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कोर्ट और सरकार की तकरार

शुभम कमल:

यदि आप लोगों से पूछेंगे कि इस दुनिया में न्याय कौन करता है तो लोगों का मत होगा ईश्वर और देश की अदालतें या कोर्ट यानि न्यायपालिका (या ज्यूडीशियरी)। अब क्यूंकि ईश्वर को किसी ने देखा नही जाना नहीं तो भारत देश में न्यायपालिका को ईश्वर का दरबार और जजों यानि कि जजों को ईश्वर का दर्ज़ा प्राप्त है। भारतीय न्यायपालिका अपनी निष्पक्षता, स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा के लिए जानी जाती है। इसका उल्लेख वह ‘सत्यमेव जयते’ वाक्य से करती है, इसीलिए यह केवल एक वाक्य न होकर देश के लोगों की उम्मीद और भरोसा है कि जीत सच की ही होगी।

भारत में सतही तौर पर न्यायालय या कोर्ट के तीन स्तर हैं- 1- उच्चतम न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट, 2- उच्च न्यायालय या हाई कोर्ट और 3- निचली अदालतें। हर कोर्ट में जजों का चुनाव, एक व्यापक और विशेष प्रक्रिया से होता है, जिनमे यह विशेष तौर पर ध्यान रखा जाता है कि जजों की नियुक्ति में किसी भी तरह का राजनैतिक दखल न हो।

सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के विषय में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(1) में कहा गया है कि, सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों की नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति को भारत के चीफ जस्टिस या चीफ जस्टिस से परामर्श करना ज़रूरी है। हालांकि परामर्श शब्द पर कुछ दिनों विवाद रहा। वहीं संविधान के अनुच्छेद 143 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा किये गए एक परामर्श में, सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की पीठ ने राय दी कि भारत के चीफ जस्टिस की राय, जिसे परामर्श की प्रक्रिया में प्रमुखता दी जाती है और जिसमें न्यायपालिका की राय प्रतिबिंबित होती है, ऐसी मंडली (यानि कोलीजियम) से परामर्श के आधार पर बनायी जाए जिसमें भारत के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जज शामिल होगें। इसे तृतीय न्यायाधीश मामला(1998) भी कहा जाता है।

सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों की नियुक्ति सम्बन्धी योग्यताएं संविधान के अनुच्छेद 124(3) में दी गई हैं। यही प्रक्रिया उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के संबंध में भी हैं जिसमें राष्ट्रपति, भारत के चीफ जस्टिस, राज्य के राज्यपाल और सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज (जो भारत के चीफ जस्टिस को सलाह दे सकते हैं) से सलाह करके जजों की नियुक्ति करते हैं। बाकी हाई कोर्ट के जजों की  नियुक्ति सम्बन्धी योग्यताएं अनुच्छेद 217 में दी गई हैं।

यानी भारत की न्यायपालिका ने जजों की नियुक्तियों में किसी भी प्रकार के राजनैतिक और विशेष दखल को अवैध माना है। कारण ये है कि कोलीजियम में राजनैतिक दखल भारत की न्याय प्रक्रिया पर भी असर डाल सकता है। यही नहीं भारतीय न्यायपालिका ने प्रथम (1982), द्वितीय (1993) और तृतीय जज मामले (1998) में भी जजों की नियुक्ति में राजनैतिक दखल को पूरी तरह नाकारा है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को जजों की नियुक्तियों में भी कायम रखा है।

हमारे देश में न्यायपालिका में जजों की भारी कमी है, जिसके चलते न्याय प्रक्रिया में काफी समय लग जाता है। नया विवाद जजों की नियुक्ति से जुड़ा हुआ है, जिस प्रकार नियुक्तियों में देरी हो रही वह काफी चिंताजनक है, जिसकी वजह न्यायपालिका और केंद्र सरकार में नयी तकरार है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कभी भारत के चीफ जस्टिस की आंखें छलक जाती हैं, तो कभी न्यायपालिका, सरकार को कड़ी फटकार लागाते हुए कहती की ऐसे तो सरकार न्यायपालिका पर ताले लगा दे और हम न्याय देना बंद कर दें।

31 जजों वाले सुप्रीम कोर्ट में 6 जजों की कमी है, 1056 जजों वाले 24 हाई कोर्ट्स में 465 जजों की कमी है और 20495 जजों वाली तमाम निचली अदालतों में लगभग 5074 जजों की कमी है। इसके चलते लगभग 2.18 करोड़ केस पेंडिंग हैं, जिसमें 22 लाख केस ऐसे हैं जिनमें 10 वर्ष से सुनवाई ही नहीं हो सकी। 1 केस की सुनवाई के लिए कोर्ट के पास औसतन 3 मिनट हैं, ऐसे में कोलेजियम जजों की नियुक्तियां जल्द करना चाहता है, लेकिन नियुक्तियों में विवाद नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद शुरू हुआ।

केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत में सरकार बनते ही, भाजपा ने फैसला किया की वह संसद में विपक्ष को नहीं रखेगी क्यूंकि विपक्ष के पास विपक्षी बने रहने के लिए जरूरी सीटों से भी काफी कम 44 सीटें ही थी। इसके चलते मौजूदा विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। न्यायालय ने सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए विपक्ष को साथ रखने के लिए कहा जिससे लोकतान्त्रिक और सामाजिक न्याय पर कोई असर न पड़े।

