देना है न अफ़ज़ल गुरु से लेना देना है, हम जो सोसाइटी में इनजस्टिस है उसके खिलाफ हैं क्योंकि वो जस्टिस हमारा भी है, व्यक्तिगत भी है और वो सामूहिक भी है।
डिससिमिलैरिटी ये होती है कि अलग-अलग रीज़न के लोगों के जो चैलेंजेज होते हैं वो थोड़े डिफरेंट होते हैं, लेकिन उसका कोर जो है न वो एक ही होता है। मतलब वो हायरारकी और वो एक्सप्लॉयटेशन जो है वो एक होता है। उसके मैनिफेस्टेशन ऑफ आपरेशन भले अलग अलग होते हैं।

अभिषेकऔर भी यूनिवर्सिटीज़ में आप गए हैं, आपके ऊपर या उमर, अनिर्बान के ऊपर काफी हाईलाइट रहता है, इस बीच दूसरे यूनिवर्सिटीज में जो स्ट्रगल्स हैं उनपे उतना फोकस नहीं होता है।

कन्हैया– देखिये जेएनयू के साथ कुछ एडवांटेज है। कैपिटल सिटी में है, प्रीमियर इंस्टिट्यूट है। लेकिन ये सबसे ज़्यादा एक महत्वपूर्ण चीज़ है कि जेएनयू हमेशा से इस्टैब्लिशमेंट के खिलाफ रहा है।
दूसरा क्या है कि जेएनयू अब थोड़ा बदला है। अब उसके यूनियन में ऐसे लोग भी आ रहे हैं जो बहुत ही डिप्राइव्ड हैं, बहुत ही कमज़ोर हैं- इकोनॉमिकली, सोशली। तो जेएनयू का एक सीधा संवाद जो है मास के साथ हो पा रहा है। उसकी वजह से जो है रिप्रेशन भी मल्टीपल डायरेक्शन में बढ़ा है, क्योंकि सरकार को लगता है कि अब ये अगर बिलकुल समाज के अंतिम व्यक्ति के पास पहुँच गया है तो ये विचारधारा और ये लड़ाई मजबूत हो सकती है। तो मीडिया जो पीछे आती है उसमे लार्जली क्या होता है? उसमे तो ज़्यादा नेगेटिव चीज़ें निकल कर के आती हैं। बाकी आप तो जानते हैं कि हर इंडस्ट्रीज का अपना एक मार्केट का डायनामिक्स होता है।
और ये बात बिलकुल आपकी सही है कि दूसरी यूनिवर्सिटीज में ज़्यादा बड़ी-बड़ी लड़ाई लड़ी जा रही है,  उसको मीडिया का उतना अटेंशन नही मिलता है, लेकिन जेएनयू कि यही खासियत है कि वो देश भर के आंदोलनों को अपने साथ जोड़ता है। इसलिए शायद इसकी ज़्यादा एक्सेप्टेन्स है।

अभिषेकआपके किताब में भी आपने लिखा है कि जेएनयू के बाहर कास्टिज़म दिखता है और जेएनयू के अंदर थोड़ा छुपा हुआ है, ये जेएनयू के अंदर वाली लड़ाई अभी तक खत्म क्यों नही हुई है?

