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JNU में इस्लामोफोबिया?

हसन अकरम:

पिछले क़रीब दस महीनों से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय सुर्ख़ियों में रहा है। इस बीच उस संस्थान में तीन बड़ी घटनाएं घटीं; देश-विरोधी नारे लगना, प्रधानमंत्री समेत दस प्रसिद्ध व्यक्तियों का पुतला जलाया जाना और बायोटेक्नोलॉजी के छात्र नजीब अहमद का पिटाई के बाद लापता हो जाना। इन तीनों मामलों में अंतिम वाकया सलूक एवं बर्ताव के लिहाज़ से अलग है। पहले दो ख़बरों के संबंध में मीडिया और प्रशासन चराग़पा नज़र आए थे और विद्यार्थियों को जवाबदेही के कटघरे में खड़ा किया गया था। परंतु नजीब के मामले में इसके बिलकुल उलट  हुआ । इस सन्दर्भ में विद्यार्थी बड़ी संख्या में चराग़पा है और प्रशासन को जवाबदेही के कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं। वह वार्डन की लापरवाही पर प्रश्न व्यक्त कर रहे हैं और अभियुक्त छात्रों की गिरफ़्तारी न होने और नजीब का अब तक कोई सुराग न मिलने के लिए वह जेएनयू प्रशासन एवं दिल्ली पुलिस को ज़िम्मेदार मान रहे हैं।

दुखद बात यह कि नजीब अहमद की पिटाई के बाद गुमशुदगी के कारण जेएनयू होस्टलों में मुस्लिम छात्रों में डर और खौफ पैदा हो गया है। उनकी ज़ुबानी ही, वह स्वयं को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं। तथा, इस घटना के बाद से एबीवीपी के विद्यार्थी मुस्लिम दुश्मनी का खुला इज़हार कर रहे है । अनिरभान भट्टाचार्या के लेख के अनुसार होस्टल के अंदर “मुसलमान आतंकवाद हैं” जैसी लाइनें लिख कर ”इस्लामोफोबिया” का माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है। इस सन्दर्भ में एक बड़ा प्रश्न यह उठाया जा रहा है कि जब मुस्लिम छात्र जेएनयू जैसे धर्म निरपेक्ष और आज़ादी वाले संस्थान में अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे  हैं तो दूसरे शिक्षण-संस्थानों में उनकी क्या स्थिति होगी?

नजीब की माँ और बहन इन दिनों दिल्ली में हैं। मैंने उन्हें शुक्रवार को दिल्ली पुलिस के मुख्यालय के पास देखा। उसकी माँ एक पोस्टर जिस पर नजीब का फोटो छपा था, अपने सीने लगाए हुई थी। सर झुका हुआ, दिमाग बेटे की सोच में डूब हुआ और आँखों में आंसू आए हुए थे। उनकी आंसुओं को देख कर क़रीब था कि मैं भी रो पड़ता लेकिन सामने लोगों को देख कर मैंने खुद पर नियंत्रण किया। माँ के सामने उसकी बहन बैठी थी और उनके आस-पास विद्यार्थी नारेबाजी कर रहे थे। उन्ही में से एक छात्र ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ नारा लगाया तो उसकी बहन ने उसे रोका। इस समझ-बूझ वाले क़दम पर उस बहन को झुक कर आदाब कहने को जी चाहा।

दुर्भाग्य की बात यह कि पीड़ित नजीब को ही अभियुक्त दिखाने की कोशिश हो रही है। एबीवीपी के छात्रों का कहना है कि पहले नजीब ने थप्पड़ मारा था और विक्रांत कुमार के हाथ में बंधे धागे का अपमान किया था, जिस में भगवान की श्रद्धा होती है। इस तरह देखा जाए तो दिल्ली से सटे बिसाहड़ा गाँव के अख़लाक़ की हत्या में भी धार्मिक मूल्यों के अनादर का एहसास कारण के तौर पर शामिल था। गौमाता के प्यार में अख़लाक़ को मारा गया और धागे की श्रद्धा में नजीब को पीटा गया। अख़लाक़ की हत्या के बाद पत्रकारों ने यह प्रश्न उठाया था कि यदि मान लिया जाए कि अख़लाक़ के फ्रीज में गोमांस था तो क्या उसकी सजा मौत थी ? लेकिन नजीब के मामले में किसी ने यह सवाल नहीं पूछा कि अगर नजीब ने थप्पड़ मारा ही था और इस में धागे से संबंधित श्रद्धा का अनादर हुआ था तो क्या इस देश में उसकी यही सजा थी जो उसे एक ख़ास वर्ग के छात्रों द्वारा दी गई ? इस संबंध में दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि अख़लाक़ के वाकये ने सिविल सोसाइटी और मीडिया का जितना ध्यान आकर्षित किया था, नजीब के मामले में वह बात नज़र नहीं आई। सिविल सोसाइटी के लोग भी जेएनयू के इस मामले से दूर रह कर देश-द्रोही कहे जाने की आशंका से बचे रहे।

अर्थात, नजीब के मामले में हर ओर से निराश ही मिलती दिख रही है। जेएनयू के व्यवस्थापक रिपोर्ट में नजीब की पिटाई का ज़िक्र भी नहीं है, जिस पर जेएनयू शिक्षक-समिति ने आपत्ति जताई है। इस से जेएनयू प्रशासन का मंशा भी साफ़ है। इस सन्दर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आगे आना चाहिए क्योंकि वह माँ और महिला के लिए बड़ी सहानुभूति प्रकट करते हैं। कुछ ही दिनों पहले मुस्लिम महिलाओं के प्रति उनका सहानुभूतिपूर्ण बयान आया था। पर यह बात काफी दयनीय है कि उन्ही के शासन में अधिकारियों की लापरवाही के कारण एक माँ अपने बेटे से दूर है और बेहद दुखी है। इस मौक़ा पर ग़ालिब की भाषा में वह कह रही है

इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई

मेरे दुःख की दवा करे कोई

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