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कॉलेज में रट्टे मारकर नहीं, गुजरात में ड्राइविंग करने से हुई मेरी ट्रेनिंग

हरबंस सिंह:

2004 मे अगस्त का महीना था, में टाटा सूमो को ड्राइव करके द्वारका से अहमदाबाद वापिस आ रहा था, भारी बारिश थी और पीछे यात्री परिवार के बच्चे बातें कर रहे थे। किसी को डॉक्टर बनना था और किसी को इंजीनियर, लेकिन कोई भी ड्राइवर नही बनना चाहता था। एक सच्चाई ये भी थी कि में एक पढ़ा-लिखा ड्राइवर था। नाम हरबंस सिंह सिधु, उस वक़्त उम्र 26 साल और 1997 का बी.ऐस.सी. ग्रैजुएट।

1982 में मेरे घरवालों ने एक समझदार बुज़ुर्ग से सलाह ली कि बच्चे को इंग्लिश मीडियम में डालें या हिंदी मीडियम में। बुजुर्ग ने कहा अगर घर में कोई पढ़ा-लिखा ना हो तो हिंदी माध्यम में डाल दो। इसी के साथ मेरा स्कूल में दाख़िला करा दिया गया। जब मैं कक्षा तीन में पहुंचा तो पाठ्यक्रम में तीन भाषाओं का मेल हो गया था हिंदी, इंग्लिश और गुजराती। कक्षा 8 में संस्कृत के रूप में एक और भाषा जुड़ गयी तो अब 7 विषयों में से 4 भाषायें थी। 1994 में बारहवीं क्लास में सारे टीचर ट्यूशन में “रट्टे मार लो” यही कहा करते थे। इस तरह पता ही नहीं चला कि कब मैं लकीर का फ़क़ीर बन गया।

लेकिन असली दिक्कत तो तब आयी जब 1994 में बारहवीं के बाद कॉलेज में एडमिशन के लिये घूम रहा था, पता चला कि गुजरात राज्य में कोई हिंदी माध्यम में कॉलेज ही नहीं था। फिर इंग्लिश माध्यम में एडमिशन लिया, और लेक्चर मानो अम्ब्रोस की गेंद की तरह कही ऊपर से चला जाता था। चलो जैसे-तैसे बी.ऐस.सी. में मैं ग्रैजुएट हो गया। मेरे सामने अब एक सवाल था कि आगे क्या? कुछ ऐसा विशेष ज्ञान नही था मुझमे कि जाकर काम की तलाश कर सकूं बस हाथ में एक डिग्री ही थी। लेकिन इसका क्या करूं?

जहां-जहां इंटरव्यू देने गया वही ये कहकर नकार दिया गया कि आत्मविश्वास की कमी है। फिर एक कंप्यूटर इंस्टिट्यूट से जुड़ा, वहां कुछ सीखा भी और बोलना भी सिख लिया। बाद में एक साल के भीतर वहीं पे काम करना भी शुरू कर दिया, पहली तनख्वाह थी 625 रुपये। लेकिन ऑफ़िस की राजनीति को समझ नहीं पाया और 18 महीनों में ही नौकरी से तौबा कर ली। लेकिन अब फिर से सवाल वाही था कि आगे क्या?

अगले 2 सालों तक कोई काम नहीं था, सुबह की चाय और शाम का खाना और टीवी देखना बस यही ज़िंदगी बन गयी थी। हर किसी की आंखे बिना बोले ही काफी कुछ बोल जाया करती थी। मानो वो नज़रे चीर जाती थी, कुछ समय बाद मैं पछता रहा था कि क्यों मैंने काम छोड़ा लेकिन उस भूल को सुधारा नहीं जा सकता था। माँ और बाप हर बात एक ताना मारते थे चाहे वह स्वभाविक ही कही गयी हों। मुझे हर चीज से नफरत हो रही थी और मैं इस समय अपनी निराशा की चरण सीमा पे था।

इसी बीच 2003 में घर वालो ने टाटा सूमो गाड़ी ले ली, मैंने जल्द ही इसे चलाना सीखा और फिर इसे टैक्सी में चलाने लगा। अगले एक साल में मैंने लगभग पूरा गुजरात घूम लिया, अलग-अलग तरह के लोग मिलते थे लेकिन मेरे अंदर का डर कही छुमंतर हो चुका था। मुझे यह यकीन हो चुका था कि यही गाड़ी मेरे जीवन के प्रति फिर रुचि को जगायेगी, मेरी निराशा को आशा में बदलेगी।

2004 में शादी के बाद एहसास हुआ की अब मुझे जॉब की तलाश करनी चाहिये, मेरा आत्मविश्वास अब चरम सीमा पर था। कुछ कोशिशों के बाद 2005 में मुझे जॉब मिल गयी और अगले दो सालों में मैं लीडिंग पोजीशन पर था और आज प्रोजेक्ट मैनेजर हूँ। लेकिन वह सारी डिग्रियां जो मुझे हमारी शिक्षा प्रणाली ने दी है, उन्हे बस संभाल कर रखा हुआ है। मेरे लिये तो असली मायनों में टाटा सूमो ही एक स्कूल थी और उसके चलाने का अनुभव मेरी प्रोफेशनल ट्रेनिंग। ये ट्रेनिंग इतनी मजबूत थी कि मंदी के टाइम जब लोगो की जॉब जा रही थी, मैं बिलकुल निडर खड़ा था। लोग सवाल करते थे कि तू क्यों भयभीत नहीं है? अब मैं उन्हें क्या कहता कि मेरा स्कूल कौन सा था और उसकी पढ़ाई कितनी मजबूत थी।

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