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कॉलेजों का ‘काला धन’ खत्म करने को लाना होगा De-campus-isation

दीपकमल सहारन:

कॉलेज और यूनिवर्सिटी कैंपस में मौजूद इस काले धन का कोई तोड़ नहीं निकल पा रहा है। स्टाफ बदल चुका, बैच बदल गए, पीढ़ी बदल गई… स्टूडेंट्स के बच्चे स्टूडेंट बनकर आ गए, लेकिन काले धन की खेप लगातार बरकरार रही। यह हमारी शिक्षा व्यवस्था और नई पीढ़ियों के लिए शर्मनाक और unproductive है।

यह काला धन कैंपस में होने वाले हर कार्यक्रम में किलकी मारने में विशेषज्ञ है, कोई प्रस्तुति चल रही हो तो उसे तालियों से सराहने की बजाय चीख चिल्लाकर, सीटी बजाकर, हूटिंग के साथ डिस्टर्ब करने में ज़्यादा यकीन रखता है। इनमें स्टेज पर कोई नहीं आता लेकिन ग्रुप बनाकर बैठा यह धन आपस में चुटकुलेबाज़ी और कमेंटबाज़ी कर खूब ठहाके लगाता है और तालियां पीटता है। इनमें सबसे सयाना धन किसी भी शख्स या कलाकार की कला को अपने कमेंट्स से छोटा बनाने में माहिर होता है। यह टॉन्ट या हरियाणवी में ‘डाट’ पूरे काले धन को सुकून और किसी कामयाबी का अहसास दिलाने वाला होता है। स्टेज पर माइक टेस्टिंग के लिए ‘हैलो-हैलो’ बोल रही लड़की को चिल्लाकर बोलते हैं ‘हां हैलो, के हाल है माणस’ और फिर मुंह सीट के पीछे छिपा लेते हैं। चूंकि ये खुद स्टेज पर जा नहीं सकते इसलिए जैसे-तैसे ध्यान खींचने के लिए ऊल-जुलूल हरकतें करते हैं।

कैंपस के इस काले धन में बाइक पर बिना हेलमेट, 4-5 की संख्या में घूमने का टैलेंट रहता है और गाड़ी मिल जाए तो शीशे नीचे कर तेज़ आवाज़ में हनी सिंह सुनना भी इसकी पहचान है। लड़की के पास से गुज़र जाने पर कमेंट किए बिना तो ये खुद को किसी लायक समझते ही नहीं। हां, सामने से किसी से तमीज़ से बात करना या प्रभावित करना इनके बस का काम नहीं है।

हमारे युवाओं का यह टैलेंट, काला धन क्यों है? क्योंकि यह गैरज़रूरी है, गलत आदतों से बना है, स्वीकार्य नहीं है और बाकी युवाओं के लिए सिरदर्द है। यह धन खत्म होगा तो कैंपस में क्रियाशीलता बढ़ेगी, सकारात्मकता आएगी और मेहनती युवाओं की कदर बढ़ेगी।

हमारे कैंपसों में इस धन ने कई दशक पहले इकट्ठा होना शुरू किया और पीढ़ी दर पीढ़ी, बैच दर बैच अगली पीढ़ी को ट्रान्सफर होता रहा। जो 80 और 90 के दशक में किलकी मारते थे, आज उनके बेटे भी उसी अंदाज़ में इस होड़ में शामिल हैं। जो लड़कियां आज झेलती हैं, उनकी मां भी शायद इसी दौर से गुज़री होंगी या उनके पिता इस धन का हिस्सा रहे होंगे। बच्चों का दोष नहीं है। कैंपस में आने के पहले साल में उन्हें यह सब नहीं आता लेकिन जाते-जाते वे सब सीख जाते हैं, क्योंकि सीनियर्स को देख उन्हें लगता है कि यह सब कैंपस में करना ज़रूरी होता है।

इसलिए क्या काले धन की तरह कुछ समय के लिए हमारे कैंपसों को भी खाली करवा दिया जाए। अगर कोई नया बैच आए और उसे कैंपस में सीनियर्स ना मिले तो काफी संभावना है कि वे यह सब नहीं सीखेंगे। पिछले दशक में खुले नए इंजीनियरिंग या अन्य ग्रेजुएशन कॉलेजों के बच्चे उन कैंपस से ज़्यादा सभ्य हैं जहां दशकों से लगातार पढ़ाई चल रही है। बारहवीं से निकलकर आने वाले बच्चे, सीनियर्स से ही हुड़दंगबाज़ी का हुनर और हौंसला सीखते हैं। उन्हें महसूस होता है कि सीनियर बनने के लिए यह सब गुण होने ज़रूरी हैं। संभव तो नहीं है लेकिन 2-3 साल के लिए De-campus-isation यानी कैंपस में नए बच्चे ना लेकर, इस परम्परा को खत्म किया जा सकता है।

यह काला धन कैंपस से निकलने के बाद इस व्यवहार को बसों, सार्वजनिक स्थानों, चंडीगढ़, दिल्ली और विदेशों तक ले जाता है जो अंतत: प्रदेश और देश की छवि खराब ही करता है। इससे छुटकारा पाने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

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