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वो हमसे खफा हैं, हम उनसे खफा हैं

अनूप कुमार सिंह:

हिंदू-मुसलमान के आपसी मतभेद का मुद्दा आज के समय में सबसे बड़ा चुनावी प्रोपेगंडा है और हर पार्टी के लोग इसे भुनाने में लगे हुए हैं। आखिर क्या वजह है कि हर दूसरा नेता इन दोनों समुदायों के लोगों को आपस में भिड़ाकर अपना फायदा पाना चाहता है। बचपन से लेकर अब तक न जाने कितनी बार कितनी जगह के हिंदू-मुसलमान के दंगों के बारे में आपने सुना होगा। बंटवारा, बाबरी और गोधरा तो कलंक है ही लेकिन इनके अलावा भी बीच बीच में ऐसे कई खबरे आती रहती हैं कि दोनों समुदायों के बीच तनाव है और लोग एक दूसरे की जान लेने पर अमादा हैं। ऐसा नहीं है कि ये नफरत सिर्फ उत्तर भारत में ही है बल्कि पूरे देश में ही ऐसे लोगों की भरमार है। सारी दुनिया या मीडिया चाहे जितना कह ले या गंगा जमुनी तहजीब पर जितनी भी डाक्यूमेंट्री बना लें लेकिन सच तो यही है कि इस दौर में हर जगह किसी न किसी वजह से दोनों समुदायों के लोगों में तनाव जारी है।

ये मात्र संयोग नहीं है कि भारत के अधिकतर हिस्सों में मुसलमान जहाँ भी रहते हैं अपने समुदाय के लोगों के बीच में समूह बनाकर रहते हैं। किसी भी मुस्लिम बस्ती के बीच में किसी हिंदू का घर पाना या फिर हिंदुओं की बस्ती में मुस्लिम का घर पाना मुश्किल होता है। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि दोनों मज़हबों से अमन की कोशिश जारी रहती है लेकिन शायद आपसी बारूद ही इतना ज्यादा है कि किसी के एक माचिस लगाते ही सब जलने लगता है। फिर सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है चाहे वो मुजफ्फर नगर हो या दादरी। ये नफरत कई परतों में दबी हुई है बचपन से और खासकर उनमें भी है जिनका दंगों से या मुस्लिमों से कभी कोई वास्ता भी नहीं रहा। ठीक ऐसा ही मुस्लिम घरों में भी है उनकी नफरत भी इतनी ही है जो किस्सों कहानियों को सुनके और फ़िल्में देखकर पनपी है।

दिक्कत ये है कि मीडिया, फ़िल्में या किताबें इस समस्या को अलग नज़रिये से दिखाते तो हैं लेकिन समाधान कोई नहीं देता। लगभग इस मुद्दे पर बनी हर दूसरी फिल्म में यही दिखाया जाता है कि कुछ धर्मगुरु और कुछ नेताओं के बहकाने के कारण ही दंगे हो जाते हैं जबकि ऐसा नहीं है। कारण ये है कि नफरत पहले से है बस उकसाने भर की देरी है। क्या फर्क पड़ता है अगर आप किसी फिल्म में दंगों की ओरिजिनल फुटेज लगाकर फिल्म बनाये और सैकड़ों अवार्ड जीत लें आप ने कोई तीर नहीं मार लिया। जो चीज़ सबको पता है उसे खुले तरीके से दिखा दिया बस। आप नफरत का कारण या इसका उपाय खोजने चलेंगे तो शायद ही कोई फिल्म मिले।

जहाँ तक मेरा मानना है नफरत हमे अपनी परवरिश से मिली है अगर उसमें सुधार की जाए तो शायद कुछ उम्मीद जगे। नफरत की बानगी और गलतफहमियां देखनी हो तो दोनों धर्मों के लोगों से विपरीत समुदाय की बुराइयां पूछ कर देखिये जहाँ बचपन से ही हिंदू बच्चे के दिमाग में यह भर दिया जाता है कि बेटा मुस्लिम हर काम हम हिंदुओं से उल्टा करते हैं, वे हाथ भी उल्टा धोते हैं, वे तुमको खाना देते समय उसमें थूक देते हैं या वे अपने चचेरी बहनों तक से शादी कर लेते हैं वहीं कुछ मुस्लिम ये भी कहते फिरते हैं कि हिंदुओं के धर्म में तो लिंग तक की पूजा होती है या उनके पास जाओगे तो अपवित्र हो जाओगे। तो ज़ाहिर है जब बच्चा धीरे धीरे बड़ा होगा और उसे अपने देश का बंटवारा और आतंकवाद जैसी चीजों की समझ होगी तो ये नफरत और बढ़ती जाएगी। धीरे धीरे उसका दिमाग यह मान ही बैठेगा कि हर मुसलमान या हर हिंदू वैसा ही है जैसा हर जगह बताया जा रहा है और उससे नफरत ही करनी चाहिये। कभी दंगों में एक दूसरे को मारने वाले दोनो समुदायों के लोगों से मिलिएगा उनमें से कुछ ऐसे भी होंगे जिन्हें इस नफरत का ठीक से कारण भी नहीं पता होता फिर भी वे ये सब करते हैं।

जब तक हमे स्कूलों में सभी धर्मों के बारे में ठीक से पढाया नहीं जायेगा और उनके अच्छे बुरे के बारे में नहीं समझाया जायेगा तब तक हम आपस में ऐसे ही लड़ते रहेंगे। एक दूसरे के धर्म के बारे में इतनी कम जानकारी होने के बावजूद भी सब एक दूसरे को ख़राब कहने से नहीं चूकते वहीँ आपको उकसाने वाले आपकी इसी नासमझी का फायदा उठाकर अपना पॉलिटिकल और स्पिरिचुअल करियर सेट कर लेते हैं।

अगर बदलना है तो सबसे पहले अपनी सोच बदलिए, दूसरों के उकसाने से खुद को बचाएं और अपनी समझ को बेहतर करें। चैन से दो मिनट बैठकर सोचिये कि सच में आपको कोई नफरत है या बस भीड़ का हिस्सा बनकर आप दौड़े जा रहे हैं। बेशक शुरुआत में सब कुछ समझ नहीं आयेगा लेकिन टीवी और फ़िल्में छोड़ आप खुद जाइए लोगों से मिलने और उनसे बाते करिये कुछ दिनों में धीरे धीरे आपको सब समझ आ जायेगा कि वे आपसे बिल्कुल अलग नहीं हैं। फिर जाकर बच्चों के किताबों के पाठ्यक्रम बदलने की पहल करें, एक दूसरे के रीति-रिवाजों का सम्मान करना सिखाइए, अच्छी-अच्छी किताबें दे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए। बच्चों को शुरू से होली और ईद को एक साथ मनाने की आदत डलवाएं, मंदिर और मस्जिद से जुड़ी तमाम गलतफहमियों के बारे में उन्हें जागरूक करें। अगर आपने अपने बच्चों को ये सब सिखा दिया तो यकीन मानिये हमारी आने वाली पीढियां इस बीमारी से खुद को दूर रख सकेंगी। लेकिन इन सबके लिए ज़रूरी है आपका खुद का बदलना

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