कन्हैया– देखिये जेएनयू भी तो इसी समाज का हिस्सा है। आप इंडियन पर्सपेक्टिव से इंडियन यूनिवर्सिटीज़ कि तुलना में जब देखेंगे तो आपको बेहतर लगेगा लेकिन इसका ये तो मतलब नहीं है कि वहाँ प्रॉब्लम नहीं है। अच्छी बात ये है कि उन प्रॉब्लम्स के खिलाफ लड़ाई जारी है.
जैसे मैं बिहार में था, तो ये जो है यादवों का हॉस्टल है, ये भूमिहारों का, ये राजपूतों का, ये पटेलों का, ये दलितों का। ये एक सेग्रीगेशन आपको दिखेगा। जेएनयू में ऐसा नहीं दिखता है।
लेकिन यहाँ क्या है कि लाइक-डिसलाइक के आधार पे जो है लोग कास्टिज़म को ऑपरेट करते हैं, कि मने ऐसा क्यों होता है कि एक पर्टिकुलर कास्ट के टीचर के अंदर एक पर्टिकुलर कास्ट के ही ज़्यादा स्टूडेंट्स मिलते हैं?  हो सकता है कि अनकॉन्शियस हो, लेकिन अनकॉन्शियस चीज़ों के खिलाफ भी तो लड़ना पड़ेगा। उस सेंस में हमने कहा है कि जेएनयू का जो है लाइक डिसलाइक में कहीं ना कहीं कास्ट एंगल है और वो बहुत ही अंडरकवर्ड है। उसके खिलाफ भी लड़ने कि ज़रूरत है। मैं इस प्वाइंट को हाईलाइट करने कि कोशिश कर रहा था।

अभिषेकइस मामले में लेफ्ट पार्टीज़ के ऊपर क्रिटिसिज्म होता है कि रिप्रजेंटेशन नहीं है। तो मुझे सरप्राइज़िंग लगा कि सारी पार्टीज़ का क्रिटिसिज्म है पर सीपीआई-एआईएसएफ का क्रिटिसिज्म थोड़ा कम है।

कन्हैया– नहीं मेरा ये कोई कॉन्शियस एफर्ट नही है कि किसी का कम, किसी का ज़्यादा। एक शेर है ना कि मोहतरम को मोहतरम कहना, ना किसी को ज़्यादा ना किसी को कम कहना। तो लेफ्ट पार्टी कि जो मास रही है वो बेसिकली डिप्राइव्ड मास रही है। लीडरशिप में भी लोग रहे हैं, और ये क्रिटीक जायज़ भी है। उसको डिनाई नहीं कर सकता हूँ। लेकिन वो स्ट्रक्चरल ओप्रेशन नही है, क्योंकि वो कास्ट तो मानते ही नहीं थे ना। जो कास्ट मानते हैं वो डेलिबरेटली नही आने दिए। जो मानते ही नहीं थे उनके लिए तो सवाल ही नहीं था। अब मानना शुरू किये तो नाउ दे आर वेरी कॉन्शियस अबाउट दैट (रिप्रजेंटेशन)।

अभिषेकअभी प्रोटेस्ट्स चल रहे हैं नजीब के लिए, उसमे आप नही हैं।

कन्हैया– एक्चुअली क्या है ना कि एक तो मैं अब इलेक्टेड यूनियन का हूँ नहीं, मेरे पास लीडरशिप नहीं है, और पहले से जो है जिम्मेवारी अब दूसरे लेवल की हो गई है, लड़ाई जेएनयू के अंदर आज सिर्फ जेएनयू के अंदर की नहीं है। तो आज के समय में कैंपस में तो बहुत सारे लोग हैं,  इलेक्टेड यूनियन है। बाहर जाकर के लोगों को बताना कि व्हाट वी आर, व्हेयर जेएनयू स्टैंड्स-ये भी एक काम है। दोनों ज़रूरी काम है। तो मैं उस काम में रहता हूँ, जब कैंपस में होता हूँ तो शामिल होता हूँ। जब आप सेन्टर ऑफ़ द स्टेज नही होते हैं तो ढूंढना मुश्किल होता है। वरना प्रोटेस्ट में तो जाते ही हैं।

अभिषेकक्या ये बाहर जाकर एक्सप्लेन करने कि ज़रूरत 9 फरवरी के बाद महसूस हुई है?

कन्हैया– नहीं, मेरा व्यक्तिगत मत है इंटेलेक्चुअल को…वो ऑर्गेनिक होना चाहिए, ग्राम्सी कहते थे। और ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल सिर्फ वही इंटेलेक्चुअल नहीं हैं जो यूनिवर्सिटीज़ में रहते हैं। वो भी हैं जो खेत में काम करते हैं, आप उनको अपनी बात कहेंगे तो वो भी अपनी बात कहेंगे, तो एक ऑर्गेनिक लिंक बनेगा। ये डिसकनेक्शन की वजह से ही जो है राईट विंग या फ़ासिस्ट फोर्सेज जो हैं सोसाइटी में ऑपरेट कर रही हैं या रिग्रेसिव आइडियाज़ जो हैं। जब रैशनल चीज़ें नही पहुंचेंगी तो रिग्रेसिव चीज़ें तो हैं ही पहले से। वो तो धारा के साथ हैं जबकि धारा के विपरीत की चीज़ों को पहुँचाने के लिए ज़्यादा मेहनत करना पड़ता है। ज़रूरत पहले से ही महसूस हो रही थी, इस इंसिडेंट होने के बाद वो ज़रूरत और ज़्यादा बढ़ गयी है।

अभिषेकये डिसकनेक्शन प्रगतिशील फोर्सेस का आपको महसूस होता है?

कन्हैया– हमने पब्लिकली इसको एक्सेप्ट किया है, मैंने कहा है कि हमारी जो टर्मिनोलॉजी होती है वो आम लोगों के समझ में नहीं आती है। हम जिस तरीके से समझाते हैं वो नहीं समझते हैं। हमें लोगों के तरीकों से अपनी बात समझानी पड़ेगी। प्रगतिशील आंदोलन कुछ ख़ास एरिया में ही सिमट के रह जाता है। मैंने तो कहा ही हौज़ खास विलेज में बैठकर जो विलेज का डिस्कशन होता है वो एक्चुअली हौज़ खास विलेज का डिस्कशन विलेज में होना चाहिए।

अभिषेकआगे आपका क्या प्लान है? आगे क्या करना चाहते हैं?

कन्हैया– हमारा मानना है कि ज़्यादा आगे क्या ही सोचेंगे, दुनिया इतनी तेज़ी से बदल रही है। अभी मैं इतना ही सोच पा रहा हूँ कि मैं पीएचडी कर लूँ और सरकार की अगर मेहरबानी रहेगी जो कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हैं मेरे ऊपर तो कहीं अगर टीचर का जॉब मिल जाए। बट बीइंग इन पॉलिटिक्स आई विल ऑलवेज़ पार्टिसिपेट इन ऑल द मूवमेंट्स(लेकिन राजनीति में होने की वजह से मैं हमेशा आंदोलनों का हिस्सा बनता रहूंगा)। और हम कोशिश करेंगे कि जिन-जिन सवालों को हमने उठाया है उसको लेके एक कंक्रीट स्ट्रगल सोसाइटी में हो।

अभिषेकआपके जो एस्पिरेशन थे बचपन में जैसा आपने किताब में बताया है उसमें क्या कुछ बदलाव आया है बचपन से अब तक?

कन्हैया– पहले सोचते थे मैं जाऊंगा, अब सोचते हैं हम जाएंगे। यही एक फर्क आया है। अब लगता है कि हम करेंगे क्योंकि जब हम कहते हैं कि सामाजिक प्राणी हैं तो सोशल ट्रांसफॉर्मेशन से ही हमारा ट्रांसफॉर्मेशन भी…उसमें स्टेबिलिटी रहेगी। मतलब आपके पास मकान है, शीशे का मकान है, बगल में झोपड़ी है, किसी रात में जो है घर में हमला हो जाएगा। शान्ति कैसे होगी? जब तक डिस्पैरिटी रहेगी तब तक शान्ति नही रहेगी, ये एक बात है।

(कन्हैया कुमार की किताब ‘बिहार से तिहाड़ ‘ Juggernaut Books ने पब्लिश की है, जल्द ही फॉर्मल लॉन्च के साथ Juggernaut app और बुक स्टोर्स में उपलब्ध होगी)

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