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“हम वो बेशर्म औरते हैं जो हर पिंजरा तोड़ना जानती हैं”

यूथ की आवाज़:

तारीख में ऐसी तारिखें बार बार आई हैं, जब औरतों ने हर जगह बिजलियां गिराई हैं,

गर ये बात आपको छूती नहीं है तो यकीन मानिए वक्त भी आ चुका है और ऐसे लोग भी हैं जो आपकी सोच पर बिजलियां गिरा के दम लेंगे। उन बिजलियों से ढह जाएगा, जल जाएगा हमारे और आपके पितृसत्ता के अहंकार का पहाड़। लड़ाई तो फिर भी जारी रहेगी किसी ना किसी समानता की लेकिन लिंग देख कर किसी को एक किरदार नहीं अदा किया जाएगा।

क्रांति की मशाल लिए पिंजरा तोड़ की सबिका नक़वी ने जब कॉनवर्ज 2016 में बोलना शुरु किया तो जैसे देश के सारे प्रिमियर यूनिवर्सिटीज़ में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव एक के बाद एक टूटते नज़र आएं।

“फ्रिडम की आईडिया पर बात करते हैं, सदियां बीत गई, साढ़े तीन सौ साल के बाद हम आज भी आज़ादी की बात कर रहे हैं, आज़ादी क्यों एक वर्ग तक सीमित हैं, हम आज़ाद हो गए हैं, हमारी औरते आज़ाद क्यों नहीं हैं?आज भी भेदभाव हमारे समाज में है, जब मैं दिल्ली विश्वविधालय में आई लगा कि भेदभाव नहीं होती होगी यहां, यकीन मानिए हमारे देश के सबसे अच्छे यूनिवर्सिटी में भी पितृसत्ता हमारे खाने के जैसे प्लेट में परोस के दी जाती है।”

सबिका , पिंजरा तोड़ मूवमेंट का हिस्सा हैं जो हमारे देश के छोटे-बड़े सभी यूनिवर्सिटीज़ में महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव के खिलाफ पिना सिर्फ आवाज़ उठाती है, बल्कि उन्हें जड़ से उखाड़ने की बात भी करती है। सबिका कहती हैं 1956 में 9.30 बजे का कर्फ्यू था अब 10 बजे का 70 साल में आधा घंटा, सड़क पर लोगों को आज भी लगता है कि औरतें उनकी सत्ता है, और वो सीने पर मर्दानगी का तमगा लगा कर चलते हैं, कर्फ्यू हम पर क्यों है?

हॉस्टल में गर्ल्स स्टूडेंड पर लगने वाले वक्त की पाबंदियों पर बोलते हुए सबा ने पितृसत्ता  और लड़कियों के मॉरल पुलिसिंग की सोच पर सवाल खड़े करते हुए कहा जब कॉलेज के हॉस्टल के रूलबुक में  ये बातें लिखी जाती है कि हॉस्टल से बाहर हम आपकी ज़िम्मेदारी नहीं हैं तो सेक्योरिटी के नाम पर कर्फ्यू क्यों?  सबिका ने कई विश्वविधालयों के हॉस्ट्ल्स में लड़कियों के लिए सीट ना होने पर भी एक बात की। मेस में छोटे कपड़े पहन के मत आइए, भारतीय कपड़े पहन कर आइए, ब्रा पहनना ज़रूरी है, ये वो बाते हैं जो लड़कियों को अक्सर सुनने को मिलता है। बेहद ही संवेदनशील सवाल उठाते हुए सबिका ने पूछा “लड़कियां जब 18 साल की होती हैं तो शादी लीगल हो जाती है लेकिन वो रात को हॉस्टल से बाहर निकल सकती हैं या नहीं ये डिसाईड करने की आज़ादी उसे नहीं है ये हास्यासपद है। ”

इस देश में या यूं कहें कि पूरी दुनिया में महिलाएं ओप्रेशन के दोहरे लेयर से गुज़रती हैं। किसी भी भेदभाव के अंदर महिलाओं के साथ अलग से भेदभाव किया जाता है, चाहे वो जातिगत भेदभाव हो, धार्मिक या फिर क्षेत्रवादी भेदभाव। हमें हमारे समाज को और हमारे सिस्टम को सेक्शुअल हैरसमेंट और कंसेन्शुअल सेक्स के बीच के अंतर को बड़ी ही बारिकी से समझने की ज़रूरत है।

हालांकि अभी शायद पहला कदम यही होना चाहिए कि हम औरत और मर्द के भेदभाव को खत्म करने और समझने से पहले हम औरतों को इंसान समझना शुरु कर दें।

 

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