सरकार ने 2014 में  संसद की पहली कार्यवाही में ही 99वां सविधान संसोधन करके जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को यानि कोलेजियम व्यवस्था को चुनौती दी। इसके पीछे यह तर्क दिया कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता ज़रूरी है और कोलेजियम की जगह राष्ट्रीय न्यायधीश नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointment commission, NJAC) का गठन कर दिया। इसमें जजों की नियुक्ति सम्बन्धी प्रावधान है, कि NJAC में चीफ जस्टिस, 2 वरिष्ठतम सुप्रीम कोर्ट के जज, भारत सरकार के कानून मन्त्री और 2 विख्यात लोग (यह दो विख्यात लोग एक कमिटी द्वारा नियुक्त किये जायेंगे जिसमें मुख्य जज + प्रधानमंत्री + लोकसभा में विपक्ष का नेता होगा और यह 2 लोग तीन-तीन वर्षो के लिए नियुक्त होगें और इन्हें दोबारा नियुक्त नहीं किया जा सकता) होंगे।

इस आयोग में राजनैतिक हस्तक्षेप साफ़-साफ़ दिखता है। इसमें यदि मुख्य जज और सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज चाहें तो किसी की नियुक्ति पर वीटो कर सकते है और वह नाम दोबारा नियुक्ति के लिए नहीं आयेगा। यदि कानून मन्त्री या दो विख्यात लोग में से कोई भी किसी नाम से असहमत है तो भी नियुक्ति रुक जाएगी और ये किसी और नाम की सिफारिश भी कर सकते हैं। इस संसोधन को संसद के दोनों सदनों में पूर्ण बहुमत से पास किया गया और इसे अमली जामा राष्ट्रपति ने दिसम्बर 31, 2014 को मुहर लगा कर दे दिया और यह अप्रैल 2015 में लागू हुआ।

सवाल यह है कि सरकार का काम जजों की नियुक्ति में हस्तक्षेप  करना नहीं है, बल्कि कोलीजियम द्वारा भेजे गए नामों को सलेक्ट करना है। क्या देश की राजनीती यह चाहती है कि न्याय प्रक्रिया में राजनैतिक दखल हो, जिससे न्यायालय सरकार की नीतियों और मनमानी पर सवाल न खड़े कर सके? यदि सवाल खड़े करेगी तो जजों की नियुक्ति नहीं होगी? , क्या सरकार ऐसे जजों की नियुक्ति के पक्ष में है जिनकी विचारधारा सरकार की विचार धारा से मेल खाती हो और उस व्यग्तिगत विचारधारा का प्रभाव न्याय पर भी पड़ सके? न्यायपालिका में राजनैतिक हस्तक्षेप से क्या न्याय प्रक्रिया पर सवाल नहीं होगा?

यह एक ऐसी राजनीती है जिसमें नुकसान सिर्फ और सिर्फ जनता का, अभिव्यक्ति की आज़ादी का और भरोसेमंद न्याय का होना है। इससे साफ़ पता चलता है कि सरकार देश को, यहां तक कि न्यायपालिका को भी रिमोट कण्ट्रोल से चलाना चाहती है। ये इसलिए ताकि ऐसे लोगो को रोका जा सके जो सरकार के खिलाफ बोलते हैं या नीतियों, सोच और सरकार के सामाजिक न्याय पर सवाल खड़ा करते हैं। अब चाहे वह विश्वविद्यालय हो या मीडिया हो या फिर न्यायपालिका हो। यह बिलकुल अलोकतांत्रिक और अमानवीय और तानाशाही सोच है जिसको देश ने हर बार नाकारा ही है।

NJAC के लागू होते ही न्यायपालिका ने इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया। इसके पीछे यह तर्क दिया गया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का संबंध, जजों की नियुक्तियों से भी है और कोलीजियम में संशोधन की कोई गुंजाईश नहीं है। लेकिन सरकार का रुख अभी भी न्यायपालिका की आज़ादी को छीनने वाला ही है। NJAC के ख़ारिज होते ही सरकार ने नया पैंतरा मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसीजर (MOP) खोजा है, इसमें प्रावधान है कि यदि कोलेजियम किसी नाम को ख़ारिज करता है तो उसे उसका कारण लिखित में सरकार के पास जमा करना होगा।

न्यायपालिका और सरकार में तकरार कब तब चलेगी, यह तो पता नहीं पर तकरार के चलते नुकसान उन करोड़ो लोगों का ही होना है जो निष्पक्ष न्याय के लिए अदालतों के सालों-साल चक्कर लगा रहे हैं। लेकिन अदालत के पास समय और न्याय देने वाले जजों दोनों की कमी है, अब सरकार को अड़ियल रुख छोड़कर अदालतों के चक्कर काटने वाले व्यक्तियों पर भी नजर डालनी होगी, जो गरीबी-लाचारी से जूझते हुए भी न्याय की आस लगाये बैठे हैं।

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