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नजीब की माँ का दर्द हमारी माँ के दर्द से अलग है?

हरबंस  सिंह:

2014 के चुनावो में नरेंद्र मोदी भावुक होकर अपने भाषणों में माँ का ज़िक्र करते थे। उसी तरह राहुल गांधी भी अपनी माँ से इतना प्रेम करते थे और कहा ये भी गया कि अपनी माँ को खोने के डर से वो नहीं चाहते थे की सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री बने। लेकिन आज दिल्ली की सड़कों पर एक माँ रो रही हैं उसकी थकी हुई आखे अपने बेटे नजीब को खोज रही हैं लेकिन क्यों कोई सुध नहीं ले रहा? क्या बदलते हुए दौर में बेटे या माँ की व्यक्तिगत और सामाजिक रुतबा ही माँ की जज़्बातों को पहचान दिला सकता है?

नजीब की माँ को ले जाती पुलिस

हम आज इस कदर असंवेदनहीन और स्वार्थी होते जा रहे हैं कि हमने किसी और पर हो रहे जुर्म को देखने से भी मना कर दिया है। आखिर यही तो वजह होगी कि कोई आवाज़ नहीं सुनाई दे रही इस माँ के साथ खड़े होने के लिए। किसी ज़ुबान से कोई नारा नहीं निकल रहा और इस दुख में कोई अपने हाथ हवा में जन-शक्ति बना कर नहीं उठा रहा। वो भूखी प्यासी अपनी बहती हुई आंसुओं के साथ दिल्ली की हर सड़क से पूछ रही है कि कहीं मेरा बेटा यहाँ से तो नहीं गया ?  लेकिन बदले में इन्हें जबरन गिरफ्तार किया जाता हैं। शायद सवाल पूछा जाना हमारी पुलिस को भी अब अच्छा नहीं लगता।

मेनस्ट्रीम मीडिया का रवैय्या तो निराशाजनक रहा लेकिन इन्टरनेट के इस ज़माने में और JNU के स्टूडेंट्स द्वारा चलाई गई मुहिम की वजह से आज देश का कोना कोना “नजीब” के गुम होने से वाकिफ है। लेकिन आम लोगों का इस अांदोलन से ना जुड़ना एक बड़ी वजह है कि नजीब की गुमशुदगी को लेकर ना तो सरकार पर और ना ही पुलिस पर वो दवाब बन रहा है। तो क्या [envoke_twitter_link]हर खोए हुए “नजीब” को लाने के लिये अांदोलन करना पड़ेगा?[/envoke_twitter_link] अगर हाँ, तो क्या सिर्फ वज़ीर ही बदला है 1947 से अबतक और कुछ नहीं?

अगर आज हम सिर्फ ये सोच कर अपने घरों में बैठे हैं कि नजीब हमारा बेटा नहीं है तो टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी इस रिपोर्ट  को पढ़ने के बाद हो सकता है कि आपको भी आपके बच्चों कि चिंता सताएगी और उस माँ का दर्द शायद वाजिब लगेगा। इस रिपोर्ट के अनुसार हर रोज़ हमारे देश में से लगभग 180 बच्चे गुम होते हैं और उनमे 22 बच्चे हमारी देश की राजधानी से गुम होते हैं।

मोदी अक्सर अपनी 2014 की चुनावी रैलियों में अपनी माँ की तकलीफों का ज़िक्र बड़े भावुक होकर किया करते थे,उन्होंने देश के साथ ये भी साझा किया था कि उनकी माँ ने किस तरह लोगों के घर बर्तन साफ़ कर उनकी परवरिश की थी। फिर कम से कम उनको तो फातिमा नफीस का दर्द दिखना चाहिए। ये गुम हुये बच्चो की संख्या यूंही बढ़ती रहेगी जब तक एक आम भारतीय नागरीक को “नजीब” मे अपना बच्चा नज़र नहीं आता और वो सड़कों पर सिर्फ नजीब के लिये नहीं बल्कि अपने बच्चों की सुरक्षा के लिये नारा नहीं लगाते। वरना हो सकता है एक और माँ सड़क पर रोती मिले, बच्चे का नाम भले ही नजीब से बदलकर कुछ और हो जाए।